विचित्र किंतु सत्य - सिंहासन के लिए देवताओं में भी संघर्ष||
जी हां सुनने देखने मे जरूर अटपटा लग सकता है लेकिन सत्य भी है और विचित्र भी।।
जी हां ये वाकया है उत्तरकाशी के पौराणिक, ऐतिहासिक व धार्मिक माघ मेले का ।
बाड़ाहाट का थौलू के नाम से मशहूर ये माघ मेला मकर संक्रांति के अवसर पर हर साल माँ गंगा के किनारे धार्मिक शहर उत्तरकाशी में सजता है। इस मेले में जिले भर के कई गांवों खासकर आसपास बाड़ागड्डी व बाड़ाहाट पट्टी की देव डोलियां, हरि महाराज, भगवान नागराज, खंडद्वारी माता व कंडार देवता सहित दर्ज़नो देवी देवताओं की डोलियां मेले में आने से पहले पवित्र गंगा स्नान करती हैं और मेले का विधिवत वैदिक मंत्रोच्चार से शुभारंभ करते हैं। उसके बाद ही मुख्य अतिथि मेले का सरकारी तौर पर उद्घाटन करते हैं।
बाड़ाहाट में चमाला की चौरी यानी देव थाती यानी विशेषकर देवी देवताओं के लिए बने विशेष स्थान पर आज तक हरि महाराज व कंडार देवता विराजमान होते थे। इसी जगह पर एक पीपल का पेड़ हुवा करता था जो पिछले वर्ष उखड़ गया था। इस जगह पर देव थाति पर एक और चबूतरा बना दिया गया ,जिसके ऊपर एक ही देव डोली को बैठने की जगह बच गई। जिसके ऊपर पहले से ही कंडार देवता विराजमान हो गए।
बस यहीं से मामले ने तूल पकड़ा। हरि महाराज की देव डोली और ढोल लेकर हज़ारों भक्त इसी जगह अपने देवी देवताओं को सिंहासन देने के लिए आपस मे उलझ गए। ये सारा मामला 15 जनवरी सांय 4 बजे से शुरू हुआ। विवाद इतना बढ़ा कि रातभर मामला शांत नहीं हुवा।
16 जनवरी को जिला प्रशासन व पुलिस प्रशासन को हस्तक्षेप करना पड़ा और एक लिखित समझौता व आदेश निकालना पड़ा। तब जाकर मामला शांत हुआ लेकिन इसके बावजूद जिलाधिकारी व पुलिस उपाधीक्षक व, पुलिस फोर्स के मौके पर होने के बावजूद हज़ारों भक्तों की मौजूदगी में देव डोलियां सिंहासन के लिए घंटों तक संघर्ष करते रहे।।
कोई भी देव डोलियां हार मानने को राजी नहीं थी।
खैर अंततः मामला जैसे तैसे शांत हुवा और देव डोलियाँ भी मान गईं और मानव भी मान गए और सभी अपने अपने गंतव्य की ओर निकल पड़े। दरअसल माघ मेले में हज़ारों की संख्या में ग्रामीण भक्तगण ढोल नगाड़ों के साथ अपने अपने देवी देवताओं की डोलियों को लेकर मेले में आते हैं।।
कभी इन गांवों की तो कभी उन गावों की दर्ज़नों देव डोलियां लेकर आस्था विश्वास व मनोकामना लिए सैकड़ों की संख्या में भक्तगण व ग्रामीण मेलार्थी ढोल नगाडों गाजे बाजों के साथ झूमते नाचते मेला स्थल तक पहुंचते है। देव डालियों के साथ नृत्य के बाद अपनी अपनी जरूरत की चीजें खरीद, मेला घूमने , चाट मिठाई जलेबी का स्वाद और झूला चर्खी का लुत्फ लेने के बाद लौट जाते हैं अपने अपने गावों को।