इंसानों का कहर


इंसानों का कहर



हालात उनके भी अच्छे नहीं,  
जो लौट ना पाए शहर से,
कुदरत के साथ ही जूझ रहे हैं, 
इंसानों के कहर से।
काम जिनके लिए,          
अब तक करते रहे।
अपने होने का दम, 
वो भी भरते रहे।
आपदा की घडी में यूं,
बदल जायेंगे सोचा न था।
काम के साथ यूं मकानों से भी, 
निकाले जायेंगें सोचा न था।
मीलों माप चुके पैदल ही, 
सफ़र अभी भी  जारी है।


टूटी चप्पल, छाले पैरों में, 
हिम्मत नहीं पर हारी है।
मुश्किलें हैं तमाम राहों में, 
रहें अब किसकी पनाहों में।
बेदर्दी से लट्ठ बरसाते रहे, 
दया न थी उन निगाहों में।
आस टूटी नहीं पर गिर गये,
कुछ लोग अब नजर से।
कुदरत के साथ ही जूझ रहे हैं,
इंसानों के कहर से।



 



नोटः- यह कविता काॅपीराइट के अंतर्गत आती है, कृपया प्रकाशन से पूर्व लेखिका की संस्तुति अनिवार्य है।