समाज के वर्चस्वशाली कास्ट और उसके नियंत्रित जनसंचार
||समाज के वर्चस्वशाली कास्ट और उसके नियंत्रित जनसंचार||


अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिये एक औरबुरी खबर है. सुप्रीम कोर्ट के नये फैसले के मुताबिक scst के आरक्षण में क्रीमी लेयर  के सिद्धांत को लागू करना अब शायद जरूरी हो जायेगा  सोशल मीडिया से प्राप्त जानकारी के अनुसार ही (अभी इसकी आधिकारिक पुष्टि होनी बाकी है)2018 में ही केंद्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को प्रदत्त आरक्षण के दायरे से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कि उन सदस्यों को बाहर करने संबंधी प्रस्ताव को मंजूरी दे दी थी जोकि आयोग के दृष्टिकोण में तथाकथित 'क्रीमी लेयर' मे आते हैं. यानी कि अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में भी ओबीसी के आरक्षण की तरह ही क्रीमी लेयर के प्रस्ताव मंजूरी दे दी गई है.

 

इस देश का आरक्षण विरोधी वर्चस्व शाली तबका हमेशा से इस बात की मांग करता रहा है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के ' संपन्न'  लोगों को आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाए. कुछ अदूरदर्शी  और मूर्ख दलित भी इस बात का समर्थन कर रहे हैं इस प्रस्ताव और सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के क्या निहितार्थ हैं, इसकी संवैधानिकता  के क्या प्रश्न है? और इससे  हमारे संविधान के भावना के अनुरूप सामाजिक एवं आर्थिक न्याय का लक्ष्य लक्ष्य किस प्रकार प्रभावित होगा इस पर विचार करना इस लेख का उद्देश्य है. 

 

- सबसे पहले हमें यह  देखना होगा कि मूल संविधान में और संविधान सभा की बहसों में क्रीमी लेयर या आर्थिक आधार पर आरक्षण को लेकर क्या दृष्टिकोण और निष्कर्ष रहा है 

 

यहां ध्यान रहे sc-st आरक्षण में क्रीमी लेयर के लग जाने से पूरा आरक्षण ही आर्थिक आधार पर हो जाएगा क्योंकि ओबीसी का आरक्षण  पहले ही एक  आर्थिक आरक्षण है जोकि सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के एक अधिकतम आय वर्ग तक की सीमा मे  आने वाले लोगों को मिलता है. और 10% सवर्ण कोटा अथवा ईवीएस का  आरक्षण पहले ही आर्थिक आधार पर दिया  जाने वाला आरक्षण है .

 

संविधान सभा में, आरक्षण के आधार को लेकर पर्याप्त बहस हुई है जिसमें आर्थिक आधार पर आरक्षण को खारिज कर दिया गया था एवं हमारे देश की पारंपरिक वर्चस्व की संस्थाओं एवं जाति व्यवस्था को देखते हुए सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों के लिए आरक्षण के सिद्धांत को स्वीकार किया गया था. 'क्रीमी लेयर' शब्द अथवा शब्दावली मूल संविधान अथवा संविधान सभा की बहसों में नहीं आया है, यह सबसे पहले न्यायपालिका द्वारा 1992 में, ओबीसी आरक्षण से जुड़े मामले 'इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ 'के  वाद में ईजाद किया गया. जिसके जरिए अन्य पिछड़ा वर्ग में आने वाली जातियों के उन सदस्यों को आरक्षण के दायरे से बाहर कर दिया गया एक निश्चित आय सीमा वार्षिक आय आंकी गई. इस तरह मूल संविधान एवं संवैधानिक बहसों के निष्कर्षों को दरकिनार कर क्रीमी लेयर की एक नई श्रेणी ईजाद की गई.

वर्तमान में जाति अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में इसी तरह की श्रेणी को समाविष्ट करने का प्रस्ताव अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग द्वारा मंजूर किया गया है.

 

क्रीमी लेयर के सिद्धांत के पैरोंकारों का यह कहना है कि आरक्षण का फायदा पीढ़ी दर पीढ़ी एक ख़ास  संपत्तिशाली तबका उठा रहा है. और एससी एसटी के गरीब लोगों को इसका फायदा नहीं मिल पा रहा है. ऊपर से देखने पर वाजिब लगने वाले इस तर्क कि अगर गहराई से पड़ताल करें केवल हवा हवाई बात है और इसका मूल उद्देश्य पूरी आरक्षण की व्यवस्था को आर्थिक आधार पर कर दिया जाना है.

 

आजादी के 70 सालों के बाद भी अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के लिए निर्धारित उनकी आबादी के अनुपात का कोटा केंद्र सरकार के अलग-अलग कैडरों में आज भी अपूर्ण है. राज्य सरकारों की हालत तो और भी अधिक खराब है. अगर sc-st में एक सब्सटेंशियल क्रीमी लेयर है तो केंद्र एवं  राज्यों में अलग-अलग सेवाओं में इनका बैकलॉग कैसे रह जाता है. क्या क्रीमी लेयर से आने वाले लोगों ने इस बैकलॉग को भर नहीं दिया जाना था. अगर एससी एसटी का उनकी आबादी के अनुपात में सेवाओं में प्रतिनिधित्व ही नहीं है तो उनके तथाकथित संपत्तिशाली वर्ग को आरक्षण के दायरे से बाहर करने से क्या यह प्रतिनिधित्व और कम नहीं हो जाएगा. क्योंकि किसी भी सेवा की एक न्यूनतम अर्हता होती है. अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के कई पात्र लोगोंके परिदृश्य में मौजूद रहनेके बावजूद भी संबंधित पदों से जाति व्यवस्था जन्य भेदभाव और पूर्वाग्रहों के चलते उन्हें वंचित रखने के कई मामले समय-समय पर प्रकाश में आते रहते हैं. जब अर्हता  धारित करने वाले लोगों को इस किस्म के भेदभाव का सामना करना पड़ता है तो क्रीमी लेयर लागू हो जाने के बाद तो हालात और भी गंभीर हो जाएंगे. क्योंकि वह लोग जो कई किस्म की न्यूनतम अर्हता धारित करते होंगे वह अपनी क्रीमी लेयर की आर्थिक हैसियत के कारण आरक्षण से बाहर हो जाएंगे और अन्य कई ऐसे लोग जो आरक्षण के दायरे में होंगे लेकिन अपनी आर्थिक हैसियत के कारण कई किस्म की नौकरियों के लिए न्यूनतम अर्हता हासिल नहीं कर पाएंगे इस तरह प्रतिनिधित्व, जो कि आरक्षण  के  मूल  में है कभी भी पूरा नहीं किया जा सकेगा. इस स्थिति को एक उदाहरण से समझें. मान लीजिए किसी  विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति होनी है,कई विश्वविद्यालय एसोसिएट प्रोफेसर के पद  के लिए न्यूनतम अर्हता असिस्टेंट प्रोफेसर की रखते हैं, और क्रीमी लेयर लग जाने से अनुसूचित जाति और जनजाति है के सभी असिस्टेंट प्रोफेसर आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएंगे. इस तरह एसोसिएट प्रोफेसर के पदों पर आरक्षण अपने आप समाप्त हो जाएगा. क्योंकि scst का आर्थिक रूप से कमजोर तबका इस पद की न्यूनतम अर्हता धारित ही नहीं करेगा. यह एक बहुत ही गंभीर स्थिति है. जिससे आरक्षण लगभग समाप्त हो जाएगा.

 

समाज के वर्चस्वशाली  अपर कास्ट और उसके द्वारा नियंत्रित जनसंचार माध्यमों और निर्णायक रूप से न्यायपालिका के द्वारा बार-बार आरक्षण के विरोध में  मुहिम  चलाई जाती रही है, पिछले कुछ समय से भारत का वर्चस्व शाली तब का और दक्षिणपंथी संगठन इस बात को जनसामान्य के बीच में स्थापित करने में सफल हुए हैं कि आरक्षण का फायदा वंचित समुदायों के केवल कुछ मुट्ठी भर संपन्न लोगों को मिल रहा है और वंचित समुदाय के गरीब लोग इसका फायदा नहीं ले पा रहे हैं, वंचित समुदायों के गरीब लोगों की चिंता के पीछे असल उद्देश्य आरक्षण को पूरी तरह से निष्प्रभावी बना देना है.

 

हाल के समय में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा उत्तराखंड राज्य की सरकार के आरक्षण विरोधी  तर्कों से सहमति जताते हुए यह फैसला दिया है कि, आरक्षण मूल अधिकार नहीं है और सरकारें इसे देने के लिए बाध्य नहीं हैं, यह फैसला प्रमोशन में आरक्षण से संबंधित वाद में प्रमोशन में आरक्षण के विरोध में सुप्रीम कोर्ट गई उत्तराखंड सरकार के पक्ष में आया है. और यह बात भी ध्यान देने लायक है कि प्रोमोशन में आरक्षण से जुड़े हुए एक अन्य वाद (जनरैल सिंह के मामले में) सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि sc-st वर्गों में भी ओबीसी वर्ग की तरह क्रीमी लेयर लगाई जा सकती है. अब यह देखना दिलचस्प है कि यदि sc-st वर्गो में क्रीमी लेयर की अवधारणा को लागू किया जाएगा तो इन वर्गों के लिए प्रमोशन में आरक्षण लगभग नामुमकिन हो जाएगा. क्योंकि प्रमोशन में आरक्षण का फायदा सरकारी कर्मियों को मिलता है जिनका बड़ा हिस्सा क्रीमी लेयर में आ जाएगा. इस तरह प्रमोशन में आरक्षण को क्रीमी लेयर के जरिए पूरी तरह से खत्म कर दिया जाएगा.

 

अब एक और मुद्दा गौर करने लायक है अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के वे लोग जो तथाकथित क्रीमी लेयर में आएंगे, क्या वे लोग समाज में उसी तरह स्वीकार्य हैं जैसे आर्थिक रूप से रूप से उनके वर्ग में आने वाले अपर कास्ट के लोग. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के बीच जो तैयार होता हुआ मध्यवर्ग है, उसकी सामाजिक सांस्कृतिक स्थिति किसी भी तरह से उनके सह वर्गीय अपर कास्ट जैसी नहीं है. यह समझना जरूरी है कि एक मध्यवर्गीय सवर्ण और एक मध्यवर्गीय दलित आज भी हमारे देश में दो अलग-अलग दुनियाओं  का प्रतिनिधित्व करते हैं, मध्य वर्गीय दलित यहां तक कि उच्च वर्गीय दलित भी सामाजिक सांस्कृतिक अर्थों में बहिष्कार को एक अलग स्तर पर महसूस करता है. यह बहुत छोटा हिस्सा जाति संबंधी उत्पीड़न का शिकार होता है. इस देश के दलित राष्ट्रपति को मन्दिर में प्रवेश करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है राष्ट्रपति तो निश्चित ही क्रीमी लेयर में ही आएंगे. कई ऐसे मामले लगातार प्रकाश में आते रहते हैं जिसमें पदस्थ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के अधिकारियों का अपर कास्ट के द्वारा जातीय उत्पीड़न किया जाता है. डॉक्टर पायल तड़वी  जैसे ना जाने कितने मामले सामने नहीं आ पाते. संभव है कि कोर्ट द्वारा  तय की गई  परिभाषा के अनुसार  डॉक्टर पायल तड़वी क्रीमी लेयर  में आती,  तो यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का तुलनात्मक रूप से आर्थिक मजबूत वर्ग सामाजिक वंचना और जातीय  शोषण का शिकार नहीं है.

 

असल में हमें यह समझना होगा कि हाल के समय में दलित और बहुजन राजनीति अपना असर खो रही है और इनके नेता निस्तेज हो गए हैं ऐसे में दलित आदिवासी समाज से आने वाले प्रोफेसरों अकादमिको और सरकारी अधिकारी कर्मचारियों ने अपनी अपनी सीमाओं में दलित आदिवासी आंदोलन की कमान संभाल ली है, ऐसा लग रहा है कि सत्ताधारी और वर्चस्वशाली तबका इस नेतृत्वकर्ता वर्ग को इनके जन समुदाय से कर देना चाहता है. इससे दोहरा फायदा होगा एक तो सीधे-सीधे शासन प्रशासन में सवर्णों का एकाधिकार हो जाएगा और इस एकाधिकार को चुनौती देने वाले किसी भी सामुदायिक गोल बंदी को पनपने का मौका ही नहीं मिल पाएगा. यह फैसला इस देश में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को और गहरा स्थापित करेगा.

 

यदि सरकारों और कोर्ट्स को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के गरीब तबके की वास्तव में ही फिक्र होती तो वह एक ऐसी व्यवस्था प्रस्तावित कर सकती थी जिसमें जातीय आरक्षण के भीतर आर्थिक आरक्षण अथवा प्रेफरेंस सिस्टम होता. यानी कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के भीतर पहला अधिकार इन  वर्गों के आर्थिक रूप से कमजोर तबकों का होता और उनमें अर्ह  अभ्यर्थी ना मिलने पर सीटों को तथाकथित क्रीमी लेयर से ही भरा जाता. और सार्वजनिक क्षेत्र के साथ ही निजी क्षेत्र में भी इस व्यवस्था को लागू किया जाता.

 

इससिद्धांत से भारतीय संविधान के सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के मूल्य की भी पूर्ति होती.  लेकिन ऐसा लग रहा है कि  अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति में  क्रीमी लेयर लगाकर इनके समूचे तैयार हो रहे मध्यम वर्ग को आरक्षण प्रतिनिधित्व के लाभ से वंचित कर देना ही संबंधित प्रस्ताव और फैसले का उद्देश्य है. जो कि एक खतरनाक बात है

 

राष्ट्र के निर्माण में, शासन प्रशासन में सभी वर्गों की समुचित भागीदारी कुछ हद तक सुनिश्चित करने वाले आरक्षण पर होने वाले हमलों की कड़ी में यह सबसे ताजा और सबसे गहरा हमला होने वाला है. जो आरक्षण के  सिद्धांत की बुनियाद को ही बदल देगा. इस प्रस्ताव और ताजा फैसले के खिलाफ और भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों के पक्ष में मजबूती से खड़े होने की जरूरत है.

 

- यह लेखक के निजी विचार है। लेखक पत्रकार है।