मैं कहता आँखन की देखी


||मैं कहता आँखन की देखी||


पुराने लोग जिन्होंने उत्तराखंड के विकट पर्वतीय भू भाग को रहने लायक बनाया होगा। इन पहाड़ों को खोदा,रास्ते बनाये और खेतों की रचना की। वे हल्द्वानी या तराई के मैदानी भू भाग में क्यों नहीं बसे होंगे? तब जबकि जिन्दगी कितनी मुश्किल रही होगी? मैदान में प्लेग,हैजा,चेचक जैसी बीमारियाँ होंगी लेकिन ये विकट खड़ी चढ़ाई वाले पहाड़ भी कोई आसन तो नहीं रहे होंगे? इतने दूर दराज घुसकर रहने वाले लोगों को आजकल भले पिछड़े कहने का चलन बढ़ गया है लेकिन वास्तव में अगड़ा कौन रहा ये समझने लायक बात है?


आज धरती संकट में है। जलवायु में बदलाव से मानव जीवन को अनेक दुश्वारियों को झेलना पड़ रहा है। दुनिया की मानव संख्या अनियंत्रित रूप से बढ़ती जा रही है। उसी क्रम में मानव का लालच भी इतना बढ़ गया कि आज भारतीय अर्थ व्यवस्था के बराबर कुछ 15-20 पूंजीपतियों की सम्पदा बताई जा रही है। तब हमको अगड़े और पिछड़े को फिर से समझना पड़ेगा।


जिसके पास अधिक संसाधन है वह उसे साथ लेकर कहीं नहीं जा सकता उल्टा उसकी मृत्यु कठिन स्थितियों में होगी। जिसने अधिक पढ़ा उसकी शिक्षा प्रकृति के लिये अधिक विनाशक हो गयी। जिसके पास जानकारी ज्यादा रही उसने समान अपने ही मानव बन्धुओं का जमकर शोषण किया। सूचनाओं की अधिकता ने इस धरती के उन प्राणियों का जीवन भी संकट में डाला जिन्से मानव को कोई मतलब नहीं था।


ये अगड़े थे। पिछड़े जिनके पास लालच कम था। प्रकृति के नजदीक,पेट भरने तक की चिंता और प्रकृति से सहजीवन,सदा कम से कम पर गुजारा और अंतत: उसी में मिलने की सहज प्रवृत्ति। आदिवासी,पहाड़ी,,दूर दराज के वे समुदाय जिनके जीवन में नदी समुन्दर पेड़ पौधे पंछी तमाम नियामतें सहोदर रहे। आज उनको पिछड़ा बोलने वालों ने दुनिया को संकट में डाल दिया है।


अब समझ आता है कि हमारे पूर्वजों ने क्यों उन गिरी कन्दराओं को,इस हिमालय को और नदी पर्वत उपत्यकाओं को अपना रहवास बनाया।


इसीलिए हमारे आदर्श कोई पूंजीपति धन कुबेर नहीं रहे। हमारे आदर्श हमेशा साधक,धन का विसर्जन किये फकीर साधू सन्यासी शोधक बने रहे। लोग जानते थे कि ये धरती साझा है और इसके संसाधन हमारे ही नहीं हैं। अब दूसरा पक्ष हमारे उस सौभाग्य का भी है जब हम गंगा हिमालय शिव के नजदीक पैदा हुए। हमने इसे महसूस ही नहीं किया कि हम वे भाग्यशाली लोग हैं जिनका भोजन फसल दैनंदिन कार्य गंगाजल से होता है।