नई फसल

रमेश कुड़ियाल वरिष्ठ पत्रकार है। इसके अलावा वे समाजसेवा के साथ-साथ साहित्यकार है। वर्तमान वे अमर उजाला बनारस संस्करण में Senior su-editor के पद पर कार्यरत है। प्रस्तुत है उनकी कविता।

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||नई फसल||

 


जब धर आने थे प्रवास गए बेटे,

तब उल्लास से भर जाता था पहाड़.

घरों के आंगन मे गूंजता था लोक संगीत,

सुनाई देता था। ढोल दगाऊं का नाद,

 थड्या' चौफला तांदी गीतों की सुगंध,

फैलती थी पूरे इलाके में.

 

खिलता था बुरांस

झूमता था देवदार

 

बुजुर्ग पीढ़ी के चेहरे पर तैरता था युवा मन

पहाड़ पर बनता था सुखों का इंद्रधनुष

 

लेकिन

इस बार ऐसा नहीं है

 

प्रवास से लौटते अपने ही बेटों सें

अनजाने भय का धुआं उठ रता है




 

बांझ ,बुरांस, चीड़; देवदार भी

उदासीओढ़े है

जंगलों में नहीं सुनाई दे रहे बाजूबंद

 

ढोल दमाऊं मौन है

घरों के भीतर तक  पसरा है भय

शून्य में है माता पिता

पत्नी बच्चों की आंखे

 

प्रवास से आ रहे बेटों के स्वागत के लिए

पहाड़ नहीं फैला पा रहा अपनी बाँहे

 

कोरोना काल में

छिप गया

इंद्रधनुषी रंग

 

अपनों के ही आने से

डरा. सहमा हारा हुआ सा

हरा पहाड़ बदल रहा रंग

हो रहा नारंगी और लाल

 

मुसीबत के इन दिनों में

मुसीबत को हराना ही है

पहाड़ में फिर पैदा करना है हए भरा रंग

 

अपनों कं आने पर फैलानी है बांह

फिर बजाने हैं दोल दमाऊं

लोक संगीत के स्वर

उदास जंगलों को खिलविलाना हैं

झूमना है तांदी त्थड्याए चोंफला गीतों के बीच

गुनगुनाई है कोई कविता

 

हर आपदा को हराकर जीते हैं

 

फिर कोरोना से क्या रोना है

फिर हंसना हैं 

फिर खिलखिलाना है

बोनी है मुरझाए पहाड़ पर. 

सुख की नई फसल.