दास्ताँ -ऐ- लॉकडाऊन  

||दास्ताँ -ऐ- लॉकडाऊन||

 

फोन पर अनजान नंबर था, उधर से एक ही सांस में उसने अपना नाम बताया दिया। कहने लगा कि अभी बंगलुरू में हूं, जिस ऑफिस में काम करता हूं वहां अब तक तो खाना मिल रहा था लेकिन आज सुबह ऑफिस वालों ने मना कर दिया है कि अब वह न तनख्वाह दे सकेंगे न खाना खिला सकेंगे।

 

अपने गांव से करीब सवा हजार किमी दूर उस बड़े से शहर में मामूली तनख्वाह पर काम करने वाला उस युवक की बैचेनी उसकी आवाज से साफ झलक रही थी। लाॅक डाउन के कारण बंगलुरू में फंसा हुआ है, खाने का कोई ठिकाना नहीं है, मालिक तनख्वाह और खाने के लिए साफ इंकार कर चुका है। मैं बंगलुरू में जिसे भी जानता था उसे मैसेज भिजवाकर उनसे दरख्वास्त की है कि उस युवक को कम से कम खाना तो मुहैया करवाते रहिए।

 

कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की ओर से बनाई गई स्टेट हेल्प लाइन के को-इंचार्ज को फोन कर उनसे इस मुश्किल वक्त में उक्त युवक तक मदद की गुहार लगाई। उन्होंने तुरंत आश्वस्त किया कि वह बंगलुरू की टीम से यह सुनिश्चित करवाएंगे कि आज शाम से लेकर जब तक युवक बंगलुरू में है तब तक खाने की नियमित आपूर्ति होती रही।

 

कल्पना कीजिए, अभी आपको घंटों लाइन में लगकर खाना मिल गया है लेकिन शाम के खाने की कोई गारंटी नहीं है। जो खाना बांटने आए थे वह भी साफ तौर पर कह चुके हैं कि वह अब शाम को खाना नहीं बांटेंगे। आप बाहर खुले में घूमकर यह टटोल नहीं सकते हैं कि कहां पर कौन खाना बांट रहा है। आप लगातार अनिश्चितता में उलझे हुए हैं। पेट भरने की अनिश्चितता ऐसी कि शाम क्या अगले कुछ दिनों के दौरान भी कहां खाना मिलेगा यह पता नहीं है। देश के अलग अलग शहरों में फंसे लाखों कामगार इसी मुसीबत को रोज झेल रहे है। न्यूज चैनल नहीं देखता हूं, आज एनडीटीवी देखा तो पता चला कि दिल्ली में लोग दोपहर के खाने के लिए सुबह छह बजे से ही लाइन लगाना शुरू कर देते हैं, दोपहर बारह बजे खाने का वाहन आता है और फिर उन सैकड़ों मजदूरों, बेबस लाचार लोगों को खाना मिल पाता है।

 

ऐसी जिंदगी का भी क्या करें, कोरोना से बच जाएंगे लेकिन भूख और पेट भरने के लिए इस भागदौड़ से मर जाएंगे। लाॅक डाउन कोरोना के संक्रमण को रोकने का बेहतर तरीका है, लेकिन उन लाखों पेट का क्या करेंगे जो भूख से बिलबिला रहे हैं। लाखों मजदूर यहां वहां फंसे हुए हैं, मालिक तनख्वाह और खाना नहीं दे सकता, कहां से देगा उसका काम काज भी तो ठप है। अपनी बचत से वह अपना घर चला रहा है। रोज दिहाड़ी काम करने वाले का तो कोई मालिक भी नहीं है जो उसे इस मुश्किल वक्त में सहारा दे सके। लोगों की दया दिखाने की भी एक सीमा होती है। हम देख सकते हैं कि सोशल मीडिया पर हजारों लोग किसी न किसी तरह इन बेसहारा भूखे लोगों को खाना मुहैया करवाने के लिए जुटे पड़े हैं लेकिन यह सब तक नहीं पहुंच सकते हैं न सब इन तक पहुंच सकते हैं।

 

इन लाखों लोगों की सुध लेनी बहुत जरूरी है, दिल्ली में यमुना पुल के नीचे रात गुजार रहे मजदूर, मुंबई, पुणे की झुग्गियों में कब्रनुमा दबड़ों में भूखे प्यासे उमस भरे मौसम में पसीने से नहाते मजदूरों की सुध तो लेनी ही होगी। सब कुछ अच्छा दिखे इसके लिए गरीबों की बस्तियों को दीवार से ढकने वाला फार्मूला हर जगह कारगर साबित नहीं होता है। लाॅक डाउन सख्त नियमों से हम इस बीमारी पर नियंत्रण पा लेंगे, विश्व स्वास्थ्य संगठन हमारी पीठ थपथपाएगा, हमें बीमारी के संक्रमण को रोकने के लिए सौ में से सौ नंबर मिलेंगे, लेकिन उन नंबरों का क्या करेंगे।

 

अपने दिहाड़ी के आईटी सेल वालों से, मासिक वेतन पर जुटाए गए न्यूज एंकरों से महानायक की छवि निर्माण का काम करवाया जाएगा। लोग खुश होंगे, तालियां बजाएंगे, युगपुरूष की उपाधियों से नवाजेंगे। जो तिल तिल मर रहे बच जाएंगे वह भी भूल जाएंगे जो नहीं बच पाएंगे वह तो भुला ही दिए जाएंगे।