कल्याण सिंह रावत और मैती आन्दोलन

|| कल्याण सिंह रावत और मैती आन्दोलन (तीसरी किश्त) ||

 



जाने मैती आन्दोलन के जनक कल्याण सिंह रावत को

 

कल्याण सिंह रावत का जन्म 19 अक्टूबर 1953 को जनपद चमोली के कर्णप्रयाग विकासखण्ड के तल्ला चानपुर पट्टी के बैनोली गांव में हुआ। इनकी मां का नाम श्रीमती विमला देवी और पिता का नाम त्रिलोक सिंह रावत है। पिता वन विभाग में रेंजर के पद पर कार्यरत थे। सेवानिवृत्ति के बाद वे राजनीति और सामाजिक कार्यों में जुड़ गये तथा कर्णप्रयाग के ब्लाक प्रमुख बने। इसलिए कल्याण सिंह रावत को पेड़ों और जंगलों के प्रति लगाव और सामाजिक सेवा विरासत में मिली।

 

इनकी प्राथमिक शिक्षा गांव के प्राथमिक स्कूल बैनोली (नौटी) में हुई। 8 वीं तक की शिक्षा कल्जीखाल तथा हाईस्कूल और इण्टर की शिक्षा कर्णप्रयाग से प्राप्त की। आगे स्नातक और स्नाक्तोतर शिक्षा राजकीय स्नाक्तोतर महाविद्यालय गोपेश्वर से प्राप्त की।

 

छात्र जीवन में ही कल्याण रावत गांधीवादी संगठनों के संपर्क में आ गए थे। प्रकृति के करीब रहने में उनकी दिलचस्पी रही। कल्याण सिंह रावत ने पूरे हिमालय का दौरा किया और गढ़वाल-कुमाऊं के कई स्थानो का भ्रमण किया। इससे उन्हें वहां के जन-जीवन और महिलाओं की परिस्थितियों को समझने का मौका मिला।

कॉलेज के दिनों से ही कल्याण सिंह रावत पर्यावरण से जुड़े कार्यक्रमों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते। गोपेश्वर में ग्रजुवेशन की पढ़ाई के दौरान वे चिपको आन्दोलन से भी जुड़े। चण्डीप्रसाद भट्ट के नेतृत्व में सीमांत जनपद चमोली में विश्वप्रसिद्ध चिपको आन्दोलन चल रहा था तो कल्याण सिंह रावत भी छात्र आन्दोलनकारी के रूप में इसमें शामिल हुए। चिपको की सफलता से कल्याण रावत के मन में पर्यावरण के प्रति और अधिक चेतना और लगाव पैदा हुआ। उनकी समझ बनी और आगे चलकर निरन्तर इसका विकास होता चला गया।

 

मैती का कैसे आया विचार मन में

1982 में कल्याण सिंह रावत की शादी हुई। शादी के दूसरे ही दिन पत्नी मंजू रावत द्वारा दो पपीते के पेड़ लगाये गये। जिसने कुछ साल बाद फल देने शुरू कर दिये थे। इन पपीते के पेड़ों के प्रति अपनी पत्नी के भावनात्मक लगावा को देखकर उनके मन में मैती का विचार आया। लेकिन उस समय वे इसे धरातल पर नहीं उतार पाये थे। 1987 में उत्तरकाशी में सूखा पड़ा तो कल्याण रावत ने ग्रामस्तर पर ग्राम प्रधान की अध्यक्षता वाली ‘वृक्ष अभिषेक समिति’ का गठन किया। समिति के सहयोग से ‘वृक्ष अभिषेक समारोह’ मेले का आयोजन किया गया। इससे इनके मन में ग्राम समितियों की उपादेयता और कार्यपद्धति को निकट से जानने और महसूस करने का मौका मिला।

 

जल, जंगल और जमीन के संरक्षण की विभिन्न गतिविधियों से जुड़े रहने के दौरान कल्याण सिंह रावत लगातार वृक्षारोपण और पर्यावरण संरक्षण की दूसरी गतिविधियों के परिणामों से असंतुष्ट रहने लगे। सरकारी वृक्षारोपण अभियान की विफलताएं उन्हें बेचैन कर देती। एक ही जगह पर कई बार पेड़ लगाए जाते पर उसका नतीजा शून्य होता। पौधे तो लाखों लगते हैं लेकिन पेड़ कितने बन पाते? ये सवाल उनके सामने खड़ा रहता। वृक्षारोपण के कार्यक्रम तो होते लेकिन उसके बाद उन वृक्षों के संरक्षण की कोई व्यवस्था न होने से वे खत्म हो जाते। वृक्षारोपणों की जमीनी हकीकत से वे इस नतीजे पर पहुंचे कि वृक्षारोपण के साथ-साथ उसकी देखभाल और सुरक्षा भी जरूरी है। इन्हीं सब परिस्थितियों में मैती का विचार पनपने लगा। वे महसूस करने लगे कि जल, जमीन और जंगल से सीधे तौर पर जुड़े लोगों के अन्दर वृक्षारोपण और उसकी सुरक्षा को लेकर भावनात्मक लगाव जरूरी है।

 

इन्हीं सब बातों ने कल्याण सिंह रावत के अन्दर एक पुख्ता विचार और कार्ययोजना को जन्म दिया। 1995 में पहली बार कल्याण रावत ने अपने इन विचारों को अमली जामा पहनाने के लिए गढ़वाल-कुमाऊं के कुछ गांवों में मैती संगठन की नींव रखी। उस समय वे रा.इ.का.ग्वाल्दम में जीव विज्ञान प्रवक्ता के पद पर कार्यरत् थे। मैती संगठन की गतिविधियों को लोकप्रियता मिलने लगी। जल्दी ही यह विचार गढ़वाल-कुमाऊं के कई गांवों और देश-दुनिया के दूसरे हिस्सों में फैलने लगा।