अहा, हमारा वह पंतनगर!
Deven Mewari

 

||अहा, हमारा वह पंतनगर! ||

 


आज पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय साठ वर्ष का हो गया है। वे सन् साठ और सत्तर के दिन थे। पंतनगर के स्वर्णिम दिन। हमें इस बात पर बहुत गर्व होता था कि हम देश के प्रथम और शीर्ष कृषि विश्वविद्यालय में हैं। ट्रेन या बस के सफर में, या बाहर कहीं आफिसों में ‘मैं कृषि विश्वविद्यालय, पंतनगर से हूं’ सुनते ही सामने वाले के चेहरे पर सम्मान का भाव आ जाता था। कुलपति हर व्याख्यान में याद दिलाते कि हम विश्व के एक श्रेष्ठ कृषि विश्वविद्यालय के लोग हैं। हमने यह श्रेष्ठता बनाए रखनी है। हमें सदा सबसे आगे ही रहना है। वे अक्सर नोबेल पुरस्कार विजेता कृषि वैज्ञानिक डॉ. नार्मन अर्नेस्ट बोरलाग के पत्र की ये पंक्तियां भी याद दिलाते थेः ‘भारत में तराई ही वह क्षेत्र है जहां आपके विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों के प्रभाव एवं निर्देशन से हरित क्रांति का जन्म हुआ था, जहां से देश के अन्य भागों में उसका प्रसार हुआ।’

 

पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय अमेरिका के लैंड ग्रांट पैटर्न पर स्थापित देश का पहला कृषि विश्वविद्यालय है जिसका उद्घाटन आज के ही दिन 17 नवंबर 1960 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने किया था। पहले इसका नाम उत्तर प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय था। आगे चल कर इसका नाम गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय रख दिया गया।

 

याद आता है, उन दिनों का वह विश्वविद्यालय, जो आर्थिक रूप से पूरी तरह आत्मनिर्भर था और अपने विशाल कृषि फार्म से, अपने ही बलबूते पर एक-डेढ़ करोड़ रूपए कमा रहा था। सरकार और उसके सहयोग से उच्च कोटि के बीज पैदा करने के लिए 20 करोड़ रूपए लागत की तराई बीज विकास परियोजना शुरू की गई थी। पंतनगर के ये वे दिन थे, जब महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों में उन्नत बीज वितरित करने के लिए 70 डिब्बों की एक स्पेशल ट्रेन रवाना हुई थी जिसमें 20,000 क्विंटल उन्नत तराई बीज भेजे गए थे।

वे सचमुच पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के स्वर्णिम दिन थे।

 

तब विश्वविद्यालय में एक से बढ़ कर एक धीर-गंभीर और मेधावी छात्र भी थे जिन्होंने आगे चल कर विभिन्न क्षेत्रों में अपना और विश्वविद्यालय का नाम रौशन किया। इनमें से दो-चार छात्र कभी-कभी मुझसे मिलने घर पर भी आया करते थे। उनमें मेरठ का मैकेनिकल इंजीनियरी का एक छात्र था अरुण तिवारी। हम दोनों अक्सर कला और साहित्य की चर्चा किया करते थे। महान चित्रकार वॉन गॉग और पॉल गोगां के चित्रों के लिए मेरा मोह देख कर वह एक दिन आया और मेरे पढ़ने के कमरे की दीवार पर पॉल गोगां की एक पेंटिंग की काफी बड़ी प्रतिकृति बना कर चिपका गया। यह वही अरुण तिवारी हैं जिन्होंने आगे चल कर राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ ‘विंग्स ऑफ फायर’ सहित पांच पुस्तकें तथा अपनी कई अन्य पुस्तकें लिखीं। वे मिसाइल साइंटिस्ट और प्रोफेसर बने।

 

एक और विद्यार्थी खेम ऐंठानी सुदूर पहाड़ों में पिथौरागढ़ जिले के कपकोट के एक गांव से मैकेनिकल इंजीनियरी पढ़ने पंतनगर आया था। बाद में उसने आई.आई.टी., कानपुर से एम.टैक. किया। वह नामी कंपनी आईटीसी इंफोटैक इंडिया प्रा.लि. में सूचना प्रौद्योगिकी (आई टी) के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट पद तक पहुंच कर रिटायर हुए।

 

एक और सीधा-सादा छात्र था जो श्रीगंगानगर से आया था। उसे जब भी अकेलापन लगता, घर पर मिलने आता। धीरे-धीरे उसने कई भाषा-भाषी दोस्त बना लिए। पंतनगर से बी.एस-सी. करने के बाद एक चीनी मिल में नौकरी की, फिर एक चाय बागान में। फिर अमेरिका, यूरोप होते हुए भारत आकर इवेंट मैंनेजमेंट की अपनी एजेंसी खोल कर उसने इस क्षेत्र में खूब नाम कमाया।

 

मैंने भी तब पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में कम्यूनिकेशन पाठ्यक्रम में दो वर्ष तक पत्रकारिता का कोर्स पढ़ाया था। मेरे उन विद्यार्थियों में से एक, मधुबनी के पी.एन.सिंह सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सदा आगे रहते थे। ग्रेजुएशन के बाद उनका चयन दूरदर्शन में हो गया और वे स्टेशन डायरेक्टर पद तक आगे बढ़े। तब विश्वविद्यालय से मैं नियमित रूप से अनुसंधान की उपलब्धियों के बारे में प्रेस विज्ञप्तियां भी जारी किया करता था। समाचारपत्रों में आए दिन वे समाचार प्रकाशित होते रहते थे। यह तो केवल मेरे निकट सम्पर्क में आए चार छात्रों की बात है। तब पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के तमाम छात्रों ने देश और दुनिया में अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलताएं हासिल की थीं।

 

उस दौर में विश्वविद्यालय के अनेक शिक्षकों तथा वैज्ञानिकों ने भी राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई उपलब्धियां हासिल कीं। तराई क्षेत्र में पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय को हरित क्रांति का अग्रदूत बताने वाले विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. नार्मन अर्नेस्ट बोरलाग लगभग हर साल विश्वविद्यालय में आते थे और वहां अनुसंधान केन्द्र में गेहूं की फसल पर किए जा रहे प्रयोगों का जायजा लेते थे। एक बार दीक्षांत समारोह में उन्हें तथा ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक डॉ. बी.पी. पॉल, प्रोफेसर बोशी सेन आदि को ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ यानी ‘विज्ञान वारिधि’ की मानद उपाधि से विभूषित किया गया था। मुझे तब हिंदी में उनके प्रशस्ति-पत्र तैयार करने का सौभाग्य मिला था।

 

‘किसान भारती’ के लिए मैं कृषि और पशुपालन के सामयिक विषयों पर विशेषज्ञों से लेख लिखवाता, उन्हें आसान भाषा और रोचक शैली में ढालता। पत्रिका को मैं वैज्ञानिकों और किसानों के बीच एक मजबूत पुल बनाने की कोशिश करता था।

 

अहा, उन दिनों का वह पंतनगर! किसी शांत कस्बे की तरह था वह, जहां अड़ोस-पड़ोस ही नहीं, पूरे कैम्पस के लोग आत्मीय रिश्तों की डोर से जुड़े हुए थे। क्वार्टरों में किचन गार्डन के लिए काफी ज़मीन थी। सभी लोग उसमें साग-सब्जियां और फल उगाते थे। हमने भी अपने क्वार्टर में खूब सब्जियां उगाईं। केले और पपीते की बौनी किस्में उगाईं, ‘यूरेका’ कागजी नींबू, लाल गूदे वाला अमरूद लगाया। खूब फलते थे वे। रबी के मौसम में गेहूं, जायद में मूंग, उड़द, लोबिया और अरहर की फसलें उगाते थे। खरीफ के मौसम में खूब कीचड़ बना कर धान की रोपाई करते थे। मजदूर खेत को खोद कर तैयार कर देते और रोपाई में हम भी उनका साथ देते थे। हमारे अपने किचन गार्डन से हमें करीब ढाई-तीन क्विंटल गेहूं, धान और 60-70 किलोग्राम तक दालें मिल जाती थीं।

 

घर की एप्रोच रोड के दोनों ओर बेला, गार्डीनिया यानी गंधराज के खुशबूदार पौधे लगाए थे। बीच-बीच में मौसम के अनुसार लिली, कलेंडुला, फ्लॉक्स, गेंदा और गुलदाउदी लगाते। घर के मुख्य द्वार के निकट मालती की ऊंची बेल, जिस पर शाम को छह-सात बजे खूबसूरत सफेद फूलों के गुच्छे खिल कर खुशबू बिखेरने लगते। सुबह धूप पड़ते ही वे लाल हो जाते। बेडरूम की खिड़की के बाहर रातरानी की गछीली झाड़ी रात भर खुशबू बिखेरती। बया पक्षियों को वह झाड़ी खूब पसंद थी और मानसून आने से पहले मई-जून में ही उस पर वे घास की पत्तियों से बुनकर अपने लैंपशेड जैसे लंबे-गोल घोंसले बनाने लगतीं। घर-आंगन में गौरेयां और बुलबुलें चहचहातीं। वह था हमारा पंतनगर जिसे हम कभी नहीं भूल सकते।

 


  • लेखक - बाल वैज्ञानिक है