टेहरी की शिवरात्रि ?


टेहरी की शिवरात्रि ?


जय शिव शंभो -- जय शिव शंभो , जय शिव शंभो --हरे –हरे I जय त्रिपुरारि - जय त्रिपुरारि -- जय त्रिपुरारि –हरे –हरे . किसी आखरी दौर की सर्द सुबह को उठते थे ,तो यही शब्द लाऊडस्पीकर की आवाज बनकर , कानों में गूंजते थे ?


कभी –कभी ऐसे लगता है, कि जैसे अभी कल की ही बात है ,सन साथ –सत्तर के दशक की या फिर ७०-८० के दशक की ( क्योंकि 83 में तो टेहरी छोड़ दी थी और नौकरी व छुट्टी की गलत टाईमिंग की वजह से फिर कोई शिवरात्रि और जन्माष्टमी नसीब नहीं हुई ). अपनी बोली -भाषा में, लोग कई दिन पहले से ही यह पूछने लग जाते थे कि – ऐंसू बरत / बर्त कब --- अर्थात शिवरात्रि ? अपनी भाषा में हम इस त्यौहार को इसी नाम से जानते -पहचानते या बुलाते थे जबकि कैलेंडरों में लिखा होता था ---महाशिवरात्रि . शहर छोटा हो या बड़ा पर आस्था ,धर्म और भक्ति हम सबकी एक ही थी फिर चाहे टेहरी हो या श्रीनगर या उत्तरकाशी रहा हो ?


तो फिर होते करते बात एक दिन पहले पर आ जाती --- “ भोळ बरत त फिर लियान कुई साग –भुज्जी ---अर भगवान म चढोण का वास्ता कुछ फल –फूल ? ” क्योंकि कल दुकानदारों ने 20 प्रतिशत भाव बढ़ा देना था . तो फिर घर के सभी मासूम बच्चों को एकसाथ इकठ्ठा करके या बुलाकर यह सवाल पूछा जाता था कि, “ भोळ कै- कैकु भाई बर्त ? ” . लड़कियां थोड़ा भावुक और धार्मिक अधिक होती थी तो बेचारी जल्दी ही हाँ कह देती थी पर कुल दीपक थोड़ी दुविधा में रहते थे कि, हाँ कहें या ना ?


फिर कोई पिता कहता कि, चलो बच्चों के लिए खिचड़ी बना देना ,दिन के लिए क्योंकि रात में तो उस दिन घर में दो चार पकवान तो बनने ही थे हलवा ,रायता, पूरी ,आल्लु के गुटके या साग ,कद्दू की भुज्जी या अगर रायता है तो फिर एक आध पालक या पिंडालु वगैरा की सूखी भुज्जी ? बर्त सालभर का त्यौहार होता है तो उस दिन का मीनू थोड़ा अलग होता था और पास –पड़ोस के किसी घर या रिश्तेदार के यहाँ अगर सालभर तक चलनेवाला गम है तो उनके यहाँ भी खाना भेजना होता था ,जिसे स्थानीय भाषा में “ परोसा ” कहा जाता था और थोड़ा –थोड़ा भेजने के बाद भी उनके बेचारों के यहाँ इतना खाना जमा हो जाता कि, कौन खाता ? यही हमारी ,संस्कृति ,परंपरा और रिवाज था ?


तो शिवरात्रि के दिन स्कूल और दफ्तरों में छुट्टी रहती थी तो माताओं और थोड़ी बड़ी बहनों के दिन की शुरुआत सुबह 4 बजे से शुरू होनेवाले मंगल स्नान अर्थात गंगा में डुबकी लगाने के साथ होती थी ,जो अपनी सुविधा के हिसाब से 5-6-7 बजे तक चलता रहता था . पर्व -त्यौहार के दिन ,गंगा स्नान में साबुन का प्रयोग वर्जित होता है तो फिर नाक –कान बंद करके ,कमर तक के पानी में 2-3 डुबकी लगाओ या फिर किनारे में पानी में उकडू बैठकर या किसी पत्थर पर बैठकर, किसी तरह साहस करके फटाफट 2-4 लोटे पानी डालो और ठंड का भय भगाने के लिए साथ में हर –हर गंगे बोलो या महादेव बोलो और लो ,हो गया आस्था का पावन पर्व शुरू ? घर के आँगन में लटकी गीली धोती , सुबह देर से उठनेवालों को ,उनका स्नान हो जाने की सूचना देती थी ? मुझे लगता है कि, टेहरी के शिवमंदिर से जुड़ी ,दिल के किसी कोने में छुपी उन सुनहरी स्मृतियों को ,उस शहर से जुड़ा हर व्यक्ति आज भी याद करता होगा ,जब वो दुनियाँ के किसी भी कोने में हर –हर महादेव कह रहा होगा ?


सुमन चौक के शुरू में स्थित सत्येश्वर महादेव का मंदिर और उसका वह स्वयंभू शिवलिंग, कहते हैं कि ,जिसकी जड़ का कोई पता नहीं था ,आज सबकी श्रद्धा ,आस्था ,भक्ति , विश्वास और मनोकामना का केंद्र होता था . सब अपने परिवार की खैर मांगते थे ,हर –हर महादेव और जय शिवशंभो कहकर . मंदिर से उठती कीर्तन की स्वर लहरी फिर पूरी भिलंगना नदी की घाटी में ही नहीं तैरती थी बल्कि आसपास की पहाड़ियों में भी गूंजती थी और उसके साथ ही महंत सोमवार गिरीजी का शंखनाद ----हर –हर महादेव ? मंदिर के अंदर रंग –बिरंगे परिधानों में सजी सुहासिनें ,शिवलिंग पर गंगाजल और बेलपत्र चढ़ाती हुई , जगमग करते दिये ,अगरबत्ती और धूप की महक ,माथे पर चंदन का तिलक और फूलों के बोझ से दबे भोले शंकर ,जिनके मस्तक पर पानी और ढूध की धारा से निरंतर अभिषेक हो रहा है और वह धतूरे का लंबा श्वेत पुष्प और उसके वो गोल फल और कनेर के पीले फूल भी भीग रहे हैं ? और साथ ही चूड़ियों की रुनझुन के बीच एक हाथ से कभी नथ संभाली जा रही है तो कभी लाल साड़ी का माथे पर सजा पल्ला और या फिर लाल –पीले नगों से सजी गोल नथ ,जो उनके सुहाग की निशानी है और उनके दूसरे हाथ में पूजा की थाली है. चढ़ावे के बाद फिर मंदिर के अंदर भी परिक्रमा करनी है और बाहर भी और फिर उस शिवलिंग को छूकर बहते जल में हाथ लगाकर उसे अपने बालों से स्पर्शकर स्वयं का भी अभिषेक करना है दुबारा से बाबा का आशिर्वाद लेना है ,स्वयं से स्वयं का और बेटे –बेटे को भी कहना है, बाबा नमस्कार कर भगवान को और फिर खुद भी कहना है, बाबा इस पर अपनी दया –दृष्टि बनाए रखना ? और क्या मांगता था कोई उस ज़माने में ?
शिव का अंश या उनको अर्पित भोग / चढ़ावा कोई नहीं नहीं खाता बस फूल और बेलपत्र ही उनका प्रसाद होता है .


मंदिर के प्रांगण में एक चबूतरा था ,जिसके ऊपर आज टीन का छप्पर होता था और उसके नीचे लाल –हरी –नीली –पीली कागज़ की झंडियाँ ,जो हवा से फड़फड़ाकर नर्तन करती थी और मंदिर के प्रांगण से लेकर सीढियों तक उनकी कतार होती थी . वहां भोले बाबा की एक बड़ी सी तस्वीर रखी है ,आगे फल-फूलों के नैवेद्य की थाली है , धूप और अगरबत्तियां जल रही हैं और थोड़ा सा बाजू में माईक के पीछे हारोनियम और ढोलक लेकर कीर्तनकार बैठे हैं और उनके सामने हाथ जोड़कर भक्त बैठे हैं और बाबा की जयकार गूंज रही है, हारमोनियम पर पहले कीर्तनकार गाता है ,ढोलक पर थाप पड़त तेज हो जाते हैं और कभी मध्यम ,स्वरों के आरोह –अवरोह का यह क्रम दिनभर चलता रहता है . माताओं –बहनों के लिए चबूतरे के सामने ,पीपल के पेड़ के पीछे स्थित भवन के बरामदे में एक मोटी दरी बिछी होती थी ?