केदार सिंह फोनिया : अध्येता, नीति नियंता, प्रशासक, उद्यमी और राजनीतिज्ञ


||केदार सिंह फोनिया : अध्येता, नीति नियंता, प्रशासक, उद्यमी और राजनीतिज्ञ||





‘‘.... मेरा जीवन संघर्षमय रहा। ऐसा नहीं है कि जीवन - यात्रा की शुरूआत के लिए मुझे किसी चीज की कमी रही हो। लेकिन मार्गदर्शन और संपर्क साधनों की हमेशा कमी रही। इसलिए मुझे स्वयं भटकते हुए इस संघर्षमय जीवन - पद्धति में आगे बढ़ने के लिए रास्ता ढूंढना पड़ा।.... मैं आवश्यकता से अधिक आत्मविश्वासी रहा हूंगा। इसीलिए नौकरी छोड़ना, धन संग्रह के लिए अच्छे अवसरों को ठुकराना, मेरी जिन्दगी की आदत सी बन गयी थी। लेकिन ऐसा करने से मैंने सब कुछ खोया भी नहीं था। इस प्रकार की जीवन - शैली से मुझे बहुत कुछ मिला भी है।.... मेरे लिए जिन्दगी में क्या मिला, यह महत्वपूर्ण नहीं है। मेरे लिए तो यह महत्वपूर्ण रहा कि मैंने समाज के लिए क्या किया।’’ पृष्ठ - 22



 

अध्येता, नीति नियंता, प्रशासक, उद्यमी और राजनीतिज्ञ केदार सिंह फोनिया जी ‘बदलते पहाड़ और बदलता जीवन’ आत्मकथा पुस्तक में उक्त पंक्तियों के माध्यम से अपने जीवन - सार को रेखांकित - उजागर करते हैं। मुझे लगता है कि उनके नजदीकी भी उनके बारे में उक्त जैसा ही विचार रखते हैं। व्यक्ति की अपने बारे में सोच और जगत की उसके बारे में सोच की साम्यता एक जीवनीय आदर्श की स्थिति है। इस मायने में फोनिया जी का बहुआयामी व्यक्तित्व विशिष्ट सार्वजनिक पहचान बनाने में सफल - लोकप्रिय रहा है।



 

बात, फरवरी, 1969 के विधानसभा चुनाव के दौरान की है। जोशीमठ के बाजारों में हम बच्चे दिन - भर ‘जीत्तेगा भई जीत्तेगा, केदार सिंग फुन्या जित्तेगा’ चिल्लाते रहते। इस लालच में कि खूब सारे टीन के चुनावी बिल्लों को झटक सकें। चुनाव प्रचारकों से मिलने वाली चुपचाप लमचूसों पर भी हमारे नजर रहती। विरोधी खेमे वाले लोग ‘फुन्या जीतेगा’ कहने पर हमको दलका ( दौड़ा ) भी देते थे। वैसे सभी उम्मीदवारों के बिल्ले हमारी जेबों में ठुंसे रहते। हम बड़े - बुजुर्गों से सुनते कि दिल्ली से बड़ी नौकरी छोड़कर आया ‘फुन्या’ जीतेगा। पर फोनिया जी अपना वो पहला चुनाव हार गए थे।



 

हम बच्चों को उनकी जीत - हार से क्या मतलब? उनके नए - नए बने ‘होटल नीलकंठ’ में आये विदेशियों को सड़क से निहारना पहले की तरह हमारी रोज की दिनचर्या में शामिल था। नज़दीक जाने की हिम्मत इसलिए नहीं होती कि विदेशी अंग्रेजी में पूछेगें तो हम क्या जबाब देगें? इसलिए चमचमाते होटल और गोरे विदेशियों का दूर से ही नयन - सुख लेना हमारी मजबूरी थी। सही बात तो यह थी कि ‘होटल’ ही हमने पहली बार देखा - सुना था अब तक तो ‘धर्मशाला’ और ‘यात्रियों के लिए कमरा’ हमारी जानकारी में था।



 

बाद में, फोनिया जी की किताब ‘Uttarakhand - Garhwal Himalayas’ ( सन् 1977 ) से उनको और उनकी विद्वता को जाना। संभवतया पर्यटन के दृष्टिगत गढ़वाल के बारे में यह प्रथम व्यवस्थित किताब है। वर्ष 1991 में पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री, उप्र सरकार रहते हुए उत्तराखंड में बारहमासी तीर्थाटन का एक नया विचार देकर वे चर्चा में आये। यह भी महत्वपूर्ण है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए तत्कालीन उप्र सरकार ने जो 2.77 हैक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया उसके सभी प्रपत्रों को उप्र सरकार की ओर से बतौर पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री केदार सिंह फोनिया जी के हस्ताक्षर से ( दिनांक 20 अक्टूबर, 1992 ) जारी किया गया था। ‌तब वे देश - दुनिया में चर्चित हुए थे।



 

उत्तराखंड राज्य बनने पर वे राजनेता के रूप में अक्सर राजनैतिक अटकलों के केन्द्र में जरूर रहे परन्तु राजनैतिक अवसरों ने हमेशा उनसे परहेज ही किया। जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी उन्होने अपनी प्रतिभा - योग्यता को साबित किया। परन्तु हर बार शीर्ष उपलब्धियां उन तक आते - आते ठहर जाती थी। ऐसा क्यों हुआ होगा? ये जानने के लिए चलिए उनकी जीवन - यात्रा के शुभारंभ से उनके साथ - साथ चलते हैं।



 

‘चांदपुर गढ़ी के राजा ने कांसुवा के कुंवर जाति के एक व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि बनाकर तिब्बत भेजा था जिसको गढ़वालियों ने ‘फुन्दिया’ नाम से पुकारा। यही ‘फुन्दिया’ कुछ समय बाद व्यापार के लाभ से प्रभावित होकर गमसाली गांव में बस गया, जिसके वंशज आज ‘फोनिया’ हैं।’ पृष्ठ - 26



 

गढ़वाल हिमालय की नीति घाटी का एक गांव है गमसाली ( समुद्रतल से ऊंचाई 10000 फीट )। यहां के लोग अप्रैल से सितम्बर तक गमसाली और अक्टूबर से मार्च तक छिनका गांव में रहा करते हैं। ( यद्यपि अब इस प्रचलन में बहुत कमी आयी है। ) भारत - चीन युद्ध ( सन् 1962 ) से पहले गमसाली गांव गढ़वाल से पश्चिमी तिब्बत की ओर किए जाने वाले व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। यहीं के प्रतिष्ठित दम्पति माधोसिंह - कृष्णा देवी के पुत्र केदार सिंह फोनिया जी का जन्म 27 मई, 1930 को गमसाली में हुआ।



 

गांव के प्राथमिक विद्यालय में कक्षा 4 तक पढ़ने के बाद 5 से 7 तक केदार की शिक्षा जोशीमठ में हुई। पारिवारिक परिचित विद्यादत्त जी के साथ आगे की पढ़ाई के लिए जून, 1944 में 9 दिन निरंतर पैदल चलने के बाद गमसाली गांव से पौड़ी पहुंचा 14 वर्षीय केदार पूरे एक साल तक घर वापस नहीं आया। मेसमोर हाईस्कूल, पौड़ी से सन् 1948 में दसवीं ( प्रथम श्रेणी ) एवं डी. ए. वी, देहरादून से सन् 1951 में इंटर ( प्रथम श्रेणी ) करने बाद सन् 1953 में बीएससी और सन् 1955 में ‘प्राचीन भारत का इतिहास एवं भारतीय दर्शन’ विषय में एमए की उपाधि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने हासिल की।



 

इलाहाबाद से सन् 1955 में एमए करने के तुरंत बाद नौकरी की तलाश में फोनिया जी का दिल्ली आना हुआ। अप्रैल, 1956 में पर्यटन विभाग, भारत सरकार में सूचना सहायक के पद पर चयन के उपरान्त उनकी प्रथम नियुक्ति बनारस में पर्यटन सूचना कार्यालय में हुई। बौद्ध धर्म एवं दर्शन में गहन जानकारी उनके काम आई। मात्र 2 साल में उनकी बहुमुखी प्रतिभा को पहचानते हुए पर्यटन विभाग ने सन् 1958 में उनकी तैनाती बनारस से कोलम्बो ( श्रीलंका ) में स्थित भारतीय दूतावास कार्यालय में कर दी थी। कोलम्बो से सन् 1962 में सहायक निदेशक, पर्यटन के पद पर वे दिल्ली स्थानान्तरित हुए। सन् 1962 में भारत - चीन युद्ध के दौरान पूरे देश में पर्यटन गतिविधियां ठ्प्प होने के कारण अन्य सरकारी अभिकर्मियों की तरह फोनिया जी को भी देश की ‘टेरिटोरियल आर्मी’ का सैनिक बना दिया गया। देश की स्थितियां सामान्य होने बाद वे अपने पूर्ववत सरकारी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने लगे थे। वर्ष- 1963 में उन्होने 4 माह का अवैतनिक अवकाश लेकर निजी कम्पनी ‘नेपाल टेवल एजेन्सी’, काठमांडू में बतौर संस्थापक मैनेजर काम किया।



 

देश में पर्यटन विकास को नया आयाम देते हुए सन् 1965 में भारतीय पर्यटन विकास निगम ( आईटीडीसी ) का गठन किया गया। फोनिया जी आईटीडीसी के उत्तरी क्षेत्र के संस्थापक प्रबंधक पद पर नियुक्त हुए। उनकी कार्यकुशलता रंग लाई और वेे वर्ष 1966 में 8 माह के अन्तराष्ट्रीय पर्यटन डिप्लोमा, प्राग ( चेकोस्लोवाकिया ) के लिए चयनित हो गए। प्राग, चेकोस्लोवाकिया में डिप्लोमा प्रशिक्षार्थी के रूप में उन्हें जिनेवा, फ्रैंकफर्ट, पेरिस और लंदन की अध्ययन यात्रा करने का अवसर मिला।



 

प्राग ( चेकोस्लोवाकिया ) से वापस आने के बाद देश के प्रमुख पर्यटन नीति -नियंताओं में उनकी पहचान बनने लगी। मार्च, 1967 में वे अपने घर छिनका आये तो जोशीमठ में होटल बनाने की धुन सवार हो गई। देश - दुनिया से हासिल अनुभवों और ज्ञान ने उन्हें अपने पैतृक परिवेश में उद्यमिता की एक नई राह बनाने की ओर प्रेरित किया। इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ते हुए वर्ष - 1968 से होटल ‘नीलकंठ’ जोशीमठ में सफलतापूर्वक संचालित होने लगा। नौकरी से इतर एक स्थानीय उद्यमी के रूप में उनकी पहाड़ी जीवन से अब और नजदीकियां होने लगी। फोनिया जी के मन - मस्तिष्क में बार - बार यह विचार कौंधता कि यूरोप से भी अधिक नैसर्गिक सुंदरता को लिए हमारे उत्तरांखड के लोगों का जन - जीवन इतना विकट क्यों है? क्षेत्र के समग्र विकास की राजकीय नीतियों में दूरदर्शिता का अभाव इसका प्रमुख कारण उनकी समझ में आता था। बस, इसी सूत्र से उनके जीवन की डगर ने करवट बदली। युवा - प्रफुल्लित फोनिया जी के मन - मस्तिष्क ने एक नया सपना देखा। और उस सपने को साकार का समय भी बिल्कुल सामने ही था।



 

उत्तर प्रदेश में जनवरी - फरवरी, 1969 में मध्यावधि विधानसभा चुनाव घोषित हुए। फोनिया जी को लगा जीवन का सर्वोत्तम वे राजनीति में योगदान देकर हासिल कर सकते हैं। करीबी मित्रों ने हौंसला दिया और वे निर्दलीय विधायक प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने राजनीति के मैदान में उतर गए। राजनीति की चालाक राह व्यक्ति को लालच और भ्रम में रखती हुई सरल दिखती तो जरूर है पर उसकी दुरूहता को जीतने की कला कुछ विरलों के पास ही होती है। राजनैतिक तिकड़मबाजी की कला से वे बहुत दूर थे। लिहाजा फोनिया जी चुनाव हार गए। अब सारा ध्यान उन्होने होटल व्यवसाय में लगाना शुरू किया। बिडम्बना देखिए, जून, 1970 में बेलाकूची की तबाही और जून 1971 को गौंणाताल के टूटने से सीमान्त क्षेत्र का सारा जन - जीवन तहस - नहस हो गया। यात्रा - पर्यटन के ठ्प्प होने से उनका होटल व्यवसाय शिथिल हो गया। सन् 1969 से 1971 तक इसके अलावा अन्य कई जीवनीय घनघोर विप्पत्तियों से घिरे रहे पर वो टूटे नहीं, हिम्मत से काम लिया।



 

फोनिया जी ने पुनः नौकरी करने की दिशा में कदम बढ़ाये। प्रतिभा, हुनर और अनुभव ने उनका साथ दिया। वे अगस्त, 1971 में नवगठित पर्वतीय विकास निगम, उप्र में डिविजनल मैनेजर ( पर्यटन ) और 1973 में जनरल मैनेजर बने। इस दौरान उत्तराखंड में पर्यटन, उद्योग और विपणन के क्षेत्र में उन्होने सराहनीय कार्य किया। उत्तराखंड में पैकेज टूअर्स, शीतकालीन रिर्जाट और क्रीड़ा स्थल, औली रज्जू मार्ग निर्माण, ऋर्षीकेश में वुडवूल फैक्ट्री, तिलवाड़ा रोजिन एवं टरपनटाइन फैक्ट्री, फ्लैश डोर, कोटद्वार, टूरिस्ट रेस्ट हाउस, रिवर राफ्टिंग, चमोली जिले की विद्युत व्यवस्था को राष्ट्रीय ग्रिड से जोडवाना आदि कार्यों में उनकी अग्रणी भूमिका रही थी।



 

उप्र सरकार ने सन् 1976 में पर्वतीय विकास निगम को दो भागों में विभक्त कर गढ़वाल विकास निगम और कुमायूं विकास निगम बना दिया। फोनिया जी इस सरकारी निर्णय से बहुत आहत हुए। बाद के अनुभव साबित करते हैं कि सम्पूर्ण उत्तराखंड के समग्र विकास के दृष्टिगत यह अव्यवाहारिक और घातक निर्णय था। फोनिया जी को यह भी कष्ट हुआ कि वर्ष 1974 में पर्यटन विभाग, भारत सरकार के निदेशक पद को छोड़कर वे पर्वतीय विकास निगम के जरिए उत्तराखंड में अनेकों विकास कार्य-योजनाओं को क्रियान्वित करना चाहते थे। गढ़वाल मंडल विकास निगम में जनरल मैनेजर के रूप में अपनी सेवाये देते हुए फोनिया जी सन् 1979 में भारतीय वाणिज्य निगम में चीफ मार्केटिंग मैनेजर बन कर दिल्ली आ गए। सन् 1982 में वे भारतीय वाणिज्य निगम के जनरल मैनेजर बने और वर्ष 1988 में उन्होने अवकाश ग्रहण किया। उसके बाद सन् 1989 में सीता वर्ल्ड टेवल्स में ‘टूअर लीडर’ के रूप में उन्होने काम करना शुरू किया।



 

फोनिया जी ने वर्ष 1991 में भाजपा से राजनीति में पुनः प्रवेश किया। वे इसी वर्ष उप्र विधान सभा के विधायक और पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री उप्र. सरकार हुए। इसके बाद सन् 1993 और सन् 1996 में वे लगातार विधानसभा चुनाव जीते। नव - गठित राज्य की अन्तिरिम सरकार में वे पर्यटन और उद्योग मंत्री रहे। वर्ष 2002 का चुनाव वे हारे परन्तु वर्ष 2007 में वे पुनः विधायक निर्वाचित हुए। वर्ष 2012 के चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में वे विधायक चुनाव हार गए।



 

केदार सिंह फोनिया जी की उक्त जीवनीय यात्रा के विविध पड़ाव उनके व्यक्तित्व और कृृतित्व के बहुआयामी मिजाजों को इंगित करते हैं। ये बात तो तय है कि वे जीवन में हर बार पहले से बेहतर करने की सजगता के साथी रहे हैं। यही सजगता उनको जीवन - भर अनेक दिशाओं में गतिशील बनाए रखी। बंधे - बधाए रास्तों पर चलने की प्रवृत्ति को तो उन्होने बचपन में ही विदा कर दिया था। तभी तो 14 वर्षीय बालक केदार आगे पढ़ने की ललक से वशीभूत होकर अनजान रास्तों पर न डरा - थका बस 9 दिन चलता ही रहा। समृद्ध पैतृक व्यवसाय का आर्कषण भी उनकी आगे और पढ़ने की अभिरुचि को नहीं रोक पाया था।



 

चलो, बात करते हैं उनकी व्यापारिक तिब्बत यात्रा की जिसके बाद उन्होने पैतृक व्यवसाय को अलविदा कहकर उच्च अघ्ययन की राह पर चलने का निर्णय लिया था।



 

हाईस्कूल पास करने के बाद विचार आगे पढ़ने का था। परन्तु अपने पिता से कहने में संकोच आड़े आ गया। स्थिति यह थी कि 2 साल पहले जब वे कक्षा 8 में पढ़ते थे, तब उनकी शादी हो गई थी। अतः पारिवारिक जिम्मेदारियों का भी उन्हें ख्याल था। मजबूरन, पिताजी के आदेश को मानते हुए वे जून, 1948 की पारिवारिक व्यापारिक तिब्बत यात्रा में शामिल हुए। इस यात्रा का रोचक विवरण देते हुए फोनिया जी लिखते हैं कि ’’गमशाली ( समुद्रतल से ऊंचाई 10000 फीट ) से तिब्बत की ओर पैदल यात्रा का पहला पड़ाव 8 किमी. दूर काला जाबर ( समुद्रतल से ऊंचाई 12000 फीट ) है। काला जाबर से चोरहोती का धूरा ( समुद्रतल से ऊंचाई 17500 फीट ) होते हुए बाड़ाहोती ( समुद्रतल से ऊंचाई 12500 फीट ) 12 किमी़ और बाड़ाहाती से तुनजेन ला 4 किमी. है। भारत में सीमान्त क्षेत्र के व्यापारिक रास्तों को ‘दर्रे’ और तिब्बत में ‘ला’ का संबोधन है। भारत और तिब्बत की सीमा रेखा पर स्थित तुनजेन ला से नीती 24 किमी. दूर है। यह नीति से तिब्बत की ओर जाने का प्रवेश द्वार है। नीति से पश्चिमी तिब्बत की ओर पहली मंडी दाफा है। यहां दाफा जोंग नाम से स्थानीय प्रशासक रहता था। पश्चिमी तिब्बत के दाफा से आगे गारतोक मंडी में भारतीय व्यापारी अपने कुछ पशुओं को तिब्बत में भी रखते थे, उनकी देख -रेख उनके तिब्बती व्यापारिक मित्र करते थे। भारतीयों की इस सम्पत्ति को 'कोरबा' कहा जाता था। तब तिब्बत में चीनी शासन नहीं फैला था परन्तु उसकी आहट होने लगी थी। ( सन् 1956 में भारत - तिब्बत व्यापार पूरी तरह बंद हो गया था।) दाफा के बाद गारतोक, चोजो और बौंगबा मंडी में हम पहुंचे थे। यात्रा की भीषण कठिनाईयां, खम्पा डाकुओं का भय, साथ में हजारों भेडें, सैंकडों चवंर गायें, पचासों घोडे -खच्चर, जगंली जानवरों के हमले का डर, तिब्बत की पठारी जलवायु, बर्फ से लकदक रास्ते, बीहड़ उतार - चढ़ावों को देख कर मैं सोचता क्या कभी यहां सड़क मोटर मार्ग से व्यापार हो पायेगा। गमसाली से जौ, चावल, गेहूं, चीनी, मेवे, गुड, किसमिस और तिब्बत से नमक, ऊन, घी, मख्खन, छुरबी ( सुखाया पनीर ) आदि का वस्तु - विनिमय करते हुए सितम्बर, 1948 को वापस अपने गांव गमसाली पहुंचे। ( ज्ञातत्व है कि उस दौर में सड़क न होने के कारण समुद्री नमक उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में नहीं आ पाता था इसलिए उत्तराखंड में ज्यादातर तिब्बत के चट्टानी खदानों से निकलने वाला नमक ही प्रयुक्त होता था। सन् 1962 तक नीति एवं माणा ( चमोली गढ़वाल ), नेलंग ( उत्तरकाशी ) और गुंजी एवं मिलम ( पिथौरागढ़ ) की ओर होने वाले आवागमन का प्रमुख आधार तिब्बत से आने वाला नमक एवं ऊन था। )’’ पृष्ठ 30-39



फोनिया जी के दिलो - दिमाग में तिब्बत की उक्त यात्रा ने कई सबक और प्रश्नों से उन्हें परिचित कराया। विशेषकर, भारत - तिब्बत के आपसी आर्थिक - सांस्कृतिक पैतृक रिस्तों और उनकी संवेदनशीलता का जिक्र उन्होने अपनी आत्मकथा में किया है। अपने तिब्बती मित्र करमा से हुई बातचीत इसकी एक बानगी है। जून, 1948 को तिब्बत व्यापारिक यात्रा के दौरान दाफा मंडी में धनी व्यापारी अंगदू के पुत्र करमा से उनकी मुलाकात हुई थी। उसी करमा मित्र से 17 साल बाद सन् 1965 में मलारी में उनकी अचानक भेंट हुई थी। तब तक गढ़वाल - तिब्बत व्यापार बंद हो चुका था। तिब्बत में चीन का आधिपत्य हो जाने से सैंकड़ों लोग भाग कर भारत की शरण में आ गए थे। फोनिया जी लिखते हैं कि '‘एक व्यक्ति ने अपना नाम करमा बताया। यह वही करमा था, जिसके दाफा मंडी वाले घर के पास वर्ष 1948 में मैंने अपने व्यापारी कैम्प के कुछ दिन बिताये थे। चीन ने अपना पहला प्रहार धनी व्यक्तियों और धार्मिक गुरुओं पर किया। करमा ने दुभाषिये के माध्यम से बताया कि उनके धनाढ्य पिता अंगदू रबटुग को चीनी सैनिक गिरफ्तार करके बीजिंग ले गये। उसने जिलाधिकारी को बताया कि उनके साथ आयी लगभग 900 भेड़ों में से 300 भेड़ें और 15 चंवर गायें माधोसिंह फोनिया ( मेरे पिताजी ) के 'कोरबा' के जानवर हैं, शेष उनके अपने। मुझे पुरानी बात याद आयी। दुभाषिये के माध्यम से मैंने करमा को अपना परिचय दिलाया। सुनकर करमा की आखों में आंसू आ गए, हाथ मिलाया और मित्रता का परिचय दिया। मैंने दुभाषियों की साहयता से करमा को संदेश दिया कि यदि वह छिनका में रहना चाहें तो मैं उनकी रहने की मदद कर सकूंगा। करमा का उत्तर था कि अब वह शरणार्थी है और भारत सरकार की शरण में है। भारत सरकार जहां भेजेगी, वहीं जाना उचित होगा। भारत सरकार ने इन सभी शरणार्थियों को मैसूर भेज दिया था। इसके पश्चात न मैं कभी करमा को मिल पाया, न उसकी कोई खबर मुझे मिली।'’ पृष्ठ - 37



 

उक्त किस्से की तरह इस किताब में तिब्बत और उससे जुडे भारतीय क्षेत्र सिक्किम, उत्तराखंड, हिमाचंल प्रदेश तथा लद्दाख की सदियों पुरानी साझी सांस्कृतिक विरासत - निर्भरता, भारत से बौद्ध धर्म का तिब्बत की ओर जाना, भारत - तिब्बत के आपसी रिश्तों में कैलाश मानसरोवर यात्रा आदि का रोचकता से जिक्र है। भौगोलिक दृष्टि से कैलाश और मानसरोवर तिब्बत में हैं परन्तु सांस्कृतिक - धार्मिक दृष्टि से भारतीय जन-जीवन के अभिन्न अंग वहां महसूस किए जाते हैं। सन् 1956 से पूर्व तो कैलाश मानसरोवर जाने के लिए भारतीयों को वीजा - पासपोर्ट की जरूरत ही नहीं होती थी। वर्तमान में मानसरोवर यात्रा के लिए स्थापित मार्ग दिल्ली - धारचूला लिपुलेख ( 693 किमी. ) है। भारत सरकार को फोनिया जी ने वर्ष - 2012 में उत्तराखंड से मानसरोवर यात्रा के 3 वैकल्पिक मार्गों यथा- दिल्ली - बाड़ाहाती ( 585 किमी. ), दिल्ली - नीतिपास ( 590 किमी. ) और दिल्ली - माणापास ( 528 किमी. ) की विस्तृत कार्ययोजना बनाकर प्रस्तुत की थी। इस प्रस्ताव में उन्होने बताया है कि दिल्ली से कैलास मानसरोवर जाने का सबसे कम दूरी वाला मार्ग माणा ( बद्रीनाथ ) से है। उन्होने प्रधानमंत्री जी को सुझाव दिया कि माणा और नीति घाटी से तिब्बत व्यापार अगर सड़क मार्ग से जुड़ जाय तो इसके विश्वव्यापी सकारात्मक प्रभाव होंगे।



 

संभवतया, उत्तराखंड में वर्तमान दौर के वरिष्ठ राजनेताओं में केदार सिंह फोनिया ही हैं जिन्होने आत्मकथा लिखी है। इसके साथ ही उत्तराखंड के ( राजनैतिक परिदृश्य के केन्द्र में उनकी 3 किताबें ( उत्तराखंड या उत्तरांचल, उत्तराचंल राज्य निर्माण का संक्षिप्त इतिहास और उत्तरांचल से उत्तराखंड के बारह वर्ष ) प्रकाशित हुई हैं। उत्तराखंड के राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में फोनिया जी के संस्मरण पाठकों के लिए रोचक, खोजपरख और प्रासंगिक हैं। इनमें वर्तमान शासन - प्रशासन तंत्र की असफलतायें, खींच - तान एवं अदूरदर्शिता के किस्से हैं। उत्तराखंड की राजनीति एवं राजनेता दिल्ली में अपनी पार्टी और सरकार के सामने किस तरह नतमस्तक रहते हैं, इसके किस्से दर किस्से हैं। राजनीति में व्यक्ति और उसकी जाति के आपसे रिश्तों का गणित इनमें समझा जा सकता है। क्या बिडंबना है कि अपनी सामान्य दिनचर्या में जिस जाति से व्यक्ति कोई ज्यादा वास्ता नहीं रखता, परन्तु वह उसके जीवनीय उपलब्धियों विशेषकर राजनैतिक अवसरों को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। फोनिया जी अपने विरोधियोें और नुकसान पहुंचाने वालों के प्रति भी सहृदता का भाव जताते नजर आते हैं, पर अपनी खीज तो बयां कर ही देते हैं।



 

फोनिया जी का राजनैतिक जीवन उतार - चढ़ाव का रहा है। समय - समय पर मुख्यमंत्री अथवा मंत्री बनने के आते - आते अवसरों का अचानक गायब होना उनको अचरज करता रहा है। परन्तु हर बार उनमें विराजमान मौलिक धार्मिक सन्तोषी प्रवृत्ति उनको इन संकटों से उभार देती है। ये अजब संयोग है कि राजनैतिक प्रभावशाली पदों से इतर उनका व्यक्तित्व बिखरा नहीं और अधिक निखरा हुआ दिखाई देता है। क्योंकि मूलतः वे अध्येता, नीति - नियंता और उद्यमीय गुणों के स्वामी हैं। राजनैतिक पैंतरेबाजी और कूटनितिज्ञता से उनका दूर से भी रिश्ता नहीं रहा है। राजनीति में तो ‘फोन्या न कुछ बोन्या, न कुछ कन्या’ की छवि हमेशा उनके व्यक्तित्व का पीछा करती रही है। इसका कारण यह है कि उनके व्यक्तित्व के विविध आयामों में आपसी पूरकता - साम्य नहीं बन पाया। इसीलिए एक अलग तरह का एकांत उनके आस-पास हर समय मौजूद रहा है।



फोनिया जी की लिखीं कई बेहतरीन किताबें उनकी सृजनशीलता को उद्घाटित करती हैं। उनकी किताबों को अकादमिक जगत में सराहा गया है। ‘उत्तराखंड गढ़वाल हिमालय’, ‘उत्तराखंड के धार्मिक एवं पर्यटन स्थल’ (राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार), ‘वैली ऑफ फलावर’, ‘टैवर्लस गाइड टू उत्तराखंड’, ‘उत्तराखंड या उत्तरांचल’, ‘उत्तरांचल राज्य निर्माण का संक्षिप्त इतिहास’ ‘उत्तरांचल से उत्तराखंड के बारह वर्ष’ आदि उनकी महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं।



 

फोनिया जी की आत्मकथा के माध्यम से कई लोकप्रिय व्यक्तित्वों यथा - बाला सिंह पाल, माधोसिंह फोनिया, नयन सिंह फोनिया, मंगल सिंह पाल, इंद्र सिंह पाल, कलुन छोनदेन, अंगदू रबटुग, करमा रबटुग, बालकृष्ण भट्ट, जयंती प्रसाद डिमरी, पूरण सिंह मेहता, प्रताप सिंह पुष्पाण, सुरेन्द्र सिंह पांगती, वैद्यराज श्रीकृष्ण किमोठी, बचीराम आर्य, राजनेता भक्तदर्शन आदि के प्रेरणादाई प्रसंग पहाड़ के लोगों की जीवटता और ईमानदारी को बताते हैं।



 

वास्तव में, केदार सिंह फोनिया जी की जीवन यात्रा एक अध्येता की तरह रही है। जिसमें निरंतर अध्ययन और अपने काम के प्रति समर्पण का स्थाई भाव उनमें हमेशा मौजूद रहा है। उनका कार्य क्षेत्र देश - दुनिया में व्यापकता और विभिन्नता लिए रहा है। विदेशों में लम्बे समय तक कार्य करने और अनेक देशों में अध्ययन यात्राओं यथा- श्रीलंका, मालदीव, कुवैत, जिम्बावे, नेपाल, अफगानिस्तान, वियतनाम, दक्षिण अफ्रिका, मौरीशस, भूटान, फ्रान्स, स्वीजरलैंड आदि के दौरान उनके चिंतन के केन्द्र में उत्तराखंड के पहाड़ और पहाड़वासी ही रहे हैं। इस मायने में उनकी आत्मकथा उत्तराखंड के सीमान्त क्षेत्रों में विकास - यात्रा की भी आत्मकथा है।