शिल्पकार,  नाम, जनेऊ, शिक्षा, सम्मान, हिस्सेदारी व प्रतिनिधित्व के लिए एक आंदोलन

||शिल्पकार,  नाम, जनेऊ, शिक्षा, सम्मान, हिस्सेदारी व प्रतिनिधित्व के लिए एक आंदोलन||



उत्तराखंड का प्राचीन इतिहास आदिवासी कोल जाति से जुड़ा हुआ है । इसके वंशज आज शिल्पकार समाज के लोग माने जाते हैं। यह समाज हिंदू समाज द्वारा उपेक्षित और उत्पीड़ित रहा है ।सवर्ण  इन्हें  समकक्ष  समझना तो दूर उन्हें मानव समझने को भी तत्पर न थे इन्हें संदेह नहीं कि वह इस जाति को पशुओं से भी निम्नतर व्यवहार करते थे। उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित किया गया था।    

 

औपनिवेशिक शासन में अंग्रेजों ने जाति प्रथा जैसी परंपराओं को यथावत बनाए रखा वह हिंदुओं के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करना नहीं चाहते थे । वह समझते थे कि जाति प्रथा का बने रहना उनके साम्राज्यवाद के हित में है। इसके बाद भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता था अंग्रेजों के समय में जाति प्रथा का सदियों से चला आ रहा पारंपरिक  ढांचा थोड़ा सा हिला। जिसने दलित जातियों को सिर उठाने का अवसर दिया और यहीं से उत्तराखंड के दलितों का भाग्य उदित होने लगा।

 

उत्तराखंड के दलित समाज के प्रति शताब्दियों से अमानवीय व्यवहार भारतीय समाज की परंपरा बना हुआ था। उत्तराखंड  में बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध समतावादी आंदोलन को जन्म देने वाले प्रथम व्यक्ति मुक्ति हरिप्रसाद टम्टा और इसको और अधिक परिपक्व करने में खुशी राम और बची राम आदि सामने आते हैं। पश्चिमी विचारधारा की जाति विहीन संस्कृति का दलित समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा और ऊंची जातियों के समान ही दलित समाज में थोड़ी बहुत पाश्चात्य शिक्षा और नए पेशों के प्रति आकर्षण  पाश्चात्य शिक्षा से आंदोलन के लिए एक नई पृष्ठभूमि तैयार कर दी।

 

1905 का समय उत्तराखंड के इतिहास में आगामी आंदोलन के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ। इस वर्ष अल्मोड़ा में दलित समाज के एक छोटे से वर्ग में "टम्टा सुधार सभा" का गठन हुआ तो गढ़वाल में तारा दत्त गैरोला ने ब्राह्मणों के छोटे से वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली "सरोला सभा" का गठन हुआ।

 

टम्टा सुधार सभा ने अपने प्रारंभिक अधिवेशन में अपनी जाति के समस्याओं और शिक्षा समाज सुधार पर बल दिया। 1911 का वर्ष दलित समाज को जोड़ने वाला वर्ष रहा जॉर्ज पंचम के इंग्लैंड की गद्दी पर बैठने के अवसर पर राज तिलक का आयोजन किया गया था। भारत में इसका स्वागत व अल्मोड़ा में शाही दरबार आयोजित हुआ। इसमें  सभी वर्गों के लोग उपस्थित हुए परंतु जातिगत आधार पर शिल्पकार जाति को वहां नहीं आने दिया । इस घटना ने दलित समाज में अत्यधिक कड़वाहट पैदा हो गई। जिससे मुंशी हरिप्रसाद टम्टा को सोचने को मजबूर हुए। उन्होंने इसके बारे में आगे लिखा "मैं इन भाइयों को ऐसी बातों के लिए लाख-लाख शुक्र गुजार हूं उन्होंने मुझे और मेरे भाइयों को सोते से जगा दिया इन बातों की बदौलत मेरे दिल में इस बात की लौ लगी कि मैं अपने भाइयों को दुनिया की नजरों में इतना ऊंचा उठा दूं कि लोग उन्हें हिजारत की निगाहों से नहीं बल्कि बराबरी और मोहब्बत की निगाहों से देखें"। जिसके बाद वह इस दिशा में और भी मजबूती और समर्पित भाव से कार्य करने लगे।

 

सन 1913 में अल्मोड़ा नगरपालिका के एक मेंबर की सदस्यता से श्री कृष्ण टम्टा निर्वाचित हुए जिससे सवर्ण  विचलित हो गए और नगरपालिका के कई मेंबर इस्तीफा देने को तैयार हो गये। क्योंकि वह एक शिल्पकार  के साथ बराबरी में बैठने को तैयार नहीं थे।

 

लाला लाजपत राय 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में गढ़वाल आए और गढ़वाल में अकाल व जातिगत भेदभाव. के कारण ईसाई धर्मांतरण गति  पकड़ रहा था। इससे लाला दुखी हुए और उन में ईसाइयों के इस जघन्य अपराध के विरुद्ध सतत प्रयास कर धर्मांतरण अभियान को रोकने में सफलता पाई। 

 

सन 1913 में लाला लाजपत राय कुमाऊँ के सुनकिया गाँव आये। उन्होंने दलितों के प्रति गहरी सहानुभूति व्यक्त की और उनको शिल्प कलाओं से जुड़े होने के कारण हरि प्रसाद टम्टा की मांग के अनुरूप शिल्पकार नाम से संबोधित किया और यहां के लोगों को हिंदू समाज का महत्वपूर्ण अंग मानते हुए उन्हें "आर्य" नाम दिया और *जनेऊ धारण कराया।* जिसका पर्वतीय सवर्ण लोगों द्वारा जबरदस्त  विरोध किया गया और उनके साथ क्रूरता का व्यवहार किया गया । उनकी जोत की जमीन उनसे छुड़वा ली उन्हें मजदूर रखना बंद कर दिया। उनके रास्ते घाट बंद कर दिये। उनके साथ मारपीट करते हुए  उनकी जनेऊ तोड़ डाली कुछ घरों में आग लगा दी गयी और आर्य समाज के कार्यकर्ताओं पर भी लाठियों का आक्रमण किया गया। प्रारंभ में खुशी राम आदि नेताओं ने भूल जाओ और माफ करो की नीति अपना कर उनसे  राजीनामे करवा लिए पर यातना और क्रूरताओं का क्रम बढ़ता ही गया कुमाऊँ गढ़वाल के विभिन्न स्थानों में जनेऊ धारण के कारण शिल्पकारों  को पीड़ित किया गया इस संबंध में न्यायालय में भी शरण ली गई जहां कुछ सवर्णों  को दंडित किया गया।बागेश्वर खरेही क्षेत्र में सवर्णों को न्यायिक लडा़ई में बडी़ मात्रा में गिरफ्तारी के साथ अपनी जमीदारी से हाथ धोना पडा़।

 

इन घटनाओ के विरुद्ध शिल्पकारों ने कुमाऊं परिषद के अध्यक्ष पंडित तारा दत्त गैरोला से शिकायत की और गैरोला ने सवर्णों से अपील की " *कि चाहे शिल्पकारों के हाथ का खाना न खाएं ,चाहे उन से रोटी बेटी के संबंध न रखें पर उन्हें हिंदू धर्म का चतुर्थ वर्ण स्वीकार कर लें*" साथ ही उन्होंने शूद्रों को भी सुझाव दिया कि केवल जनेऊ पहनकर   कोई अपने को सवर्णों से बड़ा न समझें सवर्णों के पनघट या घड़े छूकर उन्हें न चिढा़वें बल्कि अपने आचार विचार में सुधार करें और स्वच्छता का उपयोग करें।

 

सन 1920 - 21 के वर्ष जनेऊ धारण के विरुद्ध खूनी घटनाओं के वर्ष थे 3 जनवरी 1920 को 34 शिल्पकारों को नंदा देवी नैनीताल में दीक्षित किया गया परंतु 1920 में ही मुक्तेश्वर, नैनीताल  में शिल्पकारों को शुद्धिकरण संस्कार से रोका गया इसके पश्चात मठेला, लामाचौड़, बमस्यूं  सुंदरखाल, मेहरागांव (भीमताल) मटीला, गेबुआ आदि स्थानों में यातनाओं का दौर चला। खुशीराम द्वारा अल्मोड़ा जनपद में शल्ट ,कगलाशो ,सिलोर और फफड़िया के  700 परिवारों का आर्य धर्म में प्रवेश कराया।

 

शिल्पकारों की  नव जागृति को देखकर सवर्णों द्वारा  अनेक अत्याचार किये । शिल्पकारों के कुछ मकानों में आग लगा दी गयी।कुछ मकान तोड़े गए उन्हें मारा-पीटा गया गांव से निकाला गया खुशीराम ने इन यात्राओं के संबंध में लाला लाजपत राय को सूचना भेजी। जिस पर प्रतिक्रिया करते हुए लालाजी ने लाहौर से खुशी राम को प्रेषित अपने दो पंक्तियों के पत्र में इन घटनाओं पर खेद व्यक्त किया और इसे 6 अगस्त 1925 को आगरा से पहाडो़ पर जुल्म नामक शीर्षक से आर्य मित्र समाचार पत्र में  प्रकाशित किया।

मुंशी हरिप्रसाद टम्टा ने अल्मोड़ा में इनके विरुद्ध न्यायालय की शरण ली अपने खर्च पर बहुत से मुकदमे लडे़। मानना ही पड़ेगा कि आर्य समाज के शुद्धिकरण अभियान ने पर्वतीय शिल्पकारों को संघर्षमय और साहसपूर्ण जीवन की ओर अग्रसर कर दिया।

 

1919 के पश्चात शिल्पकार सभा और शिल्पकार सुधारिणी सभा दोनों ही सभाएं अपनी परिस्थिति के प्रति सजग हो गई इस समय उनका सीधा निशाना शिल्पकार समाज के लिए पूर्व से प्रचलित अशोभनीय व अपमानजनक शब्द का संबोधन  था ।जिसके नाम से उन्हें पुकारा जाता था वह इस शब्द से छुटकारा चाहते थे 1919 से हरिप्रसाद टम्टा खुशीराम हो या गढ़वाल के बाबूबोथा सिंह तथा जयानंद भारती आदि इस शब्द का विरोध करने लगे।

 

हरिप्रसाद टम्टा वह खुशी राम द्वारा ब्रिटिश सरकार को प्रेषित अपने पत्र में तत्कालीन गवर्नर से मांग की गई थी कि उनके समाज के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला यह अपमानजनक  शब्द मैदानी क्षेत्र के आपराधिक जनजातीय लोगों के लिए प्रयुक्त होता है।skt इसका संबंध पर्वती क्षेत्र से जुड़े दलित वर्ग से नहीं है यह अत्यधिक अपमानजनक शब्द है। आगामी जनगणना में इस शब्द को समाप्त कर इस शब्द के स्थान पर यहां की शिल्पकलाओं का कार्य करने वाली  समस्त जातियों के लिए शिल्पकार शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए। 1925 के शिल्पकार आंदोलन में इस शब्द की समाप्ति पर जोर दिया गया और *1930 मैं इस घृणित शब्द के स्थान पर शिल्पकार शब्द को अनुमति दे दी गई तथा 1931 की जनगणना रिपोर्ट में उन्हें शिल्पकार दर्ज किया गया।

 

शिल्पकार नेता केवल जनगणना में जाति नाम परिवर्तित करने तक सीमित नहीं रहे उन्होंने जाति को उच्चता देने के लिए शिल्पकारों के नाम से पीछे भी परिवर्तन का बिगुल फूंका अभी तक पर्वतीय क्षेत्र में शिल्पकारों के नवजात शिशु का नामकरण उनके गुसाईं यानी कि सवर्ण की सहमति से ही रखा जाता था जो अशोभनीय होते थे और अपमानजनक होते थे अतः *1925 के शिल्पकार सम्मेलन में निर्णय लिया गया कि अब शिल्पकार अपने नवजात बच्चों के नाम के साथ प्रसाद ,लाल ,राम, चंद आदि सम्मानजनक विशेषणों का प्रयोग करेंगे।

 

27 अगस्त 1925 को अल्मोड़ा के डोली डांडा नामक क्षेत्र में शिल्पकारों का प्रथम सामूहिक अधिवेशन हुआ* कुछ एक सवर्णों द्वारा इसका विरोध किया गया इस अधिवेशन में निशुल्क प्राथमिक शिक्षा ,विधायी संस्थाओं में प्रतिनिधित्व ,सेना में भर्ती, भूमि वितरण आदि के लिए सरकार से निवेदन किया गया तो शिल्पकार समाज में व्याप्त बुराइयां यथा बाल विवाह समाप्ति विधवा विवाह सुधार मादक वस्तु निवारण आदि पर भी जोर दिया गया।

 

सन 1931 में दलित समस्या राष्ट्रीय स्तर पर उठ खड़ी हुई प्रथम गोलमेज सम्मेलन में गांधी दलित प्रतिनिधि के रुप में डॉक्टर अंबेडकर को स्वीकार नहीं कर रहे थे ऐसे समय में अल्मोड़ा से मुंशी हरिप्रसाद टम्टा ने गोल में सम्मेलन में तार भेजकर डॉक्टर अंबेडकर को दलित प्रतिनिधि प्रमाणित किया जिसे उनके द्वारा गोलमेज  सम्मेलन की कार्यवाही में रखा गया।जिससे डाक्टर अंबेडकर की दावेदारी को और भी बल मिला अंग्रेज सरकार ने इसे स्वीकार किया। इसी समय दलितों के पृथक  दावे से गांधी जी अत्यंत विचलित हुए गांधी ने इसका कड़ा विरोध किया।जिसके बाद 1932 में अंबेडकर व गांधी के बीच पूना पेक्ट समझौता हुआ।

 

उत्तराखंड का  प्राचीन इतिहास इस बात का संकेत देता है कि यहां अधिकांश भूमि सवर्ण जातियों के अधिकार में थी। इस प्रकार यह जातियां ही आर्थिक और राजनीतिक शक्ति पर नियंत्रण रखती थी जबकि शेष शिल्पकार समाज हर तरीके से वंचित था मुंशी हरिप्रसाद टम्टा के प्रयास से कत्यूर,कुलांऊँ, लोहाघाट, अल्मोडा़,बागेश्वर सहित  कुमाऊँ व गढ़वाल के कुछ  क्षेत्रों में अंग्रेज सरकार से भूमि मंजूर कराकर शिल्पकार बस्तियां निर्मित की गयी।

 

इसके लिए  हरिप्रसाद ने सशक्त प्रयास किए क्योंकि  ब्रिटिश सरकार ने अनुभव किया कि यहां केवल भूमि लगान दाता और आयकर दाता ही मत देने के अधिकारी हैं सरकार व शिल्पकार नेताओं की चिंता थी कि योग्यता के चलते शिल्पकार ओं का सीमित वर्ग ही मताधिकार को प्राप्त कर सकेगा ।डिप्टी कमिश्नर अल्मोड़ा ने 1934 मेंकहा  कि सरकार  शिल्पकारों को विस्तृत अधिकार देना चाहती है इन नेताओं के प्रयास से सरकार के प्रत्येक परिवार के मुखिया को वोट देने का अधिकार कुमाऊँ  गढ़वाल क्षेत्रों में दे दिया गया।        

1916 में कुमाऊँ कमिश्नर ने अपने कार्यालय में ब्राह्मणों का वर्चस्व पाया। कमिश्नर विंढ़म के काल में सरकारी नौकरियों में ब्राह्मणों के वर्चस्व के पैरों पर बेड़ियां डाले जानी आवश्यक समझी गई ।क्षत्रियों  को वरीयता दी जाने लगी विंढ़म शिल्पकारों को भी वह प्रोत्साहन देना चाहते थे परंतु उनका अशिक्षित होना आड़े आ रहा था । इसलिए  हरिप्रसाद टम्टा ने दलितों के लिए कृष्णा डे और कृष्णा नाइट स्कूल प्रारंभ किए ।ताकि उन्हें शिक्षित करा कर सरकार की नौकरी के योग्य बनाया जा सके। दलित बच्चों की पढ़ाई के लिए अंग्रेज सरकार से वजीफे स्वीकृत कराए गए। इसके सकारात्मक परिणाम सामने आए और 1935 में कुछ शिल्पकार युवकों को पुलिस में भर्ती किया गया ।साथ ही  अन्य वरिष्ठ पदों पर विशेष कर  शिक्षा सुपरवाइजर, क्लर्क, सरकारी कार्यालयों  में चपरासी की योग्यता रखने वाले दलित युवकों कार्यालयों में रखा गया।इस विषय   पर राम प्रसाद टम्टा ने संयुक्त प्रांत की विधान परिषद में भाषण देकर सरकार का ध्यान आकर्षित कराया उन्होंने अल्मोड़ा के राजकीय कन्या पाठशाला में प्रधानाचार्य द्वारा अछूत शिल्पकार कन्या को छात्रावास में स्थान न देने का प्रश्न भी उठाया। जिस पर सरकार द्वारा कार्यवाही की गई।

 

1938 में द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ होते ही शिल्पकारों को सेना में भर्ती कराने के प्रयास आरंभ हो गये। हरिप्रसाद टम्टा ने 300 शिल्पकार  तकनीकी जवान सेना को दिए । उस समय गांधी व कांग्रेस जन भारतीयों का सेना में भर्ती का तीव्र विरोध कर रहे थे लेकिन शिल्पकारों के लिए सेना में भर्ती होने का बेहतरीन अवसर था। यद्यपि उत्तराखंड के सवर्ण भी उस समय अंग्रेजी सेना में भर्ती हो रहे थे इस प्रकार से ज्ञात होता है कि शिल्पकार नेताओं ने अनेक कष्ट सहकर उत्तराखंड के आम शिल्पकारों प को स्वतंत्रता प्राप्ति तक सम्मानजनक स्थिति दिला दी थी । इस प्रकार हमें संकोच नहीं करना चाहिए कि आठवीं शताब्दी से जिस अंधकार ने शिल्पकारों का जीवन यातनापूर्ण बना रखा था उसने परिवर्तन के संकेत बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में क्रियाशील होने लगे।क्षितिज के एक छोर से जो प्रकाशित उदित हुआ था उस से स्वतंत्रता प्राप्ति तक शिल्पकार समाज का आकाश प्रकाशमय में होने लगा। आज के शिल्पकार समाज के लोग अपने इतिहास को नहीं जानते हैं।

 

वह शिल्पकार समाज के उन महापुरुषों व उनके संघर्ष  को नही जानते जो समाज को अंधकार अन्याय अत्याचार शोषण व अशिक्षा से बाहर निकाल कर लाये। हमें इस बात को सोचना चाहिए कि हम से पूर्व के यह महान लोग भी  हमारी भांति  अपने घरों में  अपने बीवी बच्चों के बारे में ही सोचते अपने घर परिवार तक ही  सीमित रह गए होते तो कल्पना करें आज हम कहां होते हैं ? हम आज जहां भी हैं अपने पूर्व के इन सामाजिक संघर्ष करने वाले महापुरुषों के संघर्ष के परिणामस्वरूप हैं।इससे आगे की पीढ़ियां जो भी प्राप्त करेंगे या नहीं करेंगे वह हमारे कर्मों पर निर्भर करता है।  इसलिए हम सभी को सचेत रहते हुए अपने सामाजिक कर्तव्यों के प्रति हमेशा सचेत रहना चाहिए। इनके लिए आवाज उठानी चाहिए आवाज नहीं उठा सकते हैं तो जो आवाज उठा रहे हैं उन्हें सहयोग करना चाहिए।पूर्व में सीमित शिक्षा के बल पर सीमित लोग बहुत से लोगों को साथ लेकर बहुत बडा़ परिवर्तन कर गये। आज व्यक्ति अपने पूर्व के लोगों की अपेक्षा हर मामले में संपन्न है लेकिन उसके बाद भी अधिकांश लोग व्यक्तिगत जीवन जी रहे हैं।

 

हमने समाज के नाम पर जो लिया है उस समाज के ऋणी है उस ऋण को सामाजिक सहयोग व कार्य के माध्यम से यहीं चुकाना भी चाहिए जिससे कि हमारे प्रयासों से औरों का जीवन भी प्रकाशमय हो सके।