कौसानी के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत

||कौसानी के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत||


प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत के बचपन का नाम गुसांई दत्त था। अल्मोड़ा से आगे कोसी नदी के उद्गम शिखर भटकोट की पर्वत श्रंखला में स्थित सुरम्य स्थल कौसानी में हुआ। गांव की स्लेटी छतों के पहाड़ी घर, आंगन के सामने आडू खुबानी के पेड़, पक्षियों का कलरव, सर्पिल पगडण्डियां,बांज,बुरांश व चीड़ के पेड़ों की बयार व नीचे दूर दूर तक मखमली कालीन सी पसरी कत्यूर घाटी व उसके उपर हिमालय के उत्तंग शिखरों और दादी से सुनी कहानियों व शाम के समय सुनायी देने वाली आरती की स्वर लहरियों ने गुसांई दत्त को बचपन से ही कवि हृदय बना दिया था।मां जन्म के छः सात घण्टों में ही चल बसी थीं सो प्रकृति की यही रमणीयता इनकी मां बन गयी। प्रकृति के इसी ममतामयी छांव में बालक गुसांई दत्त धीरे- धीरे यहां के सौन्दर्य को शब्दों के माध्यम से कागज में उकेरने लगा।



 

पिता गंगादत्त उस समय कौसानी चाय बगीचे के मैनेजर थे।उनके भाई संस्कृत व अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे, जो हिन्दी व कुमांउनी में कविताएं भी लिखा करते थे।यदा कदा जब उनके भाई अपनी पत्नी को मधुर कंठ से कविताएं सुनाया करते तो बालक गुसांई दत्त किवाड़ की ओट में चुपचाप सुनता रहता और उसी तरह के शब्दों की तुकबन्दी कर कविता लिखने का प्रयास करता। बालक गुसांई दत्त की प्राइमरी तक की शिक्षा कौसानी के वर्नाक्यूलर स्कूल में हुई। इनके कविता पाठ से मुग्ध होकर स्कूल इन्सपैक्टर ने इन्हें उपहार में एक पुस्तक दी थी। ग्यारह साल की उम्र में इन्हें पढा़ई के लिये अल्मोडा़ के गवर्नमेंट हाईस्कूल में भेज दिया गया। कौसानी के सौन्दर्य व एकान्तता के अभाव की पूर्ति अब नगरीय सुख वैभव से होने लगी।



 

अल्मोडा़ की नगरीय संस्कृति व वहां के समाज ने गुसांई दत्त को अन्दर तक प्रभावित कर दिया। सबसे पहले उनका ध्यान अपने नाम पर गया। और उन्होंने लक्ष्मण के चरित्र को आदर्श मानकर अपना नाम गुसांई दत्त से बदल कर सुमित्रानंदन रख लिया। कुछ समय बाद नेपोलियन के युवावस्था के चित्र से प्रभावित होकर अपने लम्बे व घुंधराले बाल रख लिये। अल्मोडा़ में तब कई साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियां होती रहती थीं जिसमें वे अक्सर भाग लेते रहते। स्वामी सत्यदेव जी के प्रयासों से नगर में ‘शुद्व साहित्य समिति‘ नाम से एक पुस्तकालय चलता था।



 

इस पुस्तकालय से पंत जी को उच्च कोटि के विद्वानों का साहित्य पढ़ने को मिलता था। कौसानी में साहित्य के प्रति पंत जी में जो अनुराग पैदा हुआ वह यहां के साहित्यिक वातावरण में अब अंकुरित होने लगा। कविता का प्रयोग वे सगे सम्बन्धियों को पत्र लिखने में करने लगे।शुरुआती दौर में उन्होंने बागेश्वर के मेले,वकीलों के धनलोलुप स्वभाव व तम्बाकू का धुंआ जैसी कुछ छुटपुट कविताएं लिखी। आठवीं कक्षा के दौरान उनका परिचय प्रख्यात नाटककार गोविन्द बल्लभ पंत,श्यामाचरण दत्त पंत,इलाचन्द्र जोषी व हेमचन्द्र जोशी से हो गया था। अल्मोडा़ से तब हस्त लिखित पत्रिका ‘सुधाकर‘ व ‘अल्मोडा़ अखबार‘ नामक पत्र निकलता था जिसमें वे कविताएं लिखते रहते। अल्मोडा़ में पंत जी के घर के ठीक उपर स्थित गिरजाघर की घण्टियों की आवाज उन्हें अत्यधिक सम्मोहित करती थीं अक्सर प्रत्येक रविवार को वे इस पर एक कविता लिखते।



 

‘गिरजे का घण्टा‘ शीर्षक से उनकी यह कविता सम्भवतः पहली रचना है-



"नभ की उस नीली चुप्पी पर

घण्टा है एक टंगा सुन्दर

जो घड़ी घड़ी मन के भीतर

कुछ कहता रहता बज बज कर"।



 

दुबले पतले व सुन्दर काया के कारण पंत जी को स्कूल के नाटकों में अधिकतर स्त्री पात्रों का अभिनय करने को मिलता।1916 में जब वे जाड़ों की छुट्टियों में कौसानी गये तो उन्होंने ‘हार‘ षीर्षक से 200 पृष्ठों का एक खिलौना उपन्यास लिख डाला। जिसमें उनके किशोर मन की कल्पना के नायक नायिकाओं व अन्य पात्रों की मौजूदगी थी। कवि पंत का किशोर कवि जीवन कौसानी व अल्मोडे़ में ही बीता था इन दोनों जगहों का वर्णन भी उनकी कविताओं में मिलता है।



"कौश हरित तृण रचिततल्प पर

सातप वनश्री लगती सुन्दर,

नील झुका सा रहता उपर,

अमित हर्ष से उसे अंक भर।" ( कौसानी )



"लो,चित्र शलभ सी पंख खोल

उड़ने को है कुसुमित घाटी यह है

अल्मोडे़ का बसन्त,

खिल पड़ी निखिल पर्वत पाटी" ( अल्मोडा़ )



 

वर्ष 1918 में कवि पंत अपने मझले भाई के साथ आगे की पढा़ई के लिये बनारस व प्रयाग चले गये और वहीं रहकर साहित्य साधना में जुट गये। चिदम्बरा, वीणा,ग्रन्थि, पल्लव,गुंजन, युगान्त, युगवाणी,ग्राम्या (काव्य ग्रन्थ), लोकायतन (महाकाव्य) , ज्योत्सना(नाटक) व हार(उपन्यास) जैसी कृतियों की रचना कर प्रकृति का यह सुकुमार कवि आज ही के दिन यानी 28 दिसम्बर 1977 को चिरनिद्रा में सदा के लिये लीन हो गया।



 

कुमाउनी में लिखी उनकी एकमात्र कविता ‘बुंरुश‘ की यह सुंदर पंक्तियां उनके लिये सटीक बैठती हैं।



"सार जंगल में त्वी जस क्वे न्हां रे

फुलन छै के बुरुंश

जंगल जस जलि जां, सल्ल छ,

द्यार छ, पंई छ, अंयार छ,

सबनाक फांगन में पुंगनक भार छ,

पै त्वी में ज्वानिक फाग छ,

रगन में त्यार ल्वे छ,

प्यारक खुमार छ।"



अर्थात अरे बुरांश सारे जंगल में तेरा जैसा कोई नहीं है तेरे खिलने पर सारा जंगल डाह से जल जाता है, चीड़,देवदार, पदम व अंयार की शाखाओं में कोपलें फूटीं हैं पर तुझमें जवानी के फाग फूट रहे हैं,रगों में तेरे खून दौड़ रहा है और प्यार की खुमारी छायी हुई है