जरूरी है वैकल्पिक जल नियोजन 

जरूरी है वैकल्पिक जल नियोजन 



गंगा, नर्मदा, कोसी, पोलावरम, कृष्णा  नदियों के विविध पहलुओं पर शुरू हुई सधन चर्चा, नदियों को अविरल, निर्मल बहने देने के लिए जरूरी है वैकल्पिक जल नियोजन और जनअधिकार।




मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में देश के विविध नदी घाटियों में निवासरत तथा कार्यरत विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, पर्यावरणीय सामाजिक कार्यकर्त्ता तथा घाटी के किसान, मजदूर, मछुआरे एकत्रित हुए हैं। जनआंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय की ओर से आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन में देश की नदियों की स्थिति के साथ प्रस्तावित योजनाओं का और उनके असरों पर चर्चा हुई।


इस दौरान सम्मेलन में गंगा, नर्मदा, तापी, कृष्णा, महानदी जैसी बड़ी नदियों तथा उपनदियों के विविध पहलुओं पर बरसों से चिंत्तन, शोध लेखन करने वाले तथा विस्थापन, पुनर्वास, पर्यावरणीय असरों पर संघर्ष करने वाले सक्रिय कार्यकर्ताओं ने चर्चा आगे बढाई। बताया गया कि नदियों का पुनर्जीवन, संरक्षण, कछार सहित जल और जमीन तथा हरित आच्छादान का नियोजन आज की जल संकट तथा जलवायु परिवर्तन की स्थिति में कैसा होना चाहिए।


नदी और बांधों के अर्थशास्त्री डा॰ भरत झुनझुनवाला, जलवायु परिवर्तन के अंतराष्ट्रीय विशेषज्ञ और सलाहकार सौम्या दत्ता, पर्यावरणीय कानूनविद देबोदित्त सिन्हा, महाराष्ट्र की विविध नदियाँ और पाने पर अभ्यासक व संगठक सुनीति सु.र. और विवेकानंद माथने, ओरिसा की महानदी और जल, जंगल, जमीन पर कार्यरत पर्यावरणविद प्रफुल्ल सामंतरा, बंगाल से आये नदी बचाओ जीवन बचाओ के विश्वजीत भाई, गुजरात की नदियाँ क्षेत्र के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता बाबजी भाई, मध्यप्रदेश के भूतपूर्व मुख्य सचिव शरदचन्द्र बेहार, पर्यावरणविद सुभाष पांण्डे, आशा मिश्रा, राजेन्द्र कोठारी, नर्मदा घाटी में कार्यरत राजकुमार सिन्हा, उत्तराखंड की नदियों की पर्यावरण सुरक्षा कार्य में सक्रिय विमल भाई, साथ ही पर्यावरणविद् मेधा पाटकर जैसे कार्यकर्ता एक मंच पर एकत्र हुए और विकट होती नदियों की समस्या पर गहन चिन्तन किया।


डा॰ भरत झुनझुनवाला ने बताया कि बांधो की लाभ-हानि सही नहीं आंकी जाती है। अमेरिका ने एक ‘सालमन’ मछली के लिए बांध हटाया और वहां कुल 1000 बांध हटाये गये। यहा गंगा के या नर्मदा के बांध हटाने के लिए भी लाखो लोगों को मंजूर है करोडो रु.देना! तो हम क्यों नहीं सशक्त रुप से नदियों को अविरल बहने देने की बात कर सकते। डा॰ सौम्या दत्ता ने विकास, जलनियोजन और जलवायु परिवर्तन को जोडते हुए कहा कि भारत, बांगलादेश, नेपाल, पाकिस्तान, भूटान तक की अन्तर्राराज्य परियोजनाओं की हकीकत बहुत गहरी है। दक्षिण क्षेत्र के सारे देश हिमालय, तीन सागर, मान्सून और संस्कृति से जुडे हुए है। हिमालय पहाड, तीन समुंदर, दक्षिण-पश्चिम मान्सून सब कुछ एकत्रित, एक व्यापक व्यवस्था के रुप में देखकर, हमें सोचना होगा। आज की स्थितियां गंभीर है। इसलिए हमें नदीघाटी को समझने के लिए बडे स्तर पर लोगों के जीवन के साथ जोडना पडेगा। गंगा-ब्रम्हपुत्रा-मेघना का पोली-मिट्टी से पूरे बंगाल का डेल्टा बना है, उनका पूरा जीवन इसी के उपर निर्भर है। बांधो के प्रभाव की वजह से पूरी दक्षिण बंगाल के 5 करोड लोग जल रहे है।


मध्य प्रदेश में जनतांत्रिक विकास नियोजन पर सक्रिय रहे शरदचंद्र बेहार ने बताया कि बांधो की लडाई को अलग स्तर पर ले जाने की जरुरत है। उन्होंने याद किया कि नर्मदा के बांधो पर आंदोलन और सरकार ने मिलकर पुनर्विचार से सही निष्कर्ष और सिद्धांत निकला था कि पहले बूंद से शुरू करे, छोटे जलग्रहण क्षेत्र से बांधो की जरुरत नहीं रहेगी। दूसरा सिद्धांत यही था कि ‘राष्ट्रीय’ के नाम पर कोई विकास, स्थानीय लोगों की जरूरते और हकीकत नहीं भूल सकते।


भूतपूर्व सांसद संदीप दीक्षित ने आश्वासित किया कि हम राजनीति में फंसकर कई बार सच्चाई का सामना नहीं कर सकते फिर भी जनजन वैकल्पिक विकासवादीयों के साथ संवाद से हम हस्तक्षेप के काबिल होते है।
प्रसिद्ध पर्यावरणविद् मेधा पाटकर ने कहा कि नर्मदा घाटी के पीढीयो पुराने लोगों की संस्कृति और प्रकृति को तो उजाड दिया, लेकिन गुजरात ने अडानी, अंबानी की कंपनियों को अधिक बख्शा और किसान की खेती-किसानी बरबाद कर दी। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड की गंगा से नर्मदा तक बांधों का सिलसिला जिस प्रकार के नदी पर आक्रमण करता दिखाई दिया है, वहां विस्थापितों का पुनर्वास ही नहीं प्रकृति के विनाश को रोकना और विकल्पों पर निर्णय लेने की रणनीति पर आगे काम करने की आवश्यकता है।