हिल मा चांदी कु बटन, रेंदी दिल मा तुम्हारी रटना

||हिल मा चांदी कु बटन, रेंदी दिल मा तुम्हारी रटना||



ये आकाशवाणी है,


अब नहीं सुनाई देती है


पहाड़ की ठेट मखमली और जादुई खनक !



आज से ठीक 4 साल पहले जब पूरा देश पूस की कडकडाती ठण्ड में घनघोर नींद में सो रहा था, वहीँ पहाड़ी लोकसंस्कृति का पुरोधा अपनी जादुई खनक को छोड़कर सदा सदा के लिए हमारे बीच से चल बसा। अब हमें कभी भी रेडियो और दूरदर्शन पर चन्द्र सिंह राही जी की जादुई खनक वाली आवाज कभी भी लाइव सुनाई नहीं देगी। जीवनपर्यंत पहाड़ की लोकसंस्कृति, लोकबाद्य यंत्रो, पहाड़ की जीवनशैली, लोकजीवन को साक्षात जीने वाले और इसे संजो कर आने वाली पीढ़ी के लिए सहेजने वाले चन्द्र सिंह राही का जाना पहाड़ की लोकसंस्कृति सुर और साज के लिए एक शून्य छोड़ चला है। जिसकी भरपाई शायद कभी भी नहीं हो पायेगी।


भले ही सात समन्दर पार भी लोगों ने राही जी की जादुई आवाज की खनक और लोकसंस्कृति की पीड़ा को महसूस किया हो लेकिन अपने ही घर में निति नियंता लोक के प्रति उनकी पीड़ा को नहीं समझ पाया। राही जी उस दौर से ताल्लुक रखते थे जब डिजिटल का मतलब महज रेडियो और टेपरिकार्डर की आवाज होती थी जो लोक से जुड़ने का सबसे बेहतरीन साधन उस दौर में पहाड़ के घर गांवो में मौजूद था। उन दिनों पहाड के लोकसंगीत, लोकसंस्कृति का दूसरा नाम था चन्द्र सिंह राही जी के जादुई आवाज की खनक -- पंचमी का मेला... मेरी बौ सुरैला, सतपुली का सैण,मेरी बौ सुरैला---, सौलि घुर्रा घुरर दगडीया, तिले धारु बोला---, हिल मा चांदी कु बटन.. रेंदी दिल मा तुम्हारी रटना------, भाना हे रंगीली भाना-----, जरा ठण्डु चला दी जरा मठु चला दी---, से लेकर ...हिट रे मेरा मोती ढांगा, सेरा सेरी जौला------, हिट बल्दा सरासरी रे, तिन होल मा जाण रे---, गाडो गुलबंद, गुलबंद नगीना... , आंछरी जागर चैत की चैत्वाली...जैसे अनगिनत गीतों में लोग अपने सामने अपने पहाड़ को साक्षात् महसूस करते थे। हाल के दिनों में युवा गायक अमित सागर द्वारा उनके आंछरी जागर चैत की चैत्वाली... को नये तरीके से प्रस्तुत कर धमाल मचाया।


राही जी ने उत्तराखंड के लोकगीत, लोकबाद्य यंत्रो, लोकनृत्य को बचाने का भागीरथ प्रयास किया है और इनका अभिलेखीकरण कर इन्हें बचाया है। जो आने वाली पीढ़ी के लिए किसी अनमोल धरोहर से कम नहीं है। राही जी हमेशा से ही लोकसंस्कृति के संवाहक रहें है। अंतिम समय तक उनके मन में एक टीस चुभती रही की हम अपनी संस्कृति की जड़ो को कमजोर कर रहें है और लोक को बिसराते जा रहें है। २००७ में लोकसंस्कृति के संवर्धन और संरक्षण के लिए उनके द्वारा एक विस्तृत कार्ययोजना सूबे की तत्कालीन सरकार के संस्कृति विभाग को दिया गया था। लेकिन तंत्र की ख़ामोशी लोक पर भारी पड़ गई। अब ये देखना दिलचस्प होगा की लोक विधाओं के संरक्षण की जो धड़कन राही जी के जाने के बाद थम सी गई है, क्या कोई संजीवनी लोक से बिलुप्त होने के कगार पर खड़ी इन विधाओं के संरक्षण को नवजीवन देती है की नहीं।


वास्तव में राही जी के जाने के बाद जो खालीपन और ठहराव पहाड़ी लोकसंस्कृति में आ गया है शायद ही कभी ये सूनापन खत्म हो पायेगा। भले ही राही जी का उत्कर्ष काल मेरी पहुँच में नहीं रहा लेकिन वे हमेशा से ही मेरे लिए आदरणीय रहे। पहाड़ी लोकसंस्कृति को नए पटल पर ले जाने वाले राही जी को मेरी और से इस पोस्ट/लेख के जरिये एक छोटी सी श्रद्धांजलि


-- अब कौन सुनाएगा हमें--- सौलि घुर्रा घुरर दगडीया, तिले धारु बोला---, की जादुई खनक। आप तो चले गये राही जी लेकिन आपके गीत सदा आपकी याद दिलाते रहेंगे------


पंचमी का मेला, मेरी बौ सुरैला, सतपुली का सैण, मेरी बौ सुरैला----------