शिष्टाचार ही पर्यटन की खूबसूरती


|| शिष्टाचार ही पर्यटन की खूबसूरती ||



वैसे तो मेरा नैनीताल आना-जाना कई दफे रहता है। पर यहां मैं पिछले वर्षो, जब नैनीताल गया था। उन दिनों का एक खास संस्मरण पाठको तक पंहुचा रहा हूं। हालांकि यह संस्मरण पुराना है, किन्तु राज्य में हमारा व्यवहार व आचार-विचार आज भी वैसे ही है जैसे था, जो यहां लिखा जा रहा है।



केस-1


अलग-अलग जगह का अलग-अलग महत्व है। यह तो सर्वविदित है। व्यवहार में मानवता हो यह भी सर्वविदित है। यहां हम उस व्यवहार की बात कर रहे हैं जो उत्तराखण्ड राज्य की ‘‘देव भूमि एवं अतिथि देव भवः’’ की परिकल्पना को साकार करता है। मैं बिते वर्षो जबयानि 20 नवम्बर को देहरादून रेलवे स्टेशन से काठगोदाम के लिए रवाना हुआ। इस दौरान मैं रेलवे स्टेशन पर दो घण्टे पहले इसलिए पंहुचा कि मेंरे घर से रात्री में कोई टैम्पू इत्यादि नही चलते हैं। क्योंकि काठगोदाम जाने वाली रेल का प्रस्थान समय रात्री के ग्यारह बजे है। स्टेशन पर मैने किताबो के स्टाल से कुछ पत्रिकाऐं खरीदी और तीन अलग-अलग चाय की ठेलियों पर चाय पी। यहां एक चाय 10रू॰ की है। एक बार मैने चाय के साथ चिप्स का पैकेट खरीदा, जिस पर अंकित मूल्य था रू॰ 10 मगर उस स्टाल वाले भाई ने वही पैकेट 20रू॰ में दिया। यहां तक भी कह दिया कि लेना है तो ले लो, वर्ना आगे का रास्ता नापो। ऐसा क्यों कहा, जो मेरे समझ में अब तक नहीं आ रहा है।


मैने उस भाई से कहा कि हम लोग इस तरह राज्य का परिचय बाहर से आने वाले आगन्तुक को अच्छा नहीं दे रहे हैं। उसने चिढ़ते हुए कहा कि अपना रास्ता नाप वरना.......। खैर मैने उसकी फोटो खींची जिसे यहां चस्पा नहीं कर रहा हूं। उसके बाद मैने उपभोक्ता फोरम और खाद्य सुरक्षा अधिकार को फोन किया। आगे क्या हुआ मैंने इस पर दुबारा सोचा नहीं। यह रेल सेवा सात बजे प्रातः अगली सुबह काठगोदाम स्टेशन पंहुचती है। जहां का स्टेशन इतना साफ-सुथरा और व्यवस्थित है कि जो भी पर्यटक यहां पहली दफा आयेगा उसे महसूस होगा कि वह पहाड़ की खूबसूरत जगह से रू-ब-रू होने जा रहा है। यहां के चाय के स्टाल पर आपको एक चाय मात्र सात रू॰ की मिलती है। यदि आपने स्टाल वाले को 10रू॰ दिये तो वह आपके तीन रू॰ बड़े आदर के साथ वापस लौटायेगा।


केस-2


इसी तरह रात्री यानि सायं के छः बजे के बाद आप देहरादून में विक्रम, आटो-रिक्सा में सफर करेगे तो आपसे मनमाना किराया वसूला जायेगा। बता दें कि रेलवे स्टेशन से दर्शन लाल चैक की दूरी मात्र एक किमी या इससे थोड़ी ज्यादा हो सकती है का ये आटो-रिक्सा व विक्रम वाले भाई सीधे 10रू॰ ले लेते है। अगर इन्हे पता चल गया कि अमुक यात्री बाहर से आयी है तो उससे वे 20रू॰ तक ले लेते है, जो कि मैने खुद देखा है और दिया भी है। इनसे आप जान नहीं सकते कि ऐसा क्यों कर रहे हो। गलती से कोई यात्री कह दे कि यह तो तुम गलत कर कर रहे हो, तो ये सभी आटो-रिक्सा, विक्रम वाले भाई बीच सड़क में जाम ही नहीं लगाते बकायादा उक्त यात्री की बेइज्जती करने पर आतुर हो जाते हैं।



ऐसा आपको काठगोदा व हल्द्वानी के रेलवे स्टेशन पर नहीं मिलेगा। वहां वे लोग बड़े तहजीब से पेश आते हैं। और उनकी यह भी कोशिश रहती है कि उनकी आटो-रिक्सा, विक्रम में बैठी यात्री खुशी महसूस करें कि वह कुमाऊं की सैर करने आयें हैं। कुमाऊं में आप कहीं भी जाये ंतो आपको होटल, ढाबे, चाय के ठेले व टैक्सी भाड़ा इत्यादि पर एक ही रेट पर खाने-रहने व आने-जाने की सुविधा मिल जायेगी। जबकि गंगोत्री, यमनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि तीर्थ व पर्यटन स्थलो पर उक्त व्यवसाय से जुड़े लोगो का अलग-अलग व्यवहार नजर आयेगा। बाहर से आने वाले यात्रियों से तो ये व्यवसायी भाई मुहमांगा ही वसूलते है।


कहने का तात्पर्य मात्र इतना भर है कि यदि हम आम लोग इस राज्य को पर्यटन प्रदेश बनाना चाहते हैं तो हमे विनम्रता, शिष्टाचार से पेश आना होगा। साथ ही मोल-भाव में मुहमांगी रकम नहीं वसूलनी होगी। पर्यटन का व्यवसाय एक ऐसा व्यवसाय है जो दूसरे पर निर्भरता खत्म करता है। स्वावलम्बन की दिशा में परिपक्व धन्धा है। यह धन्धा सरकारो पर बन रही निर्भरता को खत्म कर सकता है। बसर्ते हमें वही ‘‘अतिथि देव भवः’’ की कल्पना को साकार ही नहीं करना होगा बल्कि अपने व्यवहार में फिर से अपनाना होगा।


कुल मिलाकर पर्यटन प्रदेश बनाने के लिए हम लोगो को सरकार का मोहताज नही होना चाहिए। जिस तरह का व्यवहार रेलवे स्टेशन देहरादून पर लोगो को मिलता है वह पर्यटन, तीर्थाटन के नाम पर धब्बा है। यह ठीक किया जा सकता है। इसे सरकार नहीं लोगो को खुद ठीक करना होगा। पर्यटन और तीर्थाटन हमारे राज्य की खास पहचान है। इस पहचान को बरकरार रखने के लिए उन लोगो की पहली जिम्मेदारी है जिनसे बाहर से आने वाले आगन्तुको का पहला परिचय होता है।