पहाडीयों के लिए आईकन नारायण सिंह राणा

||पहाडीयों के लिए आईकन नारायण सिंह राणा||


चिलामू गांव (जौनपुर) का नौ साल का एक अबोध बालक जब दुनिया को पहचानने लगता है तब पिता की मौत और उसके अगले वर्ष मां की मौत ने बालक को अनाथ कर दिया। उसकी सारी जिम्मेदारी उम्र के अंतिम पड़ाव में खड़ी दादी के सिर पर आ गई । दादी को तब सबसे बड़ी चिंता यह थी कि उसकी मौत के बाद उसके अनाथ पौत्र का क्या होगा?


तब उसे एक बात सूझी कि क्यों न वह उसकी शादी करा दे ताकि उसकी सूनी हो चुकी जिंदगी के लिए एक राही मिल सके। दादी ने उसकी शादी एक आठ साल की बालिका से करा दी। तब वे शादी का अर्थ समझते तक नहीं थे। दादी बालक को आठवीं तक जैसे-तैसे पढ़ा सकी। फिर उसने भी हाथ खड़े कर दिए और बालक को गाय-भैंस चराने में लगा दिया।


दिन बीतते गए और बालक को दुनियादारी समझ में आने लगी। सुबह शाम तक गायों को जंगल में चराते रहने में उसे अपना भविष्य नजर नहीं आ रहा था इसलिए एक दिन एसएसबी की टेªनिंग के लिए गांव के आसपास के कुछ अन्य लड़कों के साथ 'सरहान'( हिमाचल प्रदेश) भाग गया। जहां अर्धसैनिक बल सीमांत क्षेत्र के लड़कों को 45 दिनों की गोरिल्ला टेªनिंग देते थे।


सरहान से घर लौटा तो मसूरी में फौज में भर्ती की खबर सुनी, बस मजबूत कदकाठी के मालिक इस लड़के ने मसूरी में भारत तिब्बत सीमा पुलिस की भर्ती परेड में हिस्सा लिया और सिपाही के रूप में इसका चयन हो गया।


संघर्ष के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते इस आनाथ बालक ने सफलता की इतनी बुलंदियां छुईं कि बडे़ बडे़ धन कुबेर भी उनसे रस्क करने लगे। उनका नाम है नारायण सिंह राणा उर्फ नाराणू, ग्राम चिलामू (जौनपुर) टिहरी गढ़वाल।


आज उन्हें अंतरराष्ट्रीय निशानेबाज जसपाल राणा के पिता, पूर्व मंत्री उत्तराखंड भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष, क्रीड़ा भारती के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, जसपाल राणा शूटिंग अकादमी के प्रबंध निदेशक व केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के समधी व कई अनाथ तथा विकलांग बच्चों को निशानेबाजी के क्षितिज पर चमकाने वाले गुरू दोणाचार्य के रूप में पहचाना जा सकता है।


कला व संस्कृति उनके रग-रग में बसी है। उनके प्रयासों से रवाँई-जौनपुर व जौनसार-बावर की लोकसंस्कृति को नई पहचान मिली है।


खैर, अब उनके संघर्ष की ओर लौटते हैं ताकि आने वाली पीढ़ी ऐसे लोगों के संघर्ष से कुछ प्रेरणा ले सके।
वे 1971 भारत-पाक युद्ध में जंग के मैदान में कूदे थे। उनकी बटालियन को लड़ाई में जाने का आदेश नहीं मिला था पर वह उन चन्द जांबाजों में शुमार था जिन्होंने लड़ाई में स्वेच्छा से जाना कबूल किया था। तब उनकी डायरी के वह 'शब्द' किसी को भी गौरवान्वित कर सकते हैं, जो उन्होंने अपनी बटालियन को युद्ध में जाने के आदेश मिलने के तुरंत बाद महिडांडा स्थित बैरक में अपनी डायरी में लिखे थे।


'मुझे भारत मां की सेवा का सुनहरा अवसर मिला है, धन्य हुआ। मैं भारत मां से वादा करता हूं कि उसकी रक्षा के लिए मैं पीठ पर गोली नहीं खाऊंगा। बल्कि दुश्मन की हर गोली का सीने पर स्वागत करूंगा...।' सीमा पर जांबाजी से लड़े और भारतीय सेना के जीत के तमंगे के साथ अपनी बैरक में लौटे।


आईटीबीपी में निशानेबाजी के वे राष्ट्रीय चैंपियन बने और अपने बच्चों जसपाल, सुभाष और बेटी सुषमा को भी निशानेबाज बनाने की भीष्म प्रतिज्ञा ली। 


वे एसपीजी में पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह व तत्पश्चात प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ रहे। पर उन्हें कुछ और ही बनना था इसलिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी और अपने बच्चों को निशानेबाजी के गुर सिखाने में जुट गए। दिल्ली जैसे शहर में बिना नौकरी के घर चलाना, बच्चांे को पढ़ाना व निशानेबाजी जैसे महंगे खेल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने का सपना निश्चित ही पहाड़ की तरह कठिन था। श्री राणा ने इसके लिए दिल्ली में सब्जी बेचने तक का काम किया। उनकी पत्नी श्रीमती श्यामादेवी ने बच्चों के लिए अपने गहने तक बेच डाले।


कहते हैं दिक्कतें बुलंद हौसलों के सामने हमेशा मात खाती हैं। उनकी मेहनत से उनके बड़े बेटे जसपाल राणा ने शूटिंग की दुनिया में ऐसा तहलका मचाया कि अंतरराष्ट्रीय शूटिंग के कई रिकाॅर्ड उनके नाम हो गए। उसे पद्मश्री, अर्जुन पुरस्कार सहित देश के कई प्रतिष्ठत सम्मान हासिल हो चुके हैं और वर्तमान समय में वे राष्ट्रीय जूनियर शूटिंग टीम के कोच हैं। छोटा बेटा सुभाष व पुत्री सुषमा भी अंतरराष्ट्रीय शूटर हैं।
आज श्री नारायण सिंह राणा ने नैनबाग में 'देवांशी' स्पोट्स स्कूल खोल कर स्थानीय बच्चों को पढ़ाई व खेल की दुनिया में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने का बीड़ा उठाया हैैै।


उनका सपना है कि एक दिन शिक्षा के लिए पलायन की विभीषिका झेल रहा पहाड़ शिक्षा का हब बनेगा और लोग मैदानी क्षेत्रों से शिक्षा के लिए पहाड़ों की ओर पलायन करेंगे।