!दया करो प्रभु!
देश के बड़े अखबारों ने अपने आप को संभालने की योजना लगभग तैयार कर ली है और उसे लागू भी कर दिया है। इसी क्रम में अखबारों का आकार छोटा हो गया है, दफ्तरों की संख्या कम हो गई है, 30 से 50 फीसद तक वेतन कम कर दिया है और कुछ संख्या में छंटनी भी हो गई है। यानी कोरोना के दौर में बड़े अखबारों ने अब अपने आप को लगभग साध लिया है। भारत में पहला लॉकडाउन लागू होने के बाद जितनी तेजी से अखबारों की प्रसार संख्या गिरी थी, अब उसमें कुछ सुधार दिख रहा है।
आने वाले दिनों में प्रसार संख्या में बढ़ोतरी तय है, लेकिन इस पूरे दौर में सबसे बड़ी मार उन छोटे दैनिक अखबारों पर पड़ी है जो किसी जिला मुख्यालय अथवा अन्य छोटे शहर से निकलते हैं।
इन अखबारों के सामने जो संकट आया है उसका परिणाम अगले कुछ महीनों में इनमें से ज्यादातर के बंद हो जाने के रूप में देखने को मिल सकता है। इन अखबारों की गुणवत्ता और इनमें छपने वाली खबरों के अंतर्निहित संदेश पर अलग से चर्चा हो सकती है, लेकिन इतना जरूर है कि किसी भी अखबार या पत्रिका का बंद होना भारत जैसे लोकतांत्रिक देश और समाज व्यवस्था के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है। जब जिला स्तर के छोटे दैनिक अखबार बंद होते हैं तो कहीं ना कहीं स्थानीय प्रशासन एवं स्थानीय राजनीति के उच्छृंखल होने का खतरा भी पैदा होता है। इसलिए जरूरी है कि बड़े अखबारों के साथ-साथ छोटे अखबार भी बचे रहें।
इन अखबारों के सामने इस वक्त जो सबसे बड़ा संकट है, वह वित्त से जुड़ा हुआ है और इसका समाधान उनके पाठकों के पास नहीं, बल्कि सरकार के पास है। इन अखबारों का काफी पेमेंट सरकार तथा अर्धसरकारी विभागों के पास लंबित है। इस वक्त यदि यह भुगतान इन अखबारों को जारी हो जाए तो इनके सर्वाइकल की राह अपेक्षाकृत आसान हो जाएगी। यह तो तय है कि सरकार एवं अर्धसरकारी संस्थाओं की तरफ जो बकाया राशि है उसका आने वाले दिनों में भुगतान होना ही है, लेकिन इस भुगतान की सर्वाधिक जरूरत मौजूदा समय में है।
पहले लॉकडाउन के बाद अखबारों में सरकारी एवं निजी क्षेत्र के विज्ञापन लगभग बंद हो गए थे, लेकिन चौथा लॉकडाउन लागू होते-होते सरकारी और निजी क्षेत्र के कुछ विज्ञापन अखबारों में दिखाई दे रहे हैं, लेकिन यह विज्ञापन बड़े अखबारों में ही नजर आ रहे हैं। छोटे अखबारों में इस तरह के विज्ञापन नहीं हैं, जबकि होना यह चाहिए कि सरकार को इन अखबारों की श्रेणी बनाकर उसी के अनुरूप इन्हें विज्ञापन देने चाहिए। भले ही आज के हालात में सरकार भी वित्तीय दबाव में है, लेकिन जब बड़े अखबारों को नियमित रूप से विज्ञापन दिया जा सकता है तो फिर छोटे अखबारों को भी कुछ विज्ञापन जारी होने चाहिए। सरकार एक अन्य मदद यह कर सकती है कि छोटे अखबारों को अगले 6 महीने के लिए उनकी नियमितता को लेकर छूट प्रदान कर दें। जैसे ही हालात सामान्य हों तो इस नियम को दोबारा लागू कर दिया जाए। अब तक के करीब 2 महीने के लॉकडाउन के कारण इन अखबारों के सामने कागज, इंक तथा प्लेट आदि की उपलब्धता का संकट भी पैदा हुआ है। चूंकि सरकार ने जीएसटी आदि में कई स्तर पर छूट दी है तो अखबारों के प्रकाशन में काम आने वाली सामग्री में भी कुछ हद तक अतिरिक्त छूट दी जानी चाहिए ताकि यह मीडिया माध्यम डूबने से बच सके।
गौरतलब है कि ज्यादातर छोटे अखबारों के पास अपनी प्रेस नहीं है और वे निजी प्रेसों में अखबार का प्रकाशन कराते हैं। इन प्रेसों को भी संबंधित अखबारों की तरफ से एक0-डेढ़ महीने से भुगतान नहीं मिला है इसलिए प्रेस अखबार छापने से हाथ खड़े कर रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि जिला मुख्यालयों से प्रकाशित होने वाले छोटे दैनिक अखबारों में से शायद आधे से भी कम अखबार इस वक्त प्रकाशित और प्रसारित को पा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कोरोना खत्म होते ही इनका प्रकाशन एवं प्रसारण दोबारा नियमित हो जाएगा, बल्कि कड़वी सच्चाई है कि इनमें काफी दैनिक अखबार बंद होने के कगार पर पहुंच जाएंगे।
इन अखबारों के दैनिक खर्चों में किसी तरह की कमी आने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता क्योंकि सरकार के नियमों के चलते इन्हें अनिवार्य रूप से कुछ समाचार एजेंसियों की सेवा भी लेनी पड़ती है और इन एजेंसियों को प्रतिमाह एक न्यूनतम भुगतान करना होता है। ये अखबार अपने खर्चों को कितना भी सीमित कर लें तो भी एक छोटे से कार्यालय, 4-6 लोगों के अनिवार्य स्टाफ और रिकॉर्ड आदि के रखरखाव संबंधी कार्य के लिए पैसे की नियमित रूप से जरूरत होती है। इन सब अखबारों को बचाना केवल सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि एक हद तक यह समाज की जिम्मेदारी भी है और समाज अपनी जिम्मेदारी को इस रूप में भी निभा सकता है कि वह अखबारों को खरीदना बंद ना करे।
इसके साथ-साथ सरकार को बड़े अखबारों के मामले में भी कुछ कदम उठाने की आवश्यकता है। देश के प्रधानमंत्री इंडस्ट्री से लगातार अनुरोध कर रहे हैं कि वे इस दौर में अपने कर्मचारियों की छंटनी ना करें और उनका न्यूनतम वेतन उन्हें देते रहें। यह बेहद चिंताजनक पहलू है कि देश के नामी मीडिया घरानों और उनके बड़े अखबारों में छंटनी का सिलसिला शुरू हो गया है। वेतन में कटौती की जा चुकी है और कटौती के बाद जो वेतन मिल रहा है वह भी नियमित नहीं है। सबसे बड़ा संकट जिलों और दूरदराज के स्थानों पर काम करने वाले स्ट्रिंगर्स और अंशकालिक पत्रकारों के सामने है। उन्हें मिलने वाले 5-7 हजार के मानदेय का भुगतान भी अधर में अटका हुआ है। यहां सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सरकारी एवं गैर सरकारी विज्ञापन उन्हीं अखबारों को मिलें जो अपने कर्मियों का वेतन न घटाने तथा अंशकालिक पत्रकारों को नियमित रूप से उनके मानदेय का भुगतान करने के लिए सहमत हैं। ऐसा ना करने वाले अखबारों पर सख्ती अनिवार्य है क्योंकि कोरोना जिम्मेदारी से बचकर भागने का अवसर नहीं, बल्कि अपनी जिम्मेदारी निभाने का अवसर है।