||अकेलापन||


||अकेलापन||


बड़ी भीड़ है यहाँ, 
पर अकेलापन सा है।
अज़नबी से लोग, 
अन्जाना सफ़र।
जीते हैं यूं ही फिर, 
जिन्दगी से बेखबर।
मंजिल पे आकर भी, 
मुकाम कहीं पीछे रह गया।
खुशियों की तलाश रही,
नाता गम से जुड़ गया।
ऐसा नहीं कि हमें, 
कोई चाहता न हो।
और चाहत को अपनी, 
जताता न हो ।
मगर कुछ अजीब सी,
है चाहत उनकी।
हमें पाना चाहते हैं, 
हमें खोकर ही ।
न मालूम उनको, 
मुहब्बत है क्या।
मुहब्बत हैं क्या, 
वफा या जफा।
या अहसास है, 
चाहने का किसी को।
सुगंध देह की, 
या मिलन रूह का है।
है कैसी पहेली, 
कोई तो बताये।
कि बजाय सुलझने के,
उलझती गयी है।


नोट- यह कविता काॅपीराइट के अंतर्गत आती है, कृपया प्रकाशन से पूर्व लेखिका की संस्तुति अनिवार्य है।