।।पहाड़ दरक रहा है ।।
गाॅव खाली हो रहे हैं,
शहर भारी हो रहे हैं।
क्या कहूँ कुछ कहा नहीं जाता,
कहे बिन चुप रहा नहीं जाता।
हर कोई आगे बढ़ने की चाह में सरक रहा है,
और पहाड़ दरक रहा है।
खुशहाली जहाँ बसती थी कभी,
तंगहाली में भी महफिल सजती थी कभी।
छोड दिया उन दरों,दीवारों को,
गलियों को चैबारों को।
बेताब हैं, बैचेन हैं,,मन सिसक रहा है।
और पहाड़ दरक रहा है।
दुर्गम रास्तों से टकराती जिंदगी,
कठिनाइयों में भी मुस्कुराती जिंदगी
खोज लेती है हर सम्भव उपाय,
मगर हिम्मत न हारती जिंदगी
खिलखिलाती जिंदगी को ,
आपदाओं नेे घेरा है ,
नजर जिस ओर भी जाये,
उदासियों का बसेरा है।
बेरूखी है, बेबस है, हर कोई तड़प रहा है।
और पहाड़ दरक रहा है।
यह कविता काॅपीराइट के अंतर्गत आती है। प्रकाशन से पूर्व लेखक की संस्तुति अनिवार्य है