बहुविविधता के साहित्यकार ‘बिहारी लाल दनोसी’

||बहुविविधता के साहित्यकार ‘बिहारी लाल दनोसी’||




साहित्य की विविध विधाओं में पारंगत साहित्यकार बिहारीलाल दनोसी की रचनाओं को पढ़ना जीवन की सच्चाई के साथ यात्रा करना जैसा है। यह यात्रा पाठक के मन-मस्तिष्क में शब्दों पर सवार होकर भावनाओं के प्रवाह में अनवरत चलती रहती है। अनवरत इसलिए कि इस वैचारिक यात्रा का कहीं कोई ठौर-ठिकाना तो है नहीं। भावनाओं का यह अतिरेक किसी एक निश्चित दिशा और स्थल की ओर बह कर दूर नहीं जाता है। इसका सुखद अहसास यह है कि हर समय अपने आस-पास कुलबुलाती यह साहित्यिक यात्रा पाठक को अचंभित और आनंदित करती रहती है।



 

सम्पन्न घरों में पले-बढ़े लेखक सामाजिक बिडम्बनाओं के दृष्टा हो सकते हैं परन्तु जिसने उनको स्वयं सहा होगा उस सााहित्यकार के लेखन में दुराव-छिपाव की संभावना नहीं होती है। तभी तो दनोसी जी ने जीवन में जो देखा, मिला, सोचा, समझा और भोगा उसे तटस्थ भाव से लिखा है। उन्हें अपनी रचनाओं में कोई साहित्यिक तिकड़म लगाने की जरूरत नहीं पढ़ी। उनका सम्पूर्ण रचना संसार अतीत के चलते-फिरते रेखाचित्र हैं। यह सार्वभोमिक सत्य है कि अतीत चाहे जैसा भी हो उसकी यादों का रोमांच और स्वाद अनूठा होता है।



 

बिहारी लाल दनोसी पेशे से इंजीनियर, मन से कलाकार एवं साहित्यकार और मस्तिष्क से सामाजिक सरोकारों के प्रति दायित्वशील व्यक्तित्व हैं। जीवन की हर स्थिति में सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर उन्होने अपने को निखारा है। बचपन की विकटताओं ने ‘अभाव में प्रभाव’ को कैसे बरकरार रखा जाता है उन्हें यह भलीभांति समझा दिया था। यही कारण है कि उनके सम्पूर्ण लेखन में कहीं कोई टूटन, खीज और आक्रोश नहीं है। कहीं-कहीं निराशा और झुंझलाहट है परन्तु वह परिस्थितिजन्य है। इसीलिए नकारात्मकता उनकी रचनाशीलता का स्थाई भाव नहीं बन पाया है।



 

बहुविविधता के धनी साहित्यकार बिहारीलाल दनोसी का जन्म 20 मई, 1944 को ग्राम-गडोली, पट्टी-नादलस्यूं, पौड़ी गढ़वाल में हुआ। परिवार में व्याप्त गरीबी और 16 भाई-बहनों के साथ पढ़ाई जारी रखने का हुनर दनोसी जी ने बाल्यावस्था में ही हासिल कर लिया था। यही नहीं परिवार में बड़ा भाई होने की जिम्मेदारी के तहत सभी छोटे भाई-बहिनों की पढ़ाई-लिखाई का ध्यान हमेशा रखा। उन्होने मेसमोर कालेज, पौड़ी से इंटर करने के बाद सन् 1964 में लखनऊ क्रिश्चियन कालेज से बीएससी की शिक्षा प्राप्त की। इसी वर्ष उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत बोर्ड में लाइन सुपरवाइजर के पद पर चयनित होकर चम्पावत से उन्होने नौकरी शुरू की। उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत बोर्ड में विविध स्थानों एवं दायित्वों पर 38 साल की सेवा के उपरान्त श्रीनगर गढ़वाल से वर्ष 2002 में उपखंड अधिकारी के पद से वे सेवानिवृत्त हुए।



 

विरासत में मिली पारिवारिक गरीबी और सामाजिक प्रताड़ना ने दनोसी जी को अपने परिवेश और समाज के प्रति अतिसंवेदनशील बनाने में मदद की। बचपन से ही अपनी सामाजिक दायित्वशीलता को समझते हुए एक चिन्तनशील और कर्तव्यपथ पर ददृचित्त व्यक्ति के रूप में वे हमेशा क्रियाशील रहे हैं। दुनियादारी की उठक-पठक से दूर एक धीर-गम्भीर व्यक्तित्व को उन्होने अपनाना पंसद किया है। जीवन की तमाम अच्छी-बुरी घटनाओं के प्रति निरपेक्ष भाव रखते हुए उन्होने अपने को इस ओर सजग रखा कि ‘जो भी हो रहा है वो अच्छे के लिए ही हो रहा है’। नतीजन, सकारात्मक आस के सहारे जीवन की तमाम विपदाओं को महत्वपूर्ण उपलब्धियों में तब्दील करने में वे सफल रहे हैं।



 

बचपन से पढ़ने-लिखने की लगन ने दनोसी जी को नौकरी के दौरान भी इस ओर अभ्यस्त रखा। नौकरी के दौरान जब भी फुरसत मिलती वे अपने आस-पास की घटनाओं से उभरे पात्रों को अपने लेखन में शामिल कर रहे होते। यही कारण है कि उनका ज्यादातर लेखन कार्य सेवाकाल में ही हुआ है। यद्यपि लेखकीय प्रकाशन उन्होने नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद किया है। साहित्यिक लेखन में अपनी सार्वजनिक उपस्थिति देर से दर्ज कराने के बावजूद भी दनोसी जी के पाठकों और प्रशंसकों का साहित्य जगत में एक व्यापक फलक है। दनोसी जी का साहित्यिक लेखन दमित समाज के भोगे गए यर्थाथ को जीवंतता से उद्घाटित करता है। उसे पढ़कर आज की पीढ़ी यह उच्चारित करती है कि ‘क्या वाकई में ऐसा हुआ होगा’ ? स्वयं लेखक इस ओर इशारा करते हैं कि ‘आज विश्वास नहीं होता कि उन विकट सामाजिक प्रताड़नाओं को सहकर मैंने कैसे उनसे पार पाया होगा’ ? परन्तु उस काल में उनके भोगे गये कटु यर्थाथ पर हिम्मत एवं संयम से अमृत सदृश्य पायी गयी विजय दोनों ही आज का सच है। नई पीढ़ी को इस सच को करीब से जानने-समझने और समाज में सामाजिक चेतना के विकास के लिए दनोसी जी के समग्र साहित्य को गम्भीरता से पढ़ा जाना चाहिए।



 

बिहारी लाल दनोसी जी की अब तक 13 पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इसमें 1 कविता संग्रह, 2 कहानी संग्रह, 5 उपन्यास, 2 आत्मकथा (हिन्दी और अग्रेंजी), 1 तकनीकी और 2 शिल्पकार विषयक किताबें हैं। ‘पहाड़ी धुन’ (स्वरचित गढ़वाली गीत संग्रह) और ‘इन्द्र धनुष’ (स्वरचित हिन्दी एवं उर्दू कविता संग्रह) प्रकाशाधीन हैं। कर्मयोगी साधक की मानस कृतियों के रूप में उनका नवीन साहित्यिक रचना संसार निरंतर गतिमान है।



प्रकाशन की दृष्टि से ‘पायदान’ कविता संग्रह बिहारी लाल दनोसी की पहली कृति है। वैसे मूलतः देखा जाय तो दनोसी जी कवि और गीतकार के रूप में ज्यादा सहज दिखते हैं। कह सकते हैं कि दनोसी जी का पद्य लेखन स्वाभाविक अभिवृत्ति में शामिल है जबकि गद्य लेखन सामाजिक दायित्वशीलता से प्रेरित होकर सार्वजनिक हुआ है। यही कारण है कि एक कलाकार हमेशा उनके मन-मस्तिष्क में मचलता रहा है। ये वक्त की बात है वे उसे पृर्णतः उभार नहीं पाये हैं। उनका यह लिखना कि ‘.....I love music but never became a perfect musician. I am a good singer but never took it serious. I am a good artist but never been a good actor or director. I bear a quality of leader but never succeeded in leading. I am good reader and writer but not a good speaker. I can write every lecture but can not deliver good lecture. I keep humble fidelity for all casters, creed and religion.' में छुपी वेदना हम-सब आम आदमी की जमात में शामिल अनेकों लोगों की जैसी है। दनोसी जी ने अपनी रंगमचीय प्रतिभा को विविध समय एवं स्थानों में रामलीला में संगीत एवं निर्देशन देकर और रावण जैसे शक्तिशाली पात्र बन कर दिखाई है। लोकप्रिय गढ़वाली फिल्म ‘श्याम ढळणी च’ के निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक के रूप में भी वे चर्चा में आये हैं। इसके अलावा उन्होने गढ़वाली फिल्म ‘पिंजड़ौ पंछी’, ‘खून कू रंग’ ‘ळोळु प्रीतम’ और ‘पिरपिरी’ का पटकथा लेखन कार्य भी किया है।



 

‘सरकारी कलम’ और ‘गरीब की मां’ दनोसी जी के कहानी संग्रह हैं। उनकी कहानियां मानवीय संवेदना और आस्था के लोक तत्वों में आकार लेती हैं। उनकी अधिकतर कहानियों का नायक प्रेम सिंह (जो लेखक का ही हमसाया प्रतीत होता है) अपने कर्तव्य-पथ पर स्वयं तो एकाग्र और मुस्तैद है परन्तु सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्थायें उसका उत्पीड़न करती नजर आती है। कटु और संवेदनहीन सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं से उसके टकराव से उपजी तड़फ और बेचारगी को दनोसी जी की कहानियों में बखूबी देखा जा सकता है। उनकी कहानी का एक अशं देखिए ‘आज मालचंद बहुत उदास है। उसके हृदय में विवशता की ज्वाला भड़क रही है। वह शिकायत करने जाये तो कहां जाये। किसके सामने रोये, किसके सामने गिड़गिड़ाये। यहां तो बहरों का राज है जिन्हें गरीब की आवाज कभी नहीं सुनाई देती है। ऐसी बड़ी सिफारिश भी मालचंद के पास नहीं है जिसे लगा कर उसे न्याय मिल सकता है। उसका तो कभी-कभी मन करता है कि वह किसी ऊंची चट्टान में जाकर अपनी इहलीला ही समाप्त कर दे या किनारे से उस व्यवस्था को आग लगा दे जिस व्यवस्था में उस जैसे बेबसों की सुनवाई के लिये कोई व्यवस्था नहीं है या उन सबको समाप्त कर दे जिन्होने आज तक उसे न्याय पाने से वंचित रखा है।’ ‘सरकारी कलम’ कहानी का यह अशं मौजूदा सरकारी और राजनैतिक कुव्यवस्था की बखिया उघाड़ने में दनोसी की कहानियों का एक उदाहरण मात्र है। यह सुखद अहसास है कि दनोसी जी के कहानियों के पात्र कुव्यवस्थाओं के शिकार होने से क्षणिक उदास जरूर हैं परन्तु वे जीवन से निराश नहीं हैं।



 

‘जमीन आसमान’, ‘चन्द्रापुरम’, ‘सौतेली मां’, ‘हर हर केदार’ और ‘आंचल का दाग’ दनोसी जी के उपन्यास हैं। उत्तराखंड का सामाजिक परिवेश इन उपन्यासों में मुखरित हुआ है। ऊपरी तौर पर सामाजिक सौहार्द और सहज दिखने वाले पहाड़ी समाज के अन्तविरोध इन उपन्यासों में प्रकट हुए हैं। जातीय भेदभाव और स्त्री उपेक्षिता के दृष्टिगत निम्न मध्यमवर्गीय पहाड़ी समाज की वेदना और बिडम्बना को दनोसी जी ने अपने लेखन में भरपूर जगह दी है। जून, 2013 में केदारनाथ में आयी महाविपदा पर आधारित ‘हर हर केदार’ उपन्यास प्रकृति और मानवीय आस्था के चरम बिन्दुओं के प्रत्यक्ष दर्शन कराता है। यह विशिष्ट एवं रोमाचंकारी उपन्यास है। यह घटना जितनी पुरानी होती जायेगी उतना ही रोमांच आने वाले समय के पाठकों में इस उपन्यास के प्रति बढ़ता रहेगा।



 

बिहारी लाल दनोसी के लेखन का एक मजबूत पक्ष यह है कि उन्होने अपने ज्ञान, हुनर, अध्ययन और अनुभवों से विकासपरख और शोधात्मक साहित्य का भी सृजन किया है। यह सुखद है कि उत्तराखंड राज्य के समग्र विकास में उर्जा और शिल्पकार विषयक उनकी पुस्तकें बहुउपयोगी संदर्भ ग्रन्थ के रूप में मानी गई है। ‘उर्जा प्रदेश उत्तराखंड के आधार स्तंभ’ पुस्तक में देश-प्रदेश में उर्जा विकास के ऐतिहासिक और सामायिक पहलुओं को बताया गया है। उत्तराखंड में उर्जा के उत्पादन और उपयोग के कई अनुछुये और संभावित पक्षों को इस किताब में उजागर किया गया है।



 

बिहारीलाल दनोसी की लिखी 2 किताबें ‘गढ़वाल के शिल्पकारों का इतिहास’ और ‘उत्तराखंड में शिल्पकार बनाम पिछड़ी जाति बनाम आरक्षण’ उत्तराखंड समाज के ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान के एक विशिष्ट पक्ष को समग्रता में उद्घाटित करती हैं। उत्तराखंड के शिल्पकार विषयक ये किताबें महत्वपूर्ण संदर्भ साहित्य के रूप में लोकप्रिय हैं। प्रामाणिक शोध-अध्ययन के साथ ऐतिहासिक तथ्यों, सामाजिक मान्यताओं, राजनैतिक हलचलों, आर्थिक गतिविधियों और सांस्कृतिक आचरणों के आधार पर शिल्पकार समाज की मजबूती और मजबूरी का उक्त दोनों पुस्तकों में गम्भीरता से विवेचन किया गया है। दनोसी जी ने इस ओर भी इशारा किया है कि आज बेहतर अवसर और सामाजिक बराबरी के बावजूद भी सामाजिक दायित्वशीलता में शिथिलता और अपने समाज के प्रति अलगाव की प्रवृति गम्भीर चिन्तन का विषय है। यह कहना प्रासंगिक है कि उत्तराखंडी समाज और विशेष रूप में शिल्पकार समाज को जानने-समझने और उनकी समस्याओं के दूरगामी निराकरण के लिए नीति-निर्धारकों, प्रशासकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और अध्येयताओं को इन पुस्तकों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।



 

इंजीनियर और साहित्यकार बिहारीलाल दनोसी गडोली, पौड़ी में पैदा हुए वहीं पढ़े-बढ़े। सेवा अवकाश के बाद वे अधिकतर समय पौड़ी में ही बिताते हैं। पौड़ी उनके मन-मस्तिष्क से कभी छूटा ही नहीं। लाजमी है कि पौड़ी से संबधित बातें और किस्से उनके में लेखन प्रमुखता से होंगे। विख्यात साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल का संपूर्ण लेखन टिहरी के आस-पास के जन जीवन पर केन्द्रित रहा वैसे ही बिहारीलाल दनोसी का लेखन भी पौड़ी की धुरी पर घूमता नजर आता है। परन्तु इससे उक्त साहित्यकारों की सर्वव्यापकता कम नहीं होती वरन उसमें आचंलिकता की मिठास और खुशबू और भी मनमोहक हो जाती है। दनोसी जी के साहित्य में पौड़ी की ‘ठसक और फसक’ दोनों अपने मौलिक एवं चुलबुले अंदाज में मौजूद हैं। पौड़ी की कई ऐतिहासिक घटनाओं, विभूतियों और हुनरमंद व्यक्तित्वों का जिक्र दनोसी के साहित्य में बखूबी हुआ है। उल्लेखनीय है कि पौड़ी के नजदीक स्थित चौफीन स्टेट और उनके परिवारों के बारे में दनोसी जी ने कई प्रामाणिक जानकारियां पाठको को उपलब्ध कराई हैं। यह सुखद पक्ष है कि दनोसी जी की प्रतिभा और हुनर को निखारने में चौफीन परिवार का सहयोग और मार्गदर्शन रहा है। सेवा से अवकाश के बाद राजनीति में वे सक्रिय हुए। परन्तु राजनीति के दांव-पेंच में अपने को अनफिट मानते हुए उन्होने स्वयं ही उससे विदा लेना उचित समझा।



 

बिहारीलाल दनोसी के विशाल व्यक्तित्व और कृतित्व पर अपनी संक्षिप्त टिप्पणी को विराम देने से पहले उनकी माताजी पुण्य आत्मा विश्वेश्वरी देवी जी को नमन करना परम आवश्यक है। यह गौरवशाली ऐतिहासिक तथ्य है कि पहाड़ी व्यक्तित्वों की सफलता की नींव में उनकी माताओं का सर्वाधिक योगदान रहा है। संतानों की शिक्षा के प्रति आग्रह और आर्कषण को मजबूती मातृशक्ति ने दी है। बिहारीलाल दनोसी इसके अपवाद नहीे हैं उनके सफल व्यक्तित्व और कृतित्व का हर भाग उनकी माताजी ने संवारा है। तभी तो बिहारीलाल दनोसी लिखते हैं कि ‘मां चाहे वह जिस किसी की भी हो शायद नियंता ने यह उसकी नियति में लिख दिया रहता है कि उसे सिर्फ देना ही देना है, अपनी संचित पूंजी लुटानी ही लुटानी है। चाहे उस मां की वह अपनी धन-धान्य की पूंजी हो और चाहे वह निश्छल प्यार, स्नेह, त्याग एवं श्रद्धा भरे वात्सल्य की पूंजी हो। वह इतना दे चुकी होती है कि उस पूंजी का मूलधन तो क्या उसके ब्याज के मामूली प्रतिशत को लौटाना भी उसके बच्चों के लिए इस जन्म में तो क्या अनेकों जन्म लेने पर भी संभव नहीं हो सकता है।’



 

सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित भाव से दद्चित बिहारी लाल दनोसी जी को उनकी उत्कृष्ट सामाजिक उपलब्धियों और सेवाओं के लिए 'प्रेमचन्द जन्म शताब्दी सम्मान-2007' (उत्तराखंड हिन्दी साहित्य समिति, देहरादून), 'गोविन्द चातक सम्मान-2011' (उत्तराखंड भाषा संस्थान, देहरादून) और शैलशिल्पी कर्मवीर जयानंद भारती सम्मान-2018' (शैलशिल्पी विकास संगठन, पौड़ी) प्रदान किया गया है।