बदल गए हम 

|| बदल गए हम|| 



देखो कितना बदल गये हो, 
कहती है तस्वीर यही।
खुद को सभ्य समझ बैठे हो, सभ्यता बाकि कहीं नहीं।।
हर क्षण खुद को झुठलाते, 
झूठी शान दिखलाते।
देख दिखावा करते रहते, अपने मन को भरमाते।।
इसी भ्रम ने देखों,
कैसा जाल बिछाया है।
प्रकृति का ही ह्रास हो गया, प्लास्टिक घर-घर छाया है।।
सबको मालूम, 
बहुत ही घातक है इसका उपयोग।
किन्तु आलसी मानव, बहुधा करता रहता प्रयोग।।
न जाने कैसी आन है, 
न जाने कैसी शान है।
कपडे का थैला लेकर जाने में, कितना परेशान है।।
सूखी वस्तुओं में पाॅलीथीन,
प्रयोग हुआ पहले-पहल।
फिर खाने-पीने की चीजें, सब्जियाँ, दूध, दही और फल।।
हर वस्तु पैक होकर, 
अब प्लास्टिक में आने लगी।
एक बार उपयोग होकर, डस्टबिन में जाने लगी।।
हमने अपनी आदत में,
पाॅलीथीन को शुमार कर लिया।
इस पाॅलीथीन ने हम सबको, ही बीमार कर दिया।।
अब जरा देखो पीछे मुड़कर, 
वक्त जो गुजरा हमको छूकर।
मेरे दादा, तेरे दादा, चले जा रहे झूम-झूम कर।।
चेहरे की मुस्कान बताती, 
प्रकृति का चिन्तन करते हैं।
लाना हो सामान कभी भी, हाथों में थैला रखते हैं।।
थैला वो कपडें वाला,
जो दादी ने अपने हाथों से सिया।
उसकी उम्र भी ना थी छोटी, वर्षों तक था वो भी जिया।।
दूध-दही गर लाना होता, 
बरतन साथ में ही रख लेते।
हर सामान थैले में आता, पाॅलीथीन की मांग कभी न करते।।
कपडे का थैला हाथों में, 
मस्त-मगन अपनी बातों में।
बातें सदैव परहित की करते, प्रकृति के जज्बातों की।।
आज कहां है बातें ऐसी, 
आज कहां है अपनापन।
चारों ओर सुनाई देता, प्रकृति का करूण क्रंदन।।


यह कविता काॅपीराइट के अंतर्गत आती है। कृपया प्रकाशन से पूर्व लेखक की संस्तुति अनिवार्य है।