||दास्तान-ए-आधी आबादी||
इक्कीसवीं सदी, सब कुछ आसान, टेक्नोलाॅजी का दौर। बीस वर्ष पूर्व जो हमारे लिए एक स्वप्न जैसा था आज वही हमारे सामने है। लगता है कि मोबाइल, इंटरनेट व सोसल मीडिया जैसे आधुनिक टेक्नोलाॅजी ने हमारे जीवन पद्धति में बदलाव ला दिया होगा। मसलन इस बदलाव में हम सम्पूर्ण बदलाव की बात नहीं कर सकते है। इतना कह सकते हैं कि महिलाऐं-लड़कियां कुछ हद तक चार दिवारी से बाहर तो आ गयी पर समता की बात करनी इसमें गलत होगी।
माना कि धरती से लेकर अंतरिक्ष तक महिलाओं ने अपनी योग्यता की मिसाल कायम की है। हर उस क्षेत्र में जहाँ आज तक पुरूषों का वर्चस्व रहा है, महिलाओं ने अपनी योग्यता व दक्षता के बल वहां पर भी अपना स्थान बनाया है। फिर भी महिलाओं के शोषण में कमी नजर नहीं आती। आज 'बेटी बचाआ'े, राइट-टू ऐजूकेशन' जैसे लोक लुभावने नारे खूब गाये जा रहे हैं। मगर ऐसे कानून के क्रियान्वयन पर कही हम लोग ही असफलता की ओर जा रहे हैं। उदाहरणतः बेटी को हम पढाते तो हैं परन्तु इसके साथ-साथ उसके समक्ष सामाजिक बन्धनों की लिस्ट भी रख देते है। नेशनल क्राइम रिकोर्डस ब्यूरों 2013 के वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार अकेले 2013 में भारत में 24,923 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। जबकि 90 फीसदी ऐसे मामले सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण दर्ज ही नहीं होते। तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की गतिविधियों के कारण अभिभावक अपनी बेटियों को बेटों के जैसी स्वतंत्रता नहीं दे पाते।
ऐसा नहीं कि स्त्रियों के उत्पीडन को रोकने के लिए कोई कानून व्यवस्था नहीं है। अर्थात इन कानूनों का सही समय पर क्रियान्वयन न होने की वजह से भेदभाव की स्थिति यथावत ही है। महिला उत्पीड़न पर काम करने वाले संगठन मानते है कि पुरूष प्रधान मानसिकता आड़े आ ही जाती है, जिस कारण इन कानूनों का पालन नहीें हो पा रहा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार हमारे देश में महिलायें घरेलू हिंसा की सबसे अधिक शिकार होती हैं। क्योंकि पति को परमेश्वर मानकर उसके जुल्मों को सहने को उसे विवश होना पड़ता है। इसका मतलब यह नहीं है कि वे शिक्षित नहीं है बशर्ते उनके पक्ष में जो कानून बने है वे ठीक समय पर लागू ही नहीं होते। जबकि कानून में बाकायदा प्राविधान है कि कोई महिला घरेलू हिंसा से पीडित है तो वह इसकी शिकायत दर्ज कर सकती है। हिन्दू अडाॅप्शन ऐंडमेंटिनेंस एक्ट की धारा-18 के तहत घरेलू हिंसा के खिलाफ अर्जी दी जा सकती है, तथा गुजारा भत्ता की मांग कर सकती है। यदि पति-पत्नि का एक साथ रहकर गुजारा मुश्किल हो तो भी सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता की अर्जी दाखिल की जा सकती है। मगर कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल और लम्बी है, कि जो इस संकट से जूझ रही होगी उसे समय पर न्याय मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता है।
इधर पति द्वारा तिरस्कृत अथवा पति को छोडने वाली स्त्रियों को आज भी हमारे समाज में सम्मान की दृष्टि नहीं देखा जाता। अर्थात ऐसी परिस्थिति में इक्कीसवीं सदी की बात करनी बेईमानी ही लगती है। क्योंकि हिंसा से न्याय का रास्ता तय करने वाली महिला को ना पिता का घर बचता है और ना ही पति के घर में जगह मिलती है। कुलमिलाकर जब तक महिलाऐं आत्मनिर्भर नहीं होगी तब तक समानता की बात करनी अधूरी ही रह जाती है। इसके अलावा समानता शिक्षा-परिक्षा से लेकर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं तक अमल में लानी होगी।