||बन्द और खुली आँखों के ख्वाब||


||बन्द और खुली आँखों के ख्वाब||


ख्वाबों का चमन बसाया था कभी,
बोया बीज निश्चल भाव से।
पतझड़ की हवा छू न सके उसे,
पलकों के पीछे छिपाया था कभी।
रंग-बिरंगे फूलों से सजाया था उसे,
सुगन्धित इत्र से महकाया था उसे।
उसकी चमक व सुगन्ध बरकरार रह सके,
हर दिन उड़ती धूल से बचाया भी।
पर वो ख्वाब था, बन्द पलकों के पीछे,
आंख खुलते ही, खत्म हुआ भी।
जिन्दगी है खुली आँखों का ख्वाब,
अहसास ये हुआ भी।
इस चमन में अनायास ही बोये जाते है,
बीज सच और झूठ के भी।
बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद,
ऋतु आती है हेमन्त, शिशिर भी।
कुछ फूल लबालब खुशबु से,
कुछ खिल उठते गंधहीन भी।
ऐसा है जीवन मौसम सा,
चिरजीवी नहीं यहां कुछ भी।


नोट- यह कविता काॅपीराइट के अंतगर्त आती है, कृपया प्रकाशन से पूर्व लेखिका की संस्तुति अनिवार्य है।