एशिया की सबसे खूबसूरत घाटीः सोमेश्वर



||एशिया की सबसे खूबसूरत घाटीः सोमेश्वर||


21 सितम्बर, 2019-श्रीनगर से अल्मोड़ा वाया सोमेश्वर-02


.....पंडुवाखाल से चौखुटिया 19 किमी. है। चौखुटिया माने चार खुटे (पैर) के बीच में फैला विस्तीर्ण क्षेत्र। रास्ता उतराई का है। कुमाऊं की खुली और हरी-भरी घाटियां नजर आने लगी हैं। भूगोल के साथ ही लोगों की लोक भाषा की लय-ताल में फर्क दिखने लगा है। चौखुटिया बाजार के पुल से पहले गनाई बाजार है। गनाई के निकट प्राचीन कत्यूरी राजाओं का प्रसिद्ध वैराटगढ़ था। कुमाऊं की लोकप्रिय प्रेमगाथा 'राजुला मालूसाई' का कथानक इसी वैराटगढ़ में जीवन्त हुआ था। गनाई के पास अग्नेरी देवी मंदिर राजुला और मालूसाई के प्रणय का प्रत्यक्षदर्शी माना जाता है। पश्चिमी रामगंगा के तट पर चैत की अष्टमी को अग्नेरी देवी का मेला मनाया जाता है। कभी यह इलाका जबरदस्त खेती और घने जंगलों से धनी था। गनाई पुल पार करते ही बायीं ओर द्वाराहाट और दायीं ओर रामनगर की ओर सड़क है। चौखुटिया से रामनगर 128 किमी. है। इसी सड़क पर 13 किमी. पर मासी है, जहां का वैशाख में लगने वाला सोमनाथ मेला मशहूर है। कभी इसे 'सल्टिया' मेला भी कहा जाता था। इस मेले में रात भर झोड़ा, चांचरी, छपेली आदि नृत्य होते थे और दिन में प्रमुखतया पशुओं का व्यापार होता था।


चौखुटिया से द्वाराहाट (समुद्रतल से 1674 मीटर की ऊंचाई) 18 किमी. है। द्वाराहाट चीड़, देवदार, बांज, बुरांस और काफल के घने जंगलों के बीच बसा है। मानसखंड में द्वाराहाट को हिमालय की द्वारिका कहा गया है। कत्यूरी राजाओं के कला प्रेम और धर्म निष्ठा के प्रतीक के रूप में उनके द्वारा बनाए गये 30 से अधिक मंदिरों का समूह यहां है। राहुल सांकृत्यायन ने द्वाराहाट के मंदिरों का निर्माण 11वीं सदी के आस-पास माना हैं। द्वाराहाट के मंदिरों में महामृत्युंजय और गूजर देव मंदिरों का विशिष्ट महत्व है।


द्वाराहाट की छाप मेरे मन-मस्तिष्क में बचपन से ही 'ओ भिना कसकै जनूं द्वरहटा ?' (ओ जीजा, मैं कैसे जाऊं द्वाराहाट ?) कुमाऊंनी गीत से जुड़ी है। बचपन में आकाशवाणी के कलाकारों (इनमें शायद शेरदा 'अनपढ़' भी थे) को कभी जोशीमठ के नृसिंह मंदिर परिसर में इस गाने में नाचते-गाते देखा था। पहाड़ी ग्रामीण जनजीवन में द्वाराहाट जैसे केन्द्रीय स्थल आधुनिकता के प्रमुख आर्थिक और सांस्कृतिक आधार रहे हैं। इसीलिए पहाड़ के लोक साहित्य और लोक परम्पराओं में ग्रामीणों के शहरी आर्कषण के प्रतीक स्वरूप इनका जिक्र बखूबी हुआ है।


द्वाराहाट से अल्मोड़ा के लिए दो रास्ते हैं। एक रानीखेत (32 किमी) होते हुए और दूसरा सोमेश्वर (35 किमी.) से जा सकते हैं। हमें सोमेश्वर से अल्मोड़ा जाना है। द्वाराहाट से ही एशिया की सबसे खूबसूरत सोमेश्वर घाटी शुरू हो जाती है। द्वाराहाट से 6 किमी. चलकर 'दूनागिरी 8 किमी.' का बोर्ड सामने दिख रहा है (दूनागिरी पर्वत पर दूनागिरी देवी का मंदिर है। दूनागिरी वैष्णवी शक्तिपीठ है)। हम दूनागिरी वाली सड़क को छोड़कर नीचे वाली सड़क से आगे बढ़ते हैं। पहाड़ की ऊंची घार से बांज, बुरांश और चीड़ के जगंल से ढुलकती-लुढ़कती सड़क के सामने प्रकृत्ति का जो कैनवास दिख रहा है, वह अदभुत है। लम्बी-चौड़ी घाटी में धान और अन्य फसलों की हरितिमा फैली हुई है। धान के अलावा भट्ट और सोयाबीन की खेती यहां खूब होती है। कहीं भी खेत और मेंड़ बिना पैदावार के खाली नहीं है। मैं जब भी इस घाटी से गुजरता हूं, फसलों की महक से मन सरोबार हो जाता है। घान के पकने के समय तो उसकी खुशबू से तर सोमेश्वर घाटी का सफर और भी सुहावना हो जाता है। साल-भर पानी की भरपूर उपलब्धता के कारण इस उर्वरक घाटी में 12 महीने खेतों में कोई न कोई फसल रहती है। इसीलिए सोमेश्वर घाटी बारहनाजी खेती (एक खेत में, एक साथ, एक ही समय में 12 या अधिक फसलों का उगना और तैयार होने को बारहनाजी खेती कहा जाता है।) के लिए मशहूर है। इन्द्रेश और सीताराम सोमेश्वर घाटी की ओर पहली बार आये हैं। वे घाटी के सौंदर्य से अभीभूत हैं। इन्द्रेश कहते हैं कि भाईसहाब, आपने सोमेश्वर घाटी के बारे में बताने के लिए कहा था। वाकई, यह क्षेत्र बहुत खूबसूरत और धन्य-धान्य से परिपूर्ण लग रहा है। 'मैं तुम्हें बताने के साथ सोमेश्वर में 'भट्ट के डुबक' भी खिलाऊंगा। बस, खाते ही जाओगे, पेट भरेगा मन नहीं।'



मैं उन्हें बताता हूं कि 'पिलग्रिम' नाम से लिखने वाले अंग्रेज घुम्मकड़ पी. बैरन ने सन् 1832 में उत्तराखंड के अधिकांश पहाड़ी क्षेत्रों की यात्रा की थी। उन्होने अपने यात्रा संस्मरण को सन् 1844 में 'पिलग्रिम्स वण्डरिंग्स इन द हिमाला' शीर्षक से प्रकाशित किया था। इस किताब में उन्होने सोमेश्वर घाटी की प्राकृतिक सुन्दरता, भवनों की भव्यता, खेती की सम्पन्नता और लोगों की खुशहाली को अद्वितीय माना था। इसी प्रकार अंग्रेज प्रशासक बैटन ने भी सोमेश्वर घाटी को एशिया की सबसे खूबसूरत घाटी कहा था।


सोमेश्वर घाटी कोसी और सांई नदी के तट पर बसी है। कोसी को कौशल्या और सांई नदी को शालिवाहिनी भी कहा जाता है। शालि नाम घान का भी है। और यह क्षेत्र धान की उपज के मशहूर है। यहां दर्जनों किस्म की घान की भरपूर पैदावार होती है। सोमेश्वर घाटी 'हुड़िकिया बोल' गायन के लिए विख्यात है। लम्बे-चौड़े खेतों में एक ही परिवार के सदस्यों से रूपाई न हो पाने की दिक्कत से उभरने के लिए सामुहिक रूपाई का रिवाज यहां अभी भी प्रचलित है। उस समय 'हुड़िकिया बोल' की लय-ताल में लोकगीत गाते हुए रूपाई करते ग्रामीणों का उत्साह और आनंद अदभुत होता है। यह हमारे पहाड़ की सामुहिक उद्यमशीलता के सौंदर्य का भव्य दर्शन है।


सोमेश्वर घाटी की बसावत के बारे में कहा जाता है कि कुमाऊं की राजधानी चम्पावत से 16वीं शताब्दी में अल्मोड़ा स्थानांतरित होने पर चन्द राजाओं द्वारा बलशाली बोरा लोगों को यहां बसाया गया था। इसी कारण इस क्षेत्र में प्राचीन समय में सैनिक छावनियां थी। सोमेश्वर घाटी वल्ला और पल्ला बोरारौ पट्टी में फैली होने के कारण इसे 'बोरारौ घाटी' भी कहा जाता है। 'रौ' का अर्थ 'तालाब' और 'जागीर' दोनों होता है। कहा जाता है कि प्राचीन समय में यह घाटी तालाबों से समृद्ध थी। दूसरे अर्थ में बोरा लोगों के आधिपत्य के कारण उनकी जागीर वाले क्षेत्र को बोरारौ कहा गया।


द्वाराहाट से बिन्ता 20 किमी. है। अभी-अभी छुट्टी से छूटे राजकीय इंटर कालेज, बिन्ता के बच्चे हमसे गाडी में लिफ्ट की आस में हाथ आगे करते मिल रहे हैं। लिहाजा, तीन बच्चे भी अब हमारी गाड़ी में हैं। बिन्ता से 4 किमी. की पैदल चढ़ाई चलकर वे अपने घर पहुंचेगे। रोज का 14 किमी. पैदल आना-जाना उनका हो जाता है। मैं उनसे सोमेश्वर घाटी के मालौंज और लखनाड़ी गांवों के बारे में पूछता हूं। वे इन गांवों नहीं जानते हैं। इस पर मुझे कोई अचरज नहीं हुआ है। मैं अपने चामी गांव में रहते हुए इस बात को जानता हूं कि अब गांवों में भी बच्चे अपने परिवेश से दूर होते जा रहे हैं। मैं उन्हें बताता हूं कि प्रसिद्ध साहित्यकार गोविन्द बल्लभ पंत मालौंज गांव के थे। उनमें एक कहता है 'वे तो उप्र. के पहले मुख्यमंत्री थे'। अरे, भाई मुख्यमंत्री वाले पंत जी से अलग उन्हीं के नाम राशि के साहित्यकार गोविन्द बल्लभ पंत भी हुये थे। वो बच्चा बहुत बड़ा 'अच्छा !' कहकर मुस्कराता है। अब मैं लखनाड़ी गांव के अपने मित्र और ख्यातिप्राप्त साहित्यकार कपिलेश भोज और सोमेश्वर घाटी के बारे में बताता जा रहा हूं। परन्तु 'हमें यहीं उतरना है' कहकर एक बच्चे ने मेरे धारा-प्रवाह उपदेशात्मक भाषण को विराम दे दिया है। बिन्ता मोड़ से सीधे वाली सड़क बग्वाली पोखर से रानीखेत और बांयी ओर को मुड़ने वाली सड़क सोमेश्वर की ओर है। बिन्ता से सोमेश्वर 15 किमी. है। सोमेश्वर कस्बे में सांई और कोसी नदी का संगम होता है।



सोमेश्वर से मनान के बाद कोसी है। कोसी से पहले ही रानीखेत की ओर की सड़क पर 2 किमी. चलने के बाद बायें ओर के लिंक मार्ग से 3 किमी. दूरी पर कटारमल का सूर्य मंदिर (समुद्रतल से ऊंचाई 1414 मीटर) है। गढ़वाल में देवप्रयाग के पास पलेठी गांव में भी सूर्य मंदिर है। परन्तु प्रसिद्धि कोर्णाक के सूर्य मंदिर की ही है। कत्यूरी राजाओं द्वारा 9वीं शताब्दी में कटारमल मंदिर बनना प्रारंभ हुआ था। मुख्य मंदिर के ठीक सामने पूर्व दिशा की ओर अल्मोड़ा नगर का विहंगम दृश्य दिखाई दे रहा है। मुख्य मंदिर के साथ 44 छोटे-छोटे मंदिरों का भी समूह है। वर्तमान समय में सूर्यदेव की 12वीं शताब्दी में निर्मित मुख्य प्रतिमा राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संरक्षित की गई है। स्थानीय वास्तुशिल्प का यह उत्कृष्ट स्थल अभी भी अधिकांश पर्यटकों की नजरों से ओझल है। कटारमल गांव के लोगों को 2 किमी. की दूरी से पानी ढोते हुए देखकर तो यही लगता है जब नीति-नियंता इस पौराणिक स्थल में पेयजल जैसी मूलभूत सुविधा नहीं दे पा रहे हैं, तो उनसे पर्यटकों को इस दर्शनीय स्थल की ओर आकर्षित कराने की नीति बनाना और उसे लागू कराना तो दूर की बात है।


कोसी से अल्मोड़ा 12 किमी. है। घोड़े की पीठनुमा आकार वाले पहाड़ के दोनों ओर अल्मोड़ा पसरा है। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय अल्मोड़ा की खूबसूरती और निखर जाती है। कोसी से चलो तो पूरे 12 किमी. अल्मोड़ा आपको एकटक देखता रहेगा। आपकी नजरें भी उसी ओर रहेंगी। यह दोनों तरफ के मोह की आतुरता है। अल्मोड़ा की ओर आता आदमी मन ही मन कहता है, बस मैं आ ही गया, तुम्हारे पास और अल्मोड़ा के भाव ये संदेश देता है कि मैं देख तो रहा हूं तुम्हें, मेरे पास आते हुए।


शाम का सूरज अपने रोज के ठिकाने पर पहुंच रहा है, दूसरी तरफ अल्मोड़ा ने यह कहकर कि 'कितने दिनों बाद आये हो', भींच लिया है हमें, अपने आगोश में।


डाॅ. अरुण कुकसाल - यात्रा के साथी- सीताराम बहुगुणा और इन्द्रेश मैखुरी