ओखल और मुसल मिक्सी ग्राईण्डर की क्या औकात
||ओखल और मुसल मिक्सी ग्राईण्डर की क्या औकात||


ये है-उखो और मुसो। स्कूल की किताब में इसे ओखली और मूसल पढ़ा। मासाब ने जिस दिन यह पाठ पढ़ाया उसी दिन घर जाकर ईजा को बताने लगा कि ईजा उखो को ओखली और मुसो को मूसल कहते हैं। ईजा ने बिना किसी भाव के बोला जो तुम्हें बोलना है बोलो- हमुळे रोजे उखो और मुसो सुणी रहो... फिर हम कहते थे ईजा- ओखली में कूटो धान, औरत भारत की है शान... ईजा, जै हनल यो...

 

उखो एक बड़े पत्थर को छैनी से आकार देकर बनाया जाता था वहीं मुसो मोटी लकड़ी का होता था लेकिन उसके आगे 'लुअक' (लोहे का) 'साम' (लोहे के छोटा सा गोलाकार) लगा होता था। उखो वाले पत्थर को 'खो' (आंगन का एक अलग हिस्सा) में लगाया जाता था। मुसो गोठ में रखा रहता था। मुसो में ठीक-ठीक वजन होता था इसलिए ईजा कहती थीं कि भली रखिए अगर खुटम पड़ल तो खुट टूटी जाल हां'... हो... होय...

 

ईजा रोज सुबह उखो को गोबर और मिट्टी से लीपती थीं और हर शाम को उसमें अनाज कूटती थीं। धान, झुंगर, मिर्च, हल्दी, धनिया सब उखो में ही कूटा जाता था। अक्सर जब धान कूटना होता था तो ईजा गाँव की कुछ और महिलाओं को आने के लिए बोल देती थीं। उखो में मुसो चलाना भी एक कला थी। लड़कियों को बाकायदा मुसो चलाना सिखाया जाता था। धान कूटने के लिए गाँव की जब सभी महिलाएं आई होती थीं तो एक साथ तीन- चार लोग मुसो चलाते थे साथ ही पांव से धान को उखो में डालते रहते थे। मुसो चलते हुए हर कोई हायं- हायं बोलता था। इसी हायं पर ही मुसो, उखो में पड़ता और फिर दूसरा मुसो चलाता था। यह अद्भुत लय और समन्वय का काम था। कभी- कभी मुसो, उखो के आर- पार टकरा जाता तो- ईजा बोलती थीं - अरे इनिल आपण सासुक दाँत तोड़ी हाली...

 

ईजा जब भी उखो कूटने लगती थीं तो हम लोग भी उसके आस- पास बैठ जाते थे। कभी झाडू से अनाज बटोरने लगते तो कभी मुसो पर बैठकर झूला झूलने लगते। ईजा हर बार डांट लगाती थीं। कहती थीं कि कधीने उखो में हाथ आ जाल तो तब पोत चलल हां तिकैं लेकिन हम कहाँ मनाने वाले थे। थोड़ा इधर- उधर होते फिर वहीं बैठ जाते.. वैसे तो उखो के पास चप्पल लेकर भी नहीं जा सकते थे लेकिन जब ईजा घर पर न हो तो हम उखो में कंचे भी खेलते थे। ईजा को जब पता चलता था उस दिन मार तय होती थी..

 

गाँव में शादी- ब्याह से लेकर जागरी तक हर आयोजन के लिए अनाज और मसाले उखो में ही कूटे जाते थे। इस तरह के आयोजन के लिए अनाज कूटने से पहले मुसो और उखो की पूजा होती थी। उखो कूटने के लिए गाँव की सभी महिलाओं को न्यौता दिया जाता था। जिस दिन का भी तय होता सभी अपने -अपने मुसो लेकर शाम को आ जाते थे। साथ ही जो भी अनाज, मसाले उनके घर में हो, वो भी लाते थे। ईजा पहले ही कह कर रखती थीं कि आपको ये लाना है और आपको ये... कूटने से पहले सबको पिठ्या लगाया जाता था। फिर कोई उखो कूटता तो कोई साफ करता, कोई झाड़ देता था, हर कोई किसी न किसी काम में लगा रहता था। इसके साथ ही शगुन आखर से लेकर कुछ गीत भी गाए जाते थे। हमारा काम उनको देखना या चाय बनाने का होता था। कूटने के बाद सबको चाय और तिल-गुड़ मिलाकर बांटा जाता था। हम लोग इसी चालाकी में रहते थे कि किसी तरह दो- तीन बार तिल-गुड़ मिल जाएं। ईजा कई बार आँख भी दिखाती थीं लेकिन हम ढीठ हो चुके थे।

 

अपना एक लोक पर्व होता है- 'हईदूसर' उस दिन हौ (हल) और मुसो की पूजा होती थी। हौ और मुसो को उखो के पास ही रखा जाता था । साथ ही वहाँ पर थोड़ा-थोड़ा अनाज भी रखा जाता था । ईजा जौ रखती थीं। उसके बाद दिया जलाकर सबकी पूजा होती थी। उस दिन बैलों के सींग पर तेल लगाना और उन्हें आटा आदि भी दिया जाता था। एक तरह से यह अनाज और खेत में लगे सभी उपकरणों के प्रति कृतज्ञता का भाव होता था।

 

ईजा आज भी उखो कूटती हैं लेकिन अब उनके हाथों में उखो कूटने से छाले पड़ने लगे हैं। पर ईजा कहाँ मानने वाली हैं। वह आज भी झुंगर, धनिया, मिर्च, हल्दी उखो में ही कूटती हैं।।

 

दुनिया ने मिक्सी को कबका अपना लिया है। पैकेट बंद मसाले हम सबकी जरूरत हो गए हैं लेकिन ईजा आज भी शाम को मुसो लेकर उखो में कुछ न कुछ कूटने लगती हैं। दुनिया की रफ़्तार में ईजा के अंदर आज भी ठहराव है। यहाँ से समझना मुश्किल है कि ईजा विकास में पीछे छूट गई हैं कि हम कहीं आगे निकल गए हैं...

ईजा ने कुछ दिन पहले खीर के लिए झुंगर कूटा.