औषधीय खेती - 4- वीथानिया सोमनीफेरा

(द्वारा -  वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा
किताब - जलग्रहण विकास-क्रियान्यवन चरण, अध्याय - 1)
सहयोग और स्रोत - इण्डिया वाटर पोटर्ल-


||{अश्वगन्धा} वानस्पतिक नाम- वीथानिया सोमनीफेरा||


अश्वगन्धा आयुर्वेदिक औषधियों में प्रयुक्त होने वाली महत्वपूर्ण औषधीय तथा नकदी फसल है। इसके पत्ते बैंगन के पत्तों के समान होते है, ऊँचाई लगभग 3-4 फीट तक होती है। इसकी शाखाएं टेढ़ी-मेढ़ी एवं रोमों से युक्त होती है। इसके पुष्प एक साथ गुच्छों में आते हैं। इसकी जड़े औषद्यीय उपयोग में आती है।


अश्वगन्धा की खेती राजस्थान के नागौर, कोटा व झालावाड़ जिलों में की जाती है। इसकी सूखी जड़ें आयुर्वेदिक व यूनानी औषधियाँ बनाने के काम आती है। इसकी जड़ों को गठिया रोग, चर्मरोग फेफड़ों की सूजन, पेट के फोड़ों तथा मंदाग्नि के उपचार के काम में लिया जाता है। इसकी जड़ों के सेवन से शरीर में प्रतिरोधी क्षमता बढ़ती है। इसकी हरी पत्तियाँ जोड़ों की सूजन, क्षय रोग एवं दुखती आँखों के इलाज के काम में आती है।


जलवायु


अश्वगन्धा एक देरी से बोई जाने वाली खरीफ की फसल है। अच्छी फसल के लिए मौसम शुष्क तथा जमीन में प्रचुर मात्रा में नमी होनी चाहिए। रबी पूर्व या शरद में वर्षा होने पर जड़ों में वृद्धि तथा पैदावार में गुणात्मक सुखार होता है।


भूमि का चुनाव एवं तैयारी


अश्वगन्धा की फसल से अधिक उपज लेने के लिए अच्छे जल निकास वाली हल्की दोमट भूमि उपयुक्त है। मानसून प्रारम्भ होने के पहले दो बार आड़ी-खड़ी जुताई कर पाटा लगा दे। बुवाई से पूर्व एक बार बक्खर चलाकर मिट्टी को भुरभुरी कर लेना चाहिए।


उन्नत किस्में


अश्वगन्धा की खेती के लिए मुख्यतया स्थानीय बीज काम में लिया जाता है। वर्तमान में इसकी दो किस्में जवाहर असगंध-20 तथा डब्ल्यू एस-90-130 मन्दसौर कृषि कॅालेज  द्वारा विकसित की गई है। दोनों किस्में सभी तरह के वातावरण में उपयुक्त पाई गई है। इनकी जड़ों की उत्पादन क्षमता करीब 5-6 क्विंटल है जबकि देशी किस्म में 3-4 क्विंटल जड़े प्राप्त होती है।


बीज की मात्रा


कतारों में बोने पर 6-8 किग्रा. तथा छिटकवां बोने पर 8-10 किग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है।


बीजोपचार


बुवाई के पूर्व बीज को थायरम या डाइथेन एम-45 या मैन्कोजेब नामक दवा से 3-4 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।


बुवाई का समय


इसकी बुवाई जुलाई से सितम्बर माह तक की जा सकती है। अश्वगन्धा की अधिक उपज लेने के लिए बुवाई ऐसे समय पर करनी चाहिए जब वर्षा तीन चैथाई हो जाये तथा जमीन पानी सोखकर तृप्त हो जाये अतः अगस्त के तीसरे सप्ताह से सितम्बर के प्रथम सप्ताह तक बुवाई करे।


बुवाई की विधि


अश्वगन्धा की बुवाई बीज द्वारा तथा नर्सरी से पौध तैयार करके की जाती है। बीज द्वारा बुवाई कतारों एवं छिड़काव तरीके से की जाती है। कतारों में बुवाई के लिए कतार से कतार की दूरी 30 सेमी. रखनी चाहिए एवं बीज 3 से.मी. गहराई पर बोने चाहिए। छिड़काव द्वारा बुवाई करने के लिए बीज में बराबर मात्रा में बालू रेत या गोबर की खाद मिला लेना चाहिए क्योंकि इसके बीज छोटे आकार के होते हैं। बालू रेत या गोबर की खाद में लिये हुये बीजों को समान रूप से तैयार खेत में छिड़काव करके हल्का पाटा चला देना चाहिए तथा हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। अश्वगन्धा की बुवाई पौध रोपण करके भी की जा सकती है। इसके लिए जुलाई के मध्य में बीजों से नर्सरी तैयार की जाती है और सितम्बर के प्रथम सप्ताह में तैयार पौधों को 60 सेमी. की दूरी पर रोपा जाना चाहिए।


खाद एवं उर्वरक


भूमि में जीवांश की मात्रा बनाये रखने के लिए 10-15 टन सड़ी गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर डालें। 30 किग्रा. नत्रजन, 30 किग्रा. फास्फोरस एवं 20 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई के समय डाले।


निराई-गुड़ाई


फसल बुवाई के 30-35 दिन के बाद एक बार निराइ-गुड़ाई करनी चाहिए तथा प्रभावी तरीके से खरपतवार नियन्त्रण के लिए 0.75 किग्रा. आइसोप्रोट्यूरान बुवाई के समय प्रति हैक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।


सिंचाई


आमतौर पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है लेकिन वर्षा की कमी के समय सिंचाई की जा सकती है।


पौध संरक्षण


अश्वगंधा की फसल पर कीट व्याधी का कोई विशेष असर नहीं होता है।


फसल कटाई


जब पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ने लगे तथा लाल रंग के फल सूखने लगे तब यह माना जाता है कि फसल परिपक्व हो गई है। इस अवस्था के आने में करीब 150-170 दिन लगते है। फरवरी या मार्च में खेत की हल्की सिंचाई कर पौधों को जड़ सहित उखाड़ लिया जाता है। बाद में जड़ों को काटकर पौधों से अलग करके साफ करे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर छाया में सुखा लिया जाता है। पौधों के ऊपरी भाग से फलों को तोड़कर बीज प्राप्त किया जाता है।


उपज


अश्वगन्धा की सूखी जड़ों की उपज 5-6 क्विंटल एवं बीज 6-7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर प्राप्त होता है। इसकी जड़ों एवं बीज से करीब 18000-20000 रूपये प्रति हैक्टेयर शुद्ध लाभ कमाया जा सकता है जबकि लागत प्रति हैक्टेयर शुद्ध 5000-6000 रूपये आती हैं।