बसन्त ऋतु: यही तो मधुमास है

||बसन्त ऋतु: यही तो मधुमास है||



प्रकृति ने भी समय की बड़ी ही रोचक भरी कहानी बनाई है। वार्षिक कलैण्डर के रूप में प्रकृति ने एक साल के समय को चार भागो में विभक्त किया है। जिन्हे हम ऋतुओं के नाम से जानते हैं। इन चार ऋतुओ में बसंन्त ऋतु ही सबसे युवा है। कौन भला जो इस ऋतु का रसपान न करे। करें भी क्यूं नहीं? हर प्राणी को यौवनता का इन्तजार जो रहता है। मनुष्य प्राणी में तो बसन्त ऋतु का अगाज ही निराला है। जहां चहुं ओर प्रकृति, अपनी इस यौवनता पर धरा में विचरण करने वाले सभी प्राणीयों को रिझाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही होती है। वहीं मनुष्य भी इसके रसपान करने में पीछे कहां रहने वाला है। 


इसी बसन्त ऋतु में भारतीय समाज में लोग होली जैसे उत्साहित त्यौहार को मनाने में महिनो लगा देते है। यहां भी बसन्त के आगमन पर उत्तराखण्ड हिमालयीवासी बसन्त पंचमी का त्यौहार भव्य और दिव्य रूप में मनाते हैं। घर-घर से आई हरियाली के गुच्छे एक दूसरे को अगले वर्ष तक सुखद कामना के लिए स्वागत स्वरूप भेंट करते है। खेती किसानी का उद्घाटन यूं होता है कि पंचमी के ही दिन एक तरफ लोग हरियाली से एक दूसरे का स्वागत कर रहे होते है और दूसरी तरफ खेत जुताई बावत हल को धरती से स्पर्श करने के लिए गुड, तिल का मिश्रण करके आपस में बांटे जा रहे होते है। माना ऐसा जाता है कि आज से अब वर्षभर तक जमीन व हल का ऐसा नाता होगा कि इस धरा के प्राणी इनके अदृश्य प्रेम से उपजी बरकत लोगो को भूखा नही रहने देगी। अतएव लोक में बसन्त के आगमन पर इसलिए जश्न मनाया जा रहा होता है।


यहां हम उŸाराखण्ड पहाड़ की बात करें तो यहां पर बाकायदा बसन्त ऋतु के दौरान ‘‘फूलमालाओ’’ के नाम से भी त्यौहार का भव्य आयोजन होता है। लोग एक दिन याने चैत्र मास की समाप्ती और बैसाख मास के आगमन पर की सक्रांती के दिन अपने-अपने घरो को बुरांश के फूलो से दुल्हन की तरह सजाते हैं। इन मालाओ के साथ घर परिवार में बनाये गये विभिन्न प्रकार के पकवानो को भी पिरोते हैं। यह कार्य महज रात्री के बारह बजे से लेकर प्रातः चार बजे के मध्य होता है। इसके पश्चात तो प्रातः ही गांव के बच्चे, नौजवान एक घर से दूजे घर तक फूलमाला के बीच गूंथे हुए पकवान को प्राप्त करने के लिए प्रतिस्र्पधात्मक रूप में खेल जैसे माहौल बनाते है। सच में यह दृश्य देखने लायक है। कहने का तात्पर्य है कि बसन्त ऋतु की यौवनता को रसपान करने का यह अनोखा अन्दाज देखते ही बनता है।


कुलमिलाकर लेखक, पत्रकार, रंगकर्मी हों या व्यवसायी, या हों किसान या महिला पुरूष सभी की कोशिश रहती है कि वे बसन्त ऋतु को सेलिब्रेट करें। क्योंकि इस मौसम में जीने का यह निराला अन्दाज शायद मनुष्य प्रवृŸिा पाने के बाद कभी दुबारा मिल पाये। यही वजह है कि विशेषकर साहित्य व संस्कृतिकर्मियों ने बसन्त ऋतु को अपना सबल हथियार बनाया है। इसीलिए तो प्रख्यात रंगकर्मी उर्मिल कुमार थपलियाल लिखते हैं कि ‘‘हे गुलाब फूलो का राजा, लिली फूल की रानी, हाय मेरी कट्टो हाय मेरी रानी, हाय मेरे राजा जानी जैसी कविता की पंक्ती से इस मादक मौसम का जो चरित-चित्रण किया गया है। यही पंक्तियां बसन्त ऋतु की यौवनता को समझा भी रही है। 


अर्थात इस मौसम में प्रकृति नहाने-धोने का पुण्य बटोरकर चन्द समय में निकल जाती है और पुरूष अपनी आंखो को सूकून भरी निगाहो की रश्मे निभाते हैं। कली और कोंपले जवान हो रही लड़की की तरह इतराने लगती है। भंवरे गले में रूमाल या शांफा बांधकर अतिरिक्त समय पाने के लिए उत्सुकता की दहलीज पर होते हैं। श्री थपलियाल आगे लिखते हैं कि फागुनी बयार में गुलाल से बादल, जवानी में जैसे सोलह साल से बादल, नयनों में सपनो की कितनी कितनी मसूरियां, मन में घिरे है नैनीताल से बादल, बरसों के बाद खोली गयी आलमारी में, नाम कढे किसी के रूमाल से बादल, दोस्तों की राय है मधुशालाओ के चैक में, बौराये-बौराये थपलियाल से बादल..............यानि होली, शिवरात्री, और फूलमाला अर्थात फूलदेई का त्यौहार कह रहा है कि इस मादक, यौवनभरी और बसन्तयी मौसम में जल्दी फगुनाइए।


मगर दोस्तो प्रकृति का यह निराला अन्दाज तो आपको सिर्फ व सिर्फ गांव समाज में ही देखने को मिलता है। भोगने को मिलता है। प्राप्त होता है। महसूस होता है। भले ही ये गांव आज भी विकास की वाट क्यों ना झेल रहे हो अलबत्ता प्रकृति के साथ जो रिश्ता ग्रामीणो का परम्परागत रहा है उसको सरकारी कानूनो ने या यूं कहें कि कानून का पाठ पढाने वालो ने रौंदने का काम किया है। खैर! जो सूकून गांव समाज में मिलता है वह शायद शहर की भागम्-भाग जिन्दगी में नहीं। पर शहर के बारे में क्या कहना....................