कोरोनाकाल में संकट और भेद आमने सामने 

||कोरोनाकाल में संकट और भेद आमने सामने||


कभी 19वीं सदी के आरम्भ में प्लेग नाम की महामारी ने दुनियां के लोगो की कमर तोड़ दी थी। वह भी प्रकृति का एक विद्रुप चेहरा था। आज के हिसाब से तत्कालीन समय में सुविधाओं का बड़ा अभाव था, लोगो का आवागमन ही नाम मात्र ही था। सो मौजूदा 21वीं सदी में कोरोना वायरस ने दुनियां के लोगो की कमर फिर से प्लेग की भांति तोड़कर रख दी है। अतः प्रकृति के चितेरे महाकवि सुमित्रा नंदन पंत की पंक्तियां स्मरण होती है। ‘‘अरे ये निष्ठुर परिवर्तन, तेरा ही तांडव नर्तन’’ अर्थात नियति के चक्र द्वारा जो भी परिवर्तन होते है, उसमें अच्छाई, बुराई, लाभ, हानि सब निहित रहते हैं।


इन दिनों भी कोरोना वायरस ने लोगो के होश फाक्ता कर दिये है। पर मानवीय गुण वही है। की एक दिन ऐसा होगा जिस दिन से हम लोग इस प्रकृति प्रदत्त महामारी से उभर पायेंगे। आकड़े और खबरों की बानगी भी ऊहापोह की स्थितियां पैदा कर देते है। मगर सूचनाओ का होना भी आवश्यक है। अतएव इन खबरो के इतर विश्वभर के वैज्ञानिक इस महामारी की दवा खोजने में लगे है। लोग सकते में भी है। जिन्दा रहने के लिए अपनी सहूलियत के अनुसार वे सभी उपादान कर रहे है, जिससे महामारी से बचाव हो सके।  


कुलमिलाकर कह सकते हैं कि जीवन को किसी ठहराव के मोड़ पर खड़ा करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। ऐसा जानकारो का मानना है। इसलिए अनुसंधान की प्रक्रिया निरन्तर बनी रहे। महामारी के दौरान एक दूजे का हौसलाफजाई करते हुए अध्यात्मिक गुरू भी जन्म और मृत्यु को सात्विक सच मानते है, यही इसकी भावना भी कहती है। प्रणाी जगत में ऐसे कई दौर आये है, जिनका जिक्र हमारे धर्म शास्त्रों में बखूबी किया गया है। तात्पर्य यह है कि मौजूदा अनुसंधानिक समय में इस महामारी से जल्दी ही छुटकारा मिल सकता है। अर्थात जन्म व मृत्यु पर हमारा अधिकार ही नही है। अधिकार सिर्फ इतना है कि इतिहास को दोहराने की बजाय इतिहास से सबक लेने की जरूरत है।


ज्ञात हो कि वर्तमान की इस महामारी ने लोगो को भूख, प्यास से भी कई मर्तबा व्याकुल कर दिया है, तो कईयों को कानूनात्मक पीड़ा पंहुचाई जा रही है। महामारी ने लोगो को इतना डरा दिया है कि लोग अपनी पुश्तैनी जन्मभूमि की ओर लौटना चाह रहे है। वहां सकून है। सर ढकने के लिए छत है। कोई भवन का किराया नहीं है। गांव समाज है, जहां भावनाओं को तज्जुबो दी जाती है। एक दूसरे का दुखदर्द समझा जाता है। परस्परता है बगैरह। इसीलिए आज गांवो के भारत की छबी सुजली दिख रही है। शहरो की छबी धूमली दिख रही है। लाॅडाउन के बाद तो शहरो में लोग एक दूसरे को दुश्मन की भांति देख रहे हैं। यही भयावह स्थ्तिि है।


कुदरत का करिश्मा कितना निराला है। यह नियति है कि धंधे, व्यवसाय, कारखाने कोरोनाकाल में बंद पड़ गये थे, ऐसे में कामगार अपने हाथ पैर बांधकर, घरों में कैद होकर रोजी रोटी पाने के लिए छटफटा रहे थे, सो अब मजदूर गांव लौट रहे हैं तो कामधंधे खोलकर उनका इंतजार किया जा रहा है। सरकारो और जिम्मेदार नागरिको को इस संकट को समझना होगा, और लोगो में बढती ऐसी खाई को तत्काल प्रभाव से पाटना होगा। 




नवदीप डोभाल युवा लेखक हैं।