रामायण और वनाधिकार आंदोलन:


||रामायण और वनाधिकार आंदोलन:||



 

भगवान राम के अंदर शक्ति थी कि वे समुद्र को सूखा दें। लेकिन उन्होंने अस्त्र का प्रयोग करने से पहले, सागर की उपासना - अनुनय-विनय का मार्ग अपनाया।



 

सुषेण वैद्य ने हनुमान जी को हिमालय पर्वत पर भेजा और उनसे कहा कि हिमालय की जड़ी बूटियाँ बहुत पवित्र हैं, उनकी रक्षा देवता करते हैं। उन्हें जबरदस्ती लेने की कोशिश नहीं की जा सकती है। उन्हें लेने के लिए आपको इन पवित्र जड़ी बूटियों के रक्षकों से निवेदन करना होगा, ले जाने का प्रयोजन बताना होगा। तब यदि देवताओं को आपका प्रयोजन उचित और धर्म प्रिय लगा तो वो आपको इजाजत देंगे।



 

हनुमान जी जब पूरे पर्वत को लेकर श्रीलंका ले गए थे और सुषेण वैद्य के कहने पर जबरदस्ती जड़ी बूटी को तोड़ने जा रहे थे तब भी सुषेण वैद्य ने उन्हें मना कर दिया और उन्हें कहा कि प्रकृति से माँगना चाहिए न कि छीनना।



 

संजीवनी बूटी के प्रभाव से जब लक्ष्मण जी ठीक हो गए तो पुनः सुषेण वैद्य ने उन्हें कहा कि इस पर्वत को जहाँ से लाये हो उसे वहीँ छोड़ दो, वरना इन जीवन दायिनी जड़ी बूटियों का प्रभाव ख़त्म हो जायेगा। प्राकृतिक संसाधनों पर सबका अर्थात प्राणिमात्र का समान अधिकार है, वो किसी एक के कब्जे में नहीं रहनी चाहिए। इसलिए प्रकृति के जिस हिस्से से इस पर्वत को लाये हो, इसे वहीं ससम्मान छोड़ आओ।



 

इस पूरे कथन का अर्थ है कि प्रकृति की रक्षा करो। जो लोग प्रकृति के नजदीक हैं अर्थात प्रकृति के रक्षक हैं बिना उनकी इजाजत के उनकी संपत्ति का नुकसान मत करो। प्रकृति के रक्षक - पर्वतवासियों और आदिवासियों के परम्परागत अधिकारों का हनन मत करो।



 

यही मांग हम लोग वनाधिकार आंदोलन में भी कर रहे हैं। वनाधिकार आंदोलन सिर्फ सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन नहीं है बल्कि एक आध्यात्मिक आंदोलन भी है।



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P.S. सिर्फ इतना ही नहीं , लोगों ने प्रकृति और प्राकृतिक सम्पदा हो बाप की जागीर समझ लिया है।



केदारनाथ को लोग शिव धाम मानकर पूजते हैं, शिव यानि शमशान के देव, अघोरी, एकांत में रहने वाले - लेकिन पिछले साल तो कुछ लोग वहां भी भांगड़ा करने ढोल भी ले गए थे।

 

पूरे चार धाम मार्ग पर जो उधम और तांडव ये तथाकथिक धार्मिक लोग मचाते हैं, प्रकृति के साथ साथ स्थानीय लोगों को परेशान करते हैं, वो किसी राक्षशी प्रवृति से कम नहीं है।



 

रामायण के राम जो खुद भगवान हैं, उन्होंने अपनी पत्नी को भी समझाया कि वेवजह प्रकृति का विनाश ठीक नहीं है। प्राकृतिक सम्पदा को दूर से देखो उसका आनंद लो, पर उसे पाने के वेवजह लालसा मत पालो। सीताजी नहीं मानी, स्वर्ण मृग को पाने का लालच किया और नतीजा हम सब जानते हैं।

 

                                                                                                           लेखक  - वरिष्ठ पत्रकार है