||दलितों की वास्तविक समस्या क्या है?
परम्परागत उच्च वर्ग द्वारा दलितों पर बेक़सूरी एवं बेरहमी से किए जा रहे अत्याचारों को कैसे रोका जाए, यही दलितों की मूल समस्या है। हज़ारों वर्षों से दलित वर्ग पर अत्याचार होते आए हैं, आज भी बराबर हो रहे हैं। यह अत्याचारों का सिलसिला कैसे शुरू हुआ और आज तक भी ये अत्याचार क्यों नहीं रुके हैं? यह एक अहम सवाल है।
इतिहास साक्षी है कि इस देश के मूल निवासी द्रविड़ जाति के लोग थे जो बहुत ही सभ्य और शांति प्रिय थे। आज से लगभग पांच या छः हज़ार वर्ष पूर्व आर्य लोग भारत आये और यहां के मूल निवासी द्रविड़ों पर हमले किए। फलस्वरूप आर्य और द्रविड़ दो संस्कृतियों में भीषण युद्ध हुआ। आर्य लोग बहुत चालाक थे। अतः छल से, कपट से और फूट की नीति से द्रविड़ों को हराकर इस देश के मालिक बन बैठे।
इस युद्ध में द्रविडों द्वारा निभाई गई भूमिका की दृष्टि से द्रविड़ों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्रथम श्रेणी में वे आते हैं जिन्होंने इस युद्ध में बहादुरी से लड़ते हुए अन्त तक आर्यों के दाँत खट्टे किये। उनसे आर्य लोग बहुत घबराते थे। दूसरी श्रेणी वे द्रविड़ आते हैं जो इस युद्ध में आरम्भ से ही तटस्थ रहे या युद्ध में भाग लेने के थेड़े बाद ही ग़ैर-जानिबदार हो गए अर्थात् लड़े नहीं।
आर्यों ने विजय प्राप्त कर लेने के बाद युद्ध में भाग लेने वाले और न लेने वाले दोनों श्रेणी के द्रविड़ों को शुद्र घोषित कर दिया और उनका काम आर्यों की सेवा करना भी निश्चित कर दिया। केवल इतना फ़र्क़ किया कि जिन द्रविड़ों ने युद्ध में भाग नहीं लिया था उन्हें अछूत शूद्र घोषित कर शान्ति से रहने दिया। कोली, माली, धुना, जुलाहे, कहार, डोम आदि इस श्रेणी में आते हैं। लेकिन जिन द्रविड़ों ने इस युद्ध में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और इसके साथ ही उन्हें शूर वीरता का परिचय दिया उन मार्शल लोगों को अछूत-शूद्र घोषित कर दिया और इसके साथ ही उन्हें इतनी बुरी तरह कुचल दिया जिससे कि वे लोग हज़ारों साल तक सिर भी न उठा सके। उनके कारोबार ठप्प कर दिए, उन्हें गांव के बाहर बसने के लिए मजबूर कर दिया और उन्हें इतना बेबस कर दिया कि उन्हें जीवित रहने के लिए मृत का मांस खाना पड़ा। जाटव, भंगी, चमार, महार, खटीक वग़ैरह आदि इसी श्रेणी के लोग हैं।
किन्तु इस मार्शल श्रेणी के लोगों में से एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा बना जिसने यह तय कर लिया कि ठीक है हम युद्ध में हार गए हैं लेकिन फिर भी हम इन आर्यों की गुलामी स्वीकार नहीं करेंगं। वे लोग घोर जंगलों में निकल गए और वहीं पर रहने लगे। नागा, भील, संथाल, जरायु पिछड़ी जातियां आदि जंगली जातियां इसी वर्ग में आती हैं। जो आज भी आर्यों की किसी भी सरकार को दिल से स्वीकार नहीं करती हैं और आज भी स्वतंत्रतापूर्वक जंगलों में ही रहना पसन्द करती हैं।
आर्य संस्कृति का ही दूसरा नाम हिन्दू धर्म या हिन्दू समाज है। हिन्दू आज बात तो शांति की करते हैं लेकिन हज़ारों वर्ष पूर्व हुए आर्य-द्रविड़ युद्ध में छल से हराए गए द्रविड़ संस्कृति के प्रतीक महाराजा रावण का प्रति वर्ष पुतला जला कर द्वेष भावना का प्रदर्शन करते हैं।
आज भी वे शूद्रों को अपना शत्रु और गुलाम मानकर उन्हें ज़िन्दा जला डालते हैं, उनका क़त्ले आम करते हैं, उनके साथ तरह-तरह के अवर्णनीय लोमहर्षक अत्याचार करते हैं ।
- यह लेखक के निजी विचार है। लेखक पत्रकार है।