बहुत कठिन हैं माँ हो जाना

||बहुत कठिन हैं माँ हो जाना||

जैसे-जैसे कोविड-19 भारत में भी अपने पैर फैलाता जा रहा, वैसे-वैसे मेरी एक माँ के तौर पर चिंता बढ़ती जा रही है. ये चिंताएं मुझ तक महदूद नहीं हैं. मेरे जैसी हर माँ सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि अपने बच्चे/बच्चों के लिए चिंतित है.


ऊपर से जब से प्रेगनेंट हाथी की मौत वाली न्यूज सुनी है, हर समय दिमाग़ में वो ही चलता रहता है. फिर सुशांत की आत्महत्या की ख़बर. अब भारतीय सीमाओं पर बढ़ता तनाव. बड़ी घबराहट सी होती है. अजीब-अजीब ख़्याल, सपने आते हैं. कुछ समय से बस केवल नकारात्मकता ही फैल रही है विश्व में. हर माँ के लिए ये सबसे कठिन समय है मेरी नज़रों में. मैं भी नयी-नयी माँ बनी हूँ ना, तो ज़्यादा महसूस कर रही हूँ.


हद तो इतनी हो गयी कि मेरी बेटी की हर ड्रेस, सामान में मुझे बेबी ऐलिफेंट दिख रहा है. इस बात पर मैंने पहले कभी ग़ौर नहीं किया था. बहुत निर्दयी होते हैं कुछ लोग. सुकून से जीने नहीं देते. कभी सामने से शारीरिक हमला या कभी बिना दिखे आप पर मानसिक हमला करते हैं. मेरा भी आजकल यही हाल है. रात को नींद खुल जाती है. बच्ची की ज़रा से भी हलचल से. उसे कोई तकलीफ़ ना हो इसकी सारी जुगत लगाती हूं. ज़्यादा फ़ोकस हो गयी हूं. और मन से थोड़ा कमज़ोर भी.


याद आता है मुझे वो माँ का मेरे लिए चिंता करना. जब स्कूल/कॉलेज से घर आने में थोड़ा सा भी देर हो जाती थी, वो परेशान हो जाती थी. तब मैं हमेशा बोला करती थी, ‘अरे माँ आप बेकार चिंता करती हो, आप को विश्वास नहीं क्या अपनी बेटी पर, अपनी परवरिश पर, क्यों डरती हो? आप ने अपने बच्चे को बहुत स्ट्रॉन्ग बनाया है. मैं हर परिस्थितियों से निपटने में सक्षम हूं.’ तब माँ हमेशा बोला करती ‘अपने बच्चों पर हर माँ को भरोसा होता है बेटा, बस समाज पर नहीं’.


एक माँ कैसे अपने बच्चे को शरहदों की रखवाली करने भेजती होगी? फिर कैसे वो सो पाती होगी? कैसे बहुत दिनों तक उस की आवाज़ सुने बिना निवाला गले से जाता होगा उसके. जब सुनती होगी सीमा पर बढ़ रहा तनाव तो क्या बीतती होगी मन पर उसके?


बिलकुल ये ही हाल आजकल डॉक्टर, हॉस्पिटल स्टाफ़, पुलिस वालों और वो सब जो सामने से कोरोना से लड़ रहे हैं, उनकी मांओं का हो रहा होगा.


शब्दों से बयां करना बहुत मुश्किल है. औरत कितनी भी मज़बूत हो, कितना दूसरों का हौसला अफ़जायी कर लें, माँ होना उसके लिए सबसे कठिन है.


मेरे ज़हन से कभी वो दिन नहीं निकलते जब मेरे प्रेगनेंसी टेस्ट की रिपोर्ट पॉज़िटिव आई थी और मेरे अंदर सब बदल गया. मैं कैसे इतनी सतर्क और ज़िम्मेदार हो गयी पता ही नहीं चला. मेरे बच्चे को कोई तकलीफ़ ना हो, इसके लिए मैं सहज-सहज चला व काम किया करती. सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते तो हाथ ख़ुद ही पेट पर चला जाता, ताकि बच्चे को थोड़ा भी झटका ना लगे. ज़्यादा लोड नहीं उठाती. तनाव नहीं लेती. क्लासेस लेना भी कम कर दिया. भूख या इच्छा ना होने पर भी बच्चे के लिए मुझे जबरदस्ती खाना पड़ता. एक-एक दिन बिना दिखने वाले बच्चे को पालना, महसूस करना जितना सुखद था उतना ही कठिन भी.


किसी भी बेबुनियादी रिवाज या टोटके जिनके मैं सख़्त ख़िलाफ़ रहती हूँ, निंदा करती हूँ, कान में पड़ते ही छिप-छिप पूरे किए. केवल अपने बच्चे के लिए. मैं अपनी तरफ़ से कोई लापरवाही नहीं चाहती थी. और ये सब करना मेरे लिए और ज़रूरी हो जाता था. कुछ बातें भगवान के हाथ में होती हैं. मैंने विज्ञान पढ़ा है. और भगवान व पॉज़िटिव एनर्जी पर भी मेरा विश्वास है. बस मैंने ये मससूस किया कि माँ अपने बच्चे के लिए कुछ भी कर सकती है. सारे रिश्ते एक तरफ़ और माँ दूसरी. जैसे-जैसे मेरा प्यार अपने बच्चे के लिए बढ़ रहा है उसका दोगुना अपनी माँ के लिए.


अपने सारे कष्टों को भूल जाती है माँ, जब उसकी गोद में पहली बार दिया जाता है उसका बच्चा. दर्द में, डरते-डरते पकड़ती है अपने बच्चे को, कि कोमल सी जान को ना हो ज़रा सी भी तकलीफ़. ख़ुशी के आंसू ना रुक रहे होते हैं. बलायें लेती है अपने बच्चे की. अपना दूध पिलाना, फिर उसे अपनी आँखों के सामने बढ़ते देखना. उसकी किलकारी, मुस्कुराहट कभी उस के मन से निकल नहीं सकते. उसको पता ही नहीं चलता कि बच्चे के साथ-साथ कब वो तुतला कर बोलने लगी. तरह-तरह की आवाज़ें निकालती. मुँह बनाती है. बच्चे को रोता नहीं देख सकती है. रात भर जाग बच्चे को चैन की नींद सुलाती है माँ. बच्चे की छोटी सी तकलीफ़ में परेशान हो जाती है माँ.


और ये सब करते-करते ख़ुद को ही भूल जाती है.
सच में बच्चे के साथ नया जीवन जीना इतना सुखदायक है कि उसकी तुलना किसी और सुख से हम नहीं कर सकते. मगर इस बीच माँ झेलती है बहुत शारीरिक व मानसिक बदलाव व तकलीफें भी. जब सोचती है ख़ुद के करियर के लिए. अपनी आज तक की गयी मेहनतके बारे में तो वो अटक जाती है मंझधार में. ऐसा नहीं कि वो निकल नहीं पाती. वो निकलती है, मगर लड़नी पड़ती है उसे लंबी सामाजिक लड़ाई. बहुत संघर्षमय होता है उस के लिए साथ-साथ सब संभालना. सम्मान है मुझे उन सब महिलाओं के प्रति जिन्होंने ये लड़ाई जीती है. और उनके प्रति भी जो लड़ रही हैं. और उनके प्रति सबसे ज़्यादा जिन्होंने अपने भविष्य को दाँव पर लगा दिये है हमें वीर सपूत.


तो क्या हम इन संघर्षरत मांओं की थोड़ी मदद नहीं कर सकते?
कर सकते हैं. अपने व्यवहार से. हम इनकी राह आसान कर सकते हैं, केवल अपने सकारात्मक रवैये से. दीजिए अपनी और दूसरी सारी मांओं को केवल प्यार और सम्मान जिसकी वो हैं हक़दार. निभाइये अपने सारे समाजिक फ़र्ज़ पूरे जोश व सकारात्मकता के साथ. कुछ भी ग़लत मन में आने या करने से पहले याद रखिए, आप की ज़िंदगी उनकी सारी ज़िंदगी की कमाई है, जमापूंजी है.




डॉo दीपशिखा जोशी मूल रूप से उत्तराखंड के चंपावत ज़िले से हैं. कुमाऊं यूनिवर्सिटी नैनीताल से केमिस्ट्री विषय में डाक्टरेट हैं. पढ़ने-पढ़ाने का काम करती हैं.फिलहाल एक नन्हीं सी बिटिया की परवरिश कर रही हैं.हिन्दी साहित्य लेखन में उनकी विशेष रूची है।