कांस की थाली, शंख, घण्टी बजाना ही लोक विज्ञान

||कांस की थाली, शंख, घण्टी बजाना ही लोक विज्ञान||



पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड में लोक विज्ञान की असीमित परम्पराऐं है। मौजूदा समय में इस लोक विज्ञान की आवश्यकता महसूस की जा रही है। होनी भी क्यों नही, पूरा संसार कोरोना जैसी महामारी से कराह रहा है। लोग अपने को कैसे सुरक्षित रखे, इसकी खोजबीन जारी है। मगर सफलता का प्रयास शून्य है। देश के प्रधामन्त्री ने अपनी पुरातन लोक ज्ञान की तरफ लोगो का ध्यान आकृषित किया और लोग इस अभ्यास में शामिल हो गये। कह सकते है कि इस लोक ज्ञान की सर्वाधिक उपयोगिता आज भी इस पर्वतीय प्रदेश उत्तराखण्ड में बची हुई है। 


ज्ञात हो कि इस पर्वतीय प्रदेश में वह लोक विज्ञान है, जिसके बलबूते असाध्य रोग को समाप्त करते हैं। जैसे कभी परिवार में बीमारी के कारण कोई भी सदस्य ग्रसित होता है, अथक प्रयासों के बावजूद उपचार नहीं हो पाता है। ऐसी घड़ी में यहां लोगो के पास मात्र एक अन्तिम साधन होता है ‘‘घड़्याल’’। इसी प्रकार यदि गांव की खुशहाली में प्रगति नहीं दिख रही होती है, तो गांव का मुखिया भी ग्रामीणो को सामूहिक रूप में ‘‘घड़्याल’’ आयोजन में सम्मिलित होने को कहता है, जिसे लोग या व्यक्ति सहज ही स्वीकार करते हैं। 


बता दें कि गांव-गांव में आज भी ‘‘घड़्याल’’ का आयोजन होता है। जिसमें सिर्फ व सिर्फ कांस की थाली घण्टी, डमरू व शंख का ही प्रयोग होता है। यह पूर्ण रूप से एक धार्मिक अनुष्ठान होता है। अब यह अनुष्ठान क्यों होता है. यही अहम सवाल है। कांस की थाली घण्टी व शंख को एक ही व्यक्ति प्रयोग करता है। जिसे पुजारी कहते हैं। कहीं इसे जागरी, या कहीं घड़्याली इत्यादि नाम से कहते है। आम तौर पर जागरी ही कहते है। यही जागरी इस अनुष्ठान को संपादित करता है। 


गौरतलब हो कि इस आयोजन में वे सम्मिलित होते है, जिनका उपचार असफल हो चुका है। साथ ही अन्य लोग भी इस आयोजन का हिस्सा बनते है। जागरी अपना मन्त्र उचारित करता है, कांस की थाली बजाता है, डमरू पर थाप देता है और आरम्भ में शंख की घ्वनी से वातावरण को एकाग्र कर देता है। यह कोई क्षणिक कार्यक्रम नहीं है, लगभग तीन से पांच घण्टे और पांच से नौ दिन तक यह आयोजन होता है। वह चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक, आयोजन की समय सीमा जागरी पहले ही तय कर देता है। इस आयोजन का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि लोक विज्ञान की इस विधी से वे सभी कार्य सफलता की पंक्ति में आ जाते है तथा असाध्य रोगों से ग्रसित लोग स्वस्थ हो जाते है। मगर अब धीरे-धीरे जागरी लोगो की संख्या में भारी गिरावट आई है।
  
उल्लेखनीय यह है कि घड़्याल नाम का यह आयोजन एकदम धार्मिक अनुष्ठान है। कुछ लोग इसे भागवत पुराण का छोटा रूप मानते हैं। अव्वल तो यह है कि इस आयोजन में जो प्राकृतिक धातुओ व वस्तुओं का प्रयोग होता है, उसके वैज्ञानिक कारण है। जो शोध का भी विषय है। जागरी द्वारा इन वस्तुओं से निकाली जानी वाली धुन से एक बारगी, सब कुछ थम जाता है। जागरी के कंठ से निकलते स्वर और उनके हाथो से बजते कांस की थाली, घण्टी व शंख की ध्वनी संकट में पड़े व्यक्ति अथवा अन्य के माथे पर लकीरे खींचने बैठ जाता है। इस तरह वे सभी जागरी के सामने बैठते हैं, जब तक अनुष्ठान सम्पन्न ना हो। कभी कभी जागरी अवतरित भी होता है, वगैरह वगैरह।


शोधार्थी संजय परख के अनुसार कांसा व पीतल धातु से उत्पन्न सूक्ष्म ध्वनि व तरंगें इलेक्ट्रो मैग्नेटिक ऊर्जा पैदा करती हैं। जिनका मान गीगा हर्ट्ज व टेरा हर्ट्ज तक पहुंचता है। जब हम किसी कांसे के बर्तन को निर्धारित चोट से कम व ज्यादा जोर से बजाते हैं तो ध्वनि की तरंगे कम से अधिकतम मोड में प्रवेश करती हैं। जो एक या इलेक्ट्रो मैग्नेटिक ऊर्जा क्षेत्र को पैदा करती हैं। जिस क्षेत्र के सम्पर्क में आने से वायरस या विषाणु कम्पन्न महसूस करता है। कोरोना वायरस की बाहरी मेम्ब्रेन बहुत ही कमजोर है, जिससे इसे द्विपक्षीय क्षेत्र यानी कपचवसम में आते ही वायरस का न्यूक्लियस टूटने लगता है तथा ये निष्क्रियता की तरफ बढ़ जाता है।


ज्ञात रहे कि सायं के समय सनातन व्यवस्था में पूजन व ध्वनि गर्जन- घण्टा गर्जन व शंखनाद किया जाता है। मृत्यु के समय भी विभिन्न मौकों पर प्राणी के घर पर शंखनाद किया जाता है। इसका सीधा सीधा अर्थ जीवाणुओं का निस्क्रियकरण है। माइक्रोवेव थ्रेसहोल्ड एनर्जी कम्पन्न जो कांसे के बर्तन को कम से तीव्रता की तरफ बजाते हुए पैदा की जाती है, इसी प्रकार शंख ध्वनि भी तीव्र थ्रेसहोल्ड पर बजा कर उच्च माइक्रोवेव तरंगे पैदा करती हैं। जो कम्पन्न करके वायरस के आउटर सेल यानी बाहरी कवर को माइक्रो वेव इलेक्ट्रो मैग्नेटिक किरणों से थर्र-थर्राहट से तोड़ देती है।


अर्थात कांसे की वस्तु के बजाने का प्रयोग कोरोना वायरस को समाप्त करने के लिए एक लोक विज्ञान कहा जा सकता है। पर इसका प्रयोग, विधी और जानकारी होनी चाहिए। अतएव कब और कहां कैसे प्रयोग किया जाय, वर्तमान में इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। इस ओर हमारे प्रधानमंत्री जी ने लोगो का ध्यान केन्द्रीत किया है। लोग इस लोक विज्ञान को कैसे उपयोग में लाते है। वैसे भी इस लोक विज्ञान का इतिहास कोई 5000 साल पुराना बताया जा रहा है। भारत में यह सनातनी परम्परा है। दवा-दारू कोरोना को समाप्त करने में कोई असर नही दिखा पा रही है। दुनियांभर के लोग इस महामारी की चपेट में आ चुके है। दुनियाभर में कोरोना के कारण लाखो लोगो की जान चली गई है। अगर भारतीय लोक विज्ञान इसमें सक्षम हथियार बनता है तो इसका प्रयोग ऐसे वक्त करना ही चाहिए।