आरक्षण को सियासी खिलौना बना दिया


||आरक्षण को सियासी खिलौना बना दिया||


आज के दौर में भारत में आरक्षण अनुचित है या उचित? इस विषय को लेकर यूनेस्को क्लब देहरादून की शाखा ने वाद-विवाद प्रतियोगिता आयेाजित की है। इस प्रतियोगिता में देहरादून के 19 स्कूलो के छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया है। लगभग 40 प्रतियोगियों ने आरक्षण के सवाल पर पक्ष और विपक्ष के रूप में बात रखी। मगर एक बात समान रूप से सामने आई कि इस देश में भेदभाव कम नहीं हुआ है।


देहरादून स्थित भारतीय चिकित्सा संघ के सभागार में खचाखच भरे लोगो के सामने आरक्षण का पक्ष रखते हुए प्रतियोगियों ने कहा कि इस देश में आज भी देश के उच्च शिक्षण संस्थानो, विश्वविद्यालयों में आरक्षण के लाखों पद रिक्त चल रहे है। उन्होंने तर्क दिया कि इन पदो को भरने वाले जिम्मेदार अधिकारी और जनप्रतिनिधि अनारक्षित समुदाया से आते है। इसलिए जाति के पूर्वाग्रह से ग्रसित ऐसे महत्वपूर्ण पद सालो से रिक्त चल रहे है। जबकि आरक्षण के विपक्ष में प्रतियोगियों ने कहा कि आरक्षण जाति के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिकी के आधार पर होना चाहिए। वे आरक्षण का विरोध करते हुए यह बात भी स्पष्ठ रूप से कह रहे थे कि इस देश में भेदभाव को खत्म कर देना चाहिए। इधर उनका यह भी कहना था कि संविधान निर्माता बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर ने संविधान में यह व्यवस्था मात्र 10 सालो के लिए की थी। बाबा साहेब ने सोचा था कि इस देश में गैरबराबरी जैसी कुप्रथा 10 सालो में समाप्त हो जायेगी। मगर आजादी के बाद से आरक्षण नाम की यह व्यवस्था राजनीतिक हथियार बन गयी। जिसके दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। 


इस दौरान आरक्षण को लेकर अफसोस भी व्यक्त किया जा रहा था कि हंटर आयोग के जमाने से लेकर भारत में आरक्षण की उम्र 136 वर्ष हो गई है। इस अन्तराल में ना तो देश में गरीबी समाप्त हुई है और ना ही इस देश में जातियां समाप्त हुई है। हंटर आयोग 1882 से लेकर सन् 2019 के मोदी के ''सबका साथ सबका विकास'' तक देश की सामाजिक, राजनीतिक आदि अन्य अर्थव्यवस्थाओं में भेदभाव यथावत ही दिखाई दे रहा है। ऐसे में आरक्षण ही एक मात्र हथियार है जो गैर बराबरी को समाप्त कर सकता है। बशर्ते आरक्षण की व्यवस्थाओं का क्रियान्वयन समय पर हो। 


जबकि इस प्रतियोगिता में आरक्षण का विरोध करने वाले प्रतियोगी अपना पक्ष रख रहे थे, कि सरकारी नौकरियों में 45 प्रतिशत और 80 प्रतिशत पाने वाले उम्मीदवारों को एक सम्मान सरकारी नौकरी मिल जाती है। जिससे सभी प्रकार की व्यवस्थाऐं चरमरा जाती है। दूसरी तरफ आरक्षण का पक्ष लेते हुए प्रतियागियों ने स्पष्ट मत रखा कि आजादी के 70 साल बाद भी आरक्षित पदो को नहीं भरा जा रहा है। जबकि इन पदो के लिए आरक्षण वर्ग से उम्मीदवारो की लम्बी लाईन है। बैकलाग समय पर नही भरा जाता है। अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ी जातियों के विकास लिए अवमुक्त बजट को साल के अन्त में लैप्स कर दिया जाता है। इस बजट को खर्च करने वाले अधिकारी आरक्षण विरोधी मनसिकता के कहे जाते है। जो वहां पर कुण्डली मारकर बैठे है।


यही नहीं इस वाद-विवाद प्रतियागिता में सभी प्रतियोगियों ने कहा कि आरक्षण को भारत की राजनीति ने एक सियासी खिलौना बना दिया है। जिस कारण सत्ता में आने वाली पार्टी विकास के कामों में भी वही सियासी खेल आरम्भ कर देती है। फलसवरूप इसके आरक्षण के सवाल जस के तस खड़े है। यदि समय पर और अनिवार्य रूप से आरक्षण की व्यवस्था को क्रियान्वयन किया जाता तो आज इस देश में काफी हद तक गैरबराबरी का सवाल भी खत्म हो जाता और आरक्षण-अनारक्षण के सवाल समाज में कहीं सुनाई नहीं देते।


कुलमिलाकर इस प्रतियोगगिता से यह बात उभरकर सामने आई कि आज भी गैरबराबरी समाप्त नहीं हुई है। इसलिए आरक्षण की आवश्यकता है। या आज की स्थिति में गैरबराबरी को पाटने के लिए कोई नया प्रयोग सरकार में बैठे जिम्मेदार लोग करे। इस आधार पर आरक्षण को संविधान से हटाया जा सकता है।