आपदा को समझना और पूर्व तैयारी को मुस्तैद

आपदा को समझना और पूर्व तैयारी को मुस्तैद


आपदा का दर्द हर इन्सान को ताउम्र कचैटता रहता है। चाहे वह उस आपदा से क्यों ना उभर जाये। मगर वह आपदा का सीजन आते ही खौफजदा हो जाता है। यहां हम उतराखण्ड की बात करें तो यह हिमालयी राज्य वर्षभर आपदाग्रस्त रहता है। वर्ष के आरम्भ में बर्फवारी का खतरा, मध्य में वनाग्नी व बरसात का जानलेवा खतरा, वर्ष के अन्त में रोजगार का अभाव बना रहता है। जिस कारण कई घरों में चूल्हा नहीं जलता है। इसके अलावा इस राज्य की यमुनाघाटी के लोगो के आवासीय भवन लकड़ी के होने की वजह से कई बार गांव के गांव आग के हवाले हो जाते है। माना की यह भी एक तरह की आपदा ही है। हवा, पानी, आग यहां आपदा को आमन्त्रण देती है। ऐसी आपदाओं के उपाय और पूर्व सूचना पर सरकारों ने काफी कार्य किये हैं। लोग सचेत है। फिर भी आपदा है जो आ ही जाती है।


आपदा और हम
हालांकि आपदाऐं सर्वाधिक प्राकृतिक ही होती है। कुछ मानवजनित होती है। जिसे हम लापरवाही भी कह सकते है। किन्तु कुछ आपदायें प्राकृतिक संसाधनों के अवैध दोहन से घटित हो रही है। जिस पर आये दिन काबू पाया जा सकता है। अर्थात आपदा अचानक होने वाली विध्वंसकारी घटना को ही कहा जाता है, ऐसे में ही व्यापक भौतिक क्षति व जान-माल का नुकसान होता है। कह सकते हैं कि यह वह प्रतिकूल स्थिति है जो मानवीय, भौतिक, पर्यावरणीय एवं सामाजिक क्रियाकलापों को बुरी तरह से प्रभावित करती है। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 भी यही मानता है कि किसी भी क्षेत्र में हुए उस खतरनाक, अनिष्ट, विपत्ति या बेहद गंभीर घटना ही आपदा है। जो प्राकृतिक या मानवजनित कारणों से या दुर्घटनावश अथवा लापरवाही से घटित होती है और जिसमें बहुत बड़ी मात्रा में मानव जीवन की हानि होती है। कुलमिलाकर ऐसी सभी घटनाऐं प्रायः प्रभावित क्षेत्र के समुदाय के सामना करने की क्षमता से अधिक भयावह होती है। इस तरहया तो मनुष्य पीड़ित होता है अथवा संपत्ति को हानि पहुँचती है और पर्यावरण का भी भारी क्षरण होता है। 


वर्तमान में आपदाओं का कारण
वैज्ञानिको का मानना है कि मौजूदा समय में समुद्रों के तापमान के बढ़ने से वायुमंडल में जलवाष्प की मात्र बढ़ रही है, जिससे कुछ स्थानों पर तो अत्यधिक वर्षा के कारण बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जबकि अन्य स्थानों पर सूखे का भयावह रूप देखने को मिलता है। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे क्षेत्र भी होते हैं जहाँ बाढ़ तथा सूखे की स्थिति एक साथ उत्पन्न हो जाती है। इधर बताया जा रहा है कि विश्व में बढ़ते समुद्री स्तर को मापने के लिये टॉपेक्स व पोसीडॉन नामक सबसे पहली सेटेलाइट को आज से 25 वर्ष पूर्व लॉन्च किया गया था और तब से लेकर अब तक किये गए समुद्री स्तरों के मापन से इस बात की पुष्टि हुई है कि प्रतिवर्ष समुद्र के वैश्विक स्तर में 3.4 मिलीमीटर की वृद्धि हो रही है। अतः इन 25 वर्षों के दौरान इसमें कुल 85 मिलीमीटर की वृद्धि हुई है। समुद्रों के तापमान में होने वाली वृद्धि और उनका गर्म होना विश्व स्तर पर उष्णकटिबंधीय तूफानों की तीव्रता में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहा है। 


प्राकृतिक का प्रभाव
जानकारो का मानना है कि सबसे कम विकसित क्षेत्रों पर ऐसी आपदाओं का गहरा प्रभाव पड़ता है। कारण इसके वहाँ के जन-जीवन के लिये हर पल खतरा मंडराता रहता है। फलस्वरूप विकसित और मध्यम आयवर्ग वाले लोगो के बुनियादी ढांचे पर अधिक प्रभाव पड़ता है। बताया जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर प्रतिवर्ष प्रदूषण से 4.3 मिलियन लोगों की मृत्यु होती है, परन्तु इस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। जबकि ऊष्मा को अवशोषित करने वाली हरित गृह गैसों का प्रभाव मौसमी घटनाओं पर पड़ता है। अतः इस ओर ही अधिक ध्यान केन्द्रित किया जाता है। 


अपने देश में आपदा की श्रेणियां
जल एवं जलवायु से जुड़ी आपदाएं, चक्रवात, बवण्डर एवं तूफान, ओलावृष्टि, बादल फटना, लू व शीतलहर, हिमस्खलन, सूखा, समुद्र-क्षरण, मेघ-गर्जन व बिजली का कड़कनाद, भूमि संबंधी आपदाएं जैसं भूस्खलन, भूकंप, बांध का टूटना, खदान में आग, जंगलों में आग लगना, घरों में आग लगना, शहरों में आग लगना, खदानों में पानी भरना, तेल का फैलाव, प्रमुख इमारतों का ढहना, एक साथ कई बम विस्फोट, बिजली से आग लगना, हवाई, सड़क एवं रेल दुर्घटना, इसके अलावा जैविक आपदाएं, महामारियां, कीटों का हमला, पशुओं की महामारियं, जहरीला भोजन। रासायनिक, औद्योगिक एवं परमाणु संबंधी आपदाएं, रासायनिक गैस का रिसाव, परमाणु बम गिरना आदि आदि।


आपदा की स्थिति
भू- जलवायु परिस्थितियों के कारण भारत पारंपरिक रूप से प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील रहा है। यहाँ बाढ़, सूखा, चक्रवात, भूकंप तथा भूस्खलन की घटनाएँ आम हैं। देश में लगातार 60ः भू भाग में विभिन्न तीव्रता के भूकंपों का खतरा बना रहता है। यही नहीं 40 मिलियन हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में बार बार बाढ़ आती है। बता दें कि कुल 7,516 कि.मी. लंबी तटरेखा में से 5700 कि.मी. में चक्रवात का खतरा बना रहता है। इसके अलावा खेती योग्य क्षेत्र का लगभग 68 प्रतिशत भाग सूखे के प्रति संवेदनशील है। देश के कई भागों में पतझड़ी व शुष्क पतझड़ी सीजन में वनों में आग लगना आम बात है। जबकि हिमालयी क्षेत्र तथा पूर्वी व पश्चिम घाट के इलाकों में अक्सर भूस्खलन का खतरा रहता है।


आपदा के सहायतार्थ प्रबंधन कार्यक्रम
इसरो द्वारा अंतरिक्ष में स्थापित संयत्र के अनुसार आधारभूत संरचनाओं से प्राप्त सेवाओं का निकटतम समायोजन किया जाता है। इस तरह से आपदा प्रबंधन सहायता कार्यक्रम के तहत प्राकृतिक आपदाओं के कुशल प्रबंधन हेतु अपेक्षित आँकड़ों व सूचनाओं को एकत्रित किया जाता है, और आपदा न्यूनीकरण के लिए भविष्य में कार्यक्रम बनाये जाते हैं। अतः भू-स्थिर उपग्रह (संचार व मौसम विज्ञान), निम्न पृथ्वी कक्षा के भू-प्रेक्षण उपग्रह, हवाई सर्वेक्षण प्रणाली और भू-आधारित मूल संरचनाएं आपदा प्रबंधन प्रेक्षण प्रणाली के प्रमुख घटक होते हैं।


आपदा की घटनाऐं व तथ्य 
आपदाओं को लेकर हिमालय क्षेत्र बेहद संवेदनशील रहा है। वैज्ञानिको के अनुसार इस क्षेत्र की भीतरी चट्टानें निरंतर उत्तर की ओर खिसक रही हैं। बतातें हैं कि विश्वभर में 10 ऐसे खतरनाक ज्वालामुखी हैं जो एक बड़े क्षेत्र को तबाह कर सकते हैं। इधर संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय-आपदा शमन रणनीति (यूएनआईएसडीआर) के अनुसार, प्राकृतिक आपदाओं के मामले में चीन के बाद दूसरा स्थान भारत का है। बताया जाता है कि यहां पर आपदाओं का चक्र मुख्यतः भू-जलवायु स्थितियों और स्थालाकृतियों की विशेषताओं से निर्धारित होती है और उनमें जो अंतनिर्हित कमजोरियां होती हैं उन्हीं के फलस्वरूप विभिन्न तीव्रता की आपदाएं वार्षिक रूप से घटित होती रहती हैं। आवृति, प्रभाव और अनिश्चितताओं के लिहाज से जलवायु-प्रेरित आपदाओं का स्थान सबसे ऊपर माना गया है। यहां के भू-भाग का लगभग 59 प्रतिशत भूकंप की संभावना वाला क्षेत्र कहलाता है। हिमालय और उसके आसपास के क्षेत्र, पूर्वोत्तर, गुजरात के कुछ क्षेत्र और अंडमान निकोबार द्वीप समूह भूकंपीय दृष्टि से सबसे संवेदनशील क्षेत्र हैं। 


कुलमिलाकर यही कहा जा सकता है कि आपदा एक ऐसी घटना है जिसका प्रभाव बड़े क्षेत्र में पड़ता है। आपदा को पूरे तरीके से रोकथाम किया जाये यह कहना आसान नहीं है। मगर आपदा का प्रबंधन किया जा सकता है। अतः यह आवश्यक है कि आपदा की रोकथाम के लिये अंतर्राष्ट्रीय समन्वय की आवश्यकता होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त कार्बन उत्सर्जन और पृथ्वी की प्राकृतिक अवशोषण क्षमता के मध्य पारिस्थितिकीय संतुलन स्थापित किये जाये तो निश्चित रूप से इस दिशा में अच्छे परिणाम सामने आ सकते हैं।


अन्ततः


प्रतिवर्ष 13 अक्टूबर को 'अंतर्राष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण दिवस' (प्दजमतदंजपवदंस क्ंल वित क्पेंजमत त्मकनबजपवद) मनाया जाता है। इस दिन आपदा के प्रभाव को न्यूनतम करने हेतु विश्व समुदाय द्वारा किये गए उपायों का आकलन किया जाता है।