यमुना को सजिन्दा रखने वाली तीन सौ जलधारायें सूखी

||यमुना को सजिन्दा रखने वाली तीन सौ जलधारायें सूखी||



अस्सी के दशक में यमुना पर दो बड़ी जल विद्युत परियोजनाऐं निर्माणाधीन हुई और जो बाद में प्रतिबंधित हो गई थी। तब ये योजनाऐं क्रमशः 300 व 600 मेगावाट की बनने वाली थी। वर्तमान में लगभग 40 साल के अन्तराल में ये योजनाऐं पुनः निर्माण के लिए तैयार की जा रही है। मगर इन योजनाओं का रूप यमुना में पानी की भारी कमी के कारण आधा से भी बहुत कम हो गया है। यानि अब योजनाऐं क्रमशः 90 व 160 मेंगावाट विद्युत उत्पादन करेगी। इससे अनुमान लगाईयेगा कि यमुना का पानी कितना कम हो गया है? यही नहीं यदि ये जलविद्युत परियोजनाऐं तत्काल बन चुकी होती तो आज का नैनबाग बाजार भी पानी में समा चुका होता। क्योंकि इन योजनाओं का जीरो प्वांईट तत्काल नैनबाग में ही था जो अब 17 किमी पीछे हट गया है।


यह सच है कि पानी की कमी के कारण कई योजनाऐं प्रभावित हुई है। गांव के गांव पानी के बिना दूसरी जगह बसने लग गये है। यही नहीं अब तो सरकारों के माथे पर भी पानी की समस्या की लकीरे दिखने लग गई है। ज्ञात हो कि पिछले दिनों उतराखण्ड विधानसभा में नदियों के सूखने पर चिन्ता व्यक्त की गई थी। की देश की आधी आबादी से भी अधिक को जीवन देने वाली गंगा और यमुना नदियों पर संकट तेजी से बढ़ रहा है। हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के कारण यहां दोनों नदियों की सहायक जलधाराएं तेजी से सूख रही हैं। इससे नदियों के जल स्तर में भारी गिरावट आ रही है। यह बात तब सामने आई जब उत्तराखंड सरकार द्वारा विधानसभा की पटल पर आर्थिक सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है। इस आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि बीते 150 वर्षों में गंगा और यमुना की 300 जलधाराएं पूरी तरह सूख चुकी हैं। यह भी बताया गया कि गंगा और यमुना नदियों की कुल 360 सहायक जलधाराएं थीं जिसमें से अब 300 पूरी तरह सूख चुकी हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पर्यावरण में आ रहे बदलावों के कारण दोनों नदियों की हिमालय से निकलने वाली 60 प्रतिशत जल धाराएं सूखने के कगार पर पहुंच गई हैं। इस रिपोर्ट पर सदन में गहरी चिंता जताई गई है। मगर इसके समाधान के क्या उपाय हों इस पर कोई ब्लू प्रिन्ट अब तक सामने नहीं आ पाया है।


उल्लेखनीय हो कि विधानसभा में प्रस्तुत आंकड़े इसलिए पुख्ता हैं कि दोनो आंकड़े सरकारी और विकास के कामकाज से जुड़े है। इसमें किसी भी पर्यावरणविद् और जनाान्दोलन की कोई बात नहीं जोड़ी गई है। यदि गंगा व यमुना के क्षेत्र के स्थानीय लोगो की बात को इस रिपोर्ट में जोड़ा जायेगा तो सरकार के विकास का काला चिट्ठा सामने आ जायेगा। यहां हम अभी यमुना की बात करेंगे तो पिछले 25 वर्षो तक यमनोत्री मंदिर के आसपास तीर्थयात्री यमनोत्री ग्लेशियर का भी दर्शन करते थे। मौजूदा समय में यहां कोई ग्लेशियर के नाम का एक छोटा सा बर्फ का टुकड़ा भी नहीं मिलता है। यमुना की धार अपने मूल स्रोत से ही सूखने के कगार पर आ चुकी है। यमनोत्री से 14 किमी के आगे की ओर हनुमान चट्टी में यमुना से हनुमान गंगा संगम बनाती है। यहीं पर एक माईक्रोहाईडिल भी पिछले 10 वर्षे से बन्द पड़ा है। क्योंकि जो हनुमान गंगा कभी यमुना की धारा को तीव्र गति से प्रवाहित करती थी उसकी धार भी बहुत ही कमजोर हो चुकी है। इससे आगे यमुना से सैकड़ो जलधाराये ऐसी थी जो वर्तमान में कहीं लुप्त प्राय ही हो चुकी है।


उधर गंगा का साक्षात उदाहरण वर्तमान का टिहरी बांध है। जिसका जलाशय सिर्फ व सिर्फ बरसात के दिनो ही भरता है। बाकि समय में यह जलाशय सूख जाता है और गंगा की जलधारा मृगमरिचिका जैसी दिखने लगती है। यही नहीं टिहरी बांध भी अपने वायदे के अनुरूप अब तक दो हजार मेगावाट विद्युत का उत्पादन नहीं कर पाया है। बजाय आधे से भी कम का टिहरी बांध से विद्युत उत्पादन हो रहा है। इस पर संबधित विभाग का कहना है कि गंगा में पानी इतना कम हो चुका है कि विद्युत उत्पादन की मुख्य ट्ररबाईन चल ही नहीं पा रही है। अर्थात अब तो स्पष्ट हो चुका है कि जब नदियों का पानी इतना कम हो चुका है इन नदियों को फीडबैक करने वाली लगभग सभी जलधारायें सूख चुकी है। अतएव यह तो एक प्रकार की समस्या है जिसे प्रमाणिक तौर पर बताया जा सकता है कि बारहमास संजिन्दा रहने वाली जलधारायें सूख चुकी है। इसीलिए तो गंगा और यमुना के माईके में पानी के लिए हा-हाकार मचा रहता है।


इधर वैज्ञानिको की माने तो वे स्पष्ट वक्तव्य देते हैं कि जलधाराओं का सूखना मौसम परिवर्तन का ही कारण है। जिसके लिए वे सुझाते है कि जैवविविधता का संरक्षण करना अनिवार्य हो चुका है। लोगो को अपने रहन-सहन में भोगविलासता को छोड़ना होगा। इस पर जानकारो का कहना है कि जनता के नुमाईन्दो को भी विकास की योजनाओं को स्थानीयता को मध्यनजर रखते हुए बनानी चाहिए। वे कहते हैं कि स्थानीय पर्यावरण व प्रकृति के विपरित जब भी कोई योजना बनती है तो वे सीधा-सीधा प्राकृतिक संसाधनो पर प्रहार करती है। जिसका खामियाजा आमजन को भुगतना पड़ता है। कुछ लोगो का मत है कि सरकारी स्तर पर जनता के नुमाईन्दे बिना तैयारी के विकास की कहानी लिख देते है। जैसे बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाऐं, कृषि विकास की बड़ी-बड़ी योजनाऐं बगैरह। इस तरह की योजनाओं से स्थानीयता पर गहरा घाव पड़ता है। ऐसी विशाल योजनाओं के कारण जल, जंगल, जमीन का अनियोजित दोहन होता है। सुझाव आया कि प्राकृतिक संसाधनो पर विशाल नहीं बल्कि छोटी व मंझौली योजनाऐं बनाय जाये जिससे स्थानीय लोगो को भी रोजगार मिलेगा और साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनो का भी संरक्षण होगा।


अगले पांच वर्ष जल संरक्षण के


उतराखण्ड सरकार का दावा है कि अगले पांच साल में चार हजार जल स्रोत बचाए जाएंगे। सरकारी प्रवक्ता के अनुसार गंगा और यमुना की जलधाराओं के सूखने और जमीन में पानी के स्तर में लगातार आ रही कमी को देखते हुए राज्य सरकार ने चार हजार जल स्रोतों को चिह्नित किया है। इनके जल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। इन जल स्रोतों को बचाने के लिए विशेष कार्य योजना तैयार की गई है। अगले पांच सालों में इस पर कार्य किया जाएगा। इसके साथ ही अन्य जल स्रोतों की मैपिंग भी कराई जा रही है।


व्यवस्था है पर प्रबन्धन नहीं


बता दें कि अब तक की सरकारें नदियों के संरक्षण के लिए सिर्फ गाल बजाती ही दिखाई दी है। 2014 से नदी संरक्षण का हो-हल्ला और ही तेज हुआ है। मगर नदियों को बचाने की मुहिम कमजोर ही दिखाई दे रही है। ज्ञात हो कि नमामि गंगे जैसी योजना के तहत गंगा और यमुना के कैचमेंट एरिया में राज्य में 23, 372 वर्ग किमी यानी कुल 43 प्रतिशत क्षेत्र में वनीकरण कार्य होने थे। इसके लिए 2017-18 में केंद्र सरकार द्वारा 10 करोड़ 87 लाख रुपये दिए गए। लेकिन इसमें से साढ़े पांच करोड़ ही खर्च हो पाए हैं।