कोरोना और नए ज़माने के पंडे

||कोरोना और नए ज़माने के पंडे||

 

आर्थिक सुस्ती से उत्पन्न बेरोजगारी और दूसरी तरफ हिंदूवादी राजनीति के उभार के साथ हमें छोटे-बड़े नगरों में पंडों की नई फ़ौज खड़ी दिखी थी. कर्मकांड सिखाने वाले विद्यालय और विश्वविद्यालय खचाखच भर गए थे.

 

नए पंडे बहुरूपिये थे. खुद के जीवन में निखालिस भौतिकवादी और काम धर्म के महिमामंडन का. जिस कस्बे में मैं रहता हूँ वहां पंडों की बाकायदा कंपनियाँ और रजिस्टर्ड संस्थाएं बन गईं. पंडों ने जजमानों के लिए रोज ब रोज पूजा-पाठ-कर्मकांड का कैलेंडर सेट कर लिया. एक बड़े पंडे के अधीन 20-20 पंडे. किसी को नामकरण के लिए भेज रहे तो किसी को क्रियाशाळा दौड़ा रहे. साल का कोई दिन रहा हो जिस दिन कोई पूजा का दिन सेट न हो. बड़ा पंडा भागवत कथा कर रहा था, छोटा गौमाता की पूँछ पकड़वा रहा था. नव-धनाड्यवर्ग उन पर फ़िदा था.

 

दक्षिणा में किसी को सोने की अंगूठी मिल रही थी, किसी को बाइक तो किसी को चमाचम कार.

मनपसंदीदा ग्राहक थे रेता-बजरी और शराब के माफिया.

पंडे खुद युवा थे लेकिन इनके निशाने पर महिलाएं और बुजुर्ग सबसे ऊपर थे. युवा दम्पत्तियों के लिए ये ई-पूजा का प्रावधान कर चुके थे.

 

यदि तंत्र, मंत्र, पामिस्ट्री आती तो सोने पे सुहागा.

कुछ स्मार्ट पंडे बड़े नगरों में भी जाते. कुछ इस्कोन जैसे कार्पोरेट मंदिरों में नौकरी पा रहे थे तो कुछ विदेश भी पहुँच जा रहे थे. संस्कृत आए न आए यदि थोड़ी बहुत अंग्रेजी आए तो जजमान की नजर में पंडा अवतार की तरह था.

 

इनके पास स्मार्ट फोन थे. कई बार तो जजमान से वह डाटा पैक रिचार्ज करवाते तो फिर पूजा की फीस न माँगते.

 

किसी किसी के पास कार भी थीं. कुछ को तो जजमान की कार घर लेने आती. इफरात की आमदनी और धर्म की सेवा का महात्मय भाव लिए युवा पंडे अपनी गर्ल फ्रेंड और बीबी के साथ जींस में ही दिखते.

मगर, कमीने कोरोना ने इतनी फलती-फूलती अर्थव्यवस्था पर ऐसा प्रहार किया है कि कोई जजमान नहीं पूछ रहा. जजमान खुद को संभाले या इन्हें. ईश्वर को मदद करनी ही होगी तो किसी बिचौलिए के बगैर भी वह कर देगा.

 

मगर, जजमान को भले ही थोड़ा संशय हो पंडों को बिल्कुल नहीं कि कोरोना का तोड़ कहीं से आएगा तो वो आएगा लैब से ही. पंडों का भविष्य लैब पर निर्भर है. भगवान् लैब में बिना किसी अनिष्ठ के ठब ठीक से हो जाए!