अंगरेजियत और हम

अंगरेजियत और हम


कैलाश पपनै


वर्तमान दौर में गाँवों और कस्बों में "अंगरेजियत” का बोलबाला है। यूँ तो हिन्दी शब्दकोष में "अंगरेजियत" शब्द दिखाई नहीं देता लेकिन सामान्य बोलचाल में इस शब्द का बड़ा प्रयोग होता हैसंभवतः अंगरेजियत शब्द अंगरेज से विकसित हुआ है। ग्रामीण इलाका हो या कस्बा, अंगरेजी के टूटे-फूटे शब्दों में कुछ भी बोल दो तो क्या कहनेआस-पड़ोस, छोटे-बड़े सभी पूछेगे कि कौन से विद्यालय में पढ़ रहे हो। माँ-बाप के सामने तारीफों के पुल बाँध देंगे कि कितना होनहार बच्चा है, क्या खिलाते हो बच्चों को आदि आदि । हर अभिभावक अपने बच्चे को अंगरेजियत से सरोबार देखना चाहता है। आज के समाज में अगर कोई बच्चा या वयस्क अंगरेजी में गाली ही दे तो वही अपने गाँव-समाज में कौतुहल का विषय बन जाता है। वाह! क्या अंगरेजी बोलता है! फर्क नहीं पड़ता कि वह क्या बोल रहा है?


प्रश्न यह उठता है कि "मे आई गो टू टॉयलेट" यह वाक्य सिर्फ किसी प्राइवेट विद्यालय में रटकर सीखा गया है या “गुरुजी! क्या मैं बाहर जा सकता हूँ?" का सच “मे आई गो टू टॉयलेट" के भाव से अलग है? गाँव के सरकारी विद्यालय में पढ़ रहा बच्चा तहजीब से पेश आये, हाथ जोड़कर शिक्षक से बाहर जाने की आज्ञा ले तो बात आई-गयी हो जाती है लेकिन बच्चे के द्वारा "गुड मार्निंग' कहने या "मे आई गो टू टायलेट" के उच्चारण मात्र से घर-समाज में हलचल पैदा हो जाती है । बच्चा तो क्या, विद्यालय तक की चर्चा आम हो जाती है।


उत्तराखण्ड के गाँव अंगरेजियत के प्रभाव से अछूते नहीं। मेरी समझ में तो यही आता है कि अगर आयातित अंगरेजियत से सब कुछ सँवर जाता तो आजादी के बाद से अब तक के सफर में न केवल हर बच्चा अंगरेजी भाषा का माहिर होता, बल्कि अभिभावकों और अध्यापकों के मुखारविंदों से हिंदी या कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली नहीं बल्कि अंगरेजी भाषा के ही शब्द सुनायी देते। 


अपने आस-पड़ोस की दुनिया में अंगरेजियत का यह रूप कई मामलों में बड़ा अजीब दिखाई देता है। एक बात समझ में नहीं आती कि जब पहले सरकारी विद्यालयों में अंगरेजी की ए, बी, सी, डी कक्षा छ: से ही प्रारम्भ होती थी तो लोग कैसे अंगरेजी बोलना सीखते थे? मैं स्वयं कई ऐसे लोगों से मिला हूँ जो बुजुर्ग हैं,संध्या केन्द्रों में भ्रमण के दौरान मैंने एक सज्जन से बात की। उनसे पूछा कि वे शाम को अपने बच्चे को केन्द्र में क्यों नहीं भेजते? उनका जवाब स्पष्ट था, "आप अंगरेजी विषय पर तो काम करते ही नहीं हो।" बातचीत चली तो दूर तलक गयी। मालूम हुआ कि उनके पड़ोस का बच्चा जब प्राइवेट स्कूल से घर आकर अपनी माँ को 'मम्मी' कहता है और उनका बच्चा 'इजा' शब्द में ही सिमट जाता है, तो घर-परिवार में सभी को कुछ ऐसा महसूस होता है मानो वे पिछड़ गये और बाकी लोग आगे निकल गये हैं। मैंने एक बार संध्या केन्द्र में बच्चों से पूछा कि उन्हें सबसे अच्छा विषय कौन सा लगता है? एक साथ कई बच्चों ने कहा, "अंगरेजी" कारण पूछने पर एक बच्चे ने जबाब दिया कि पापा-मम्मी ने कहा है कि अंगरेजी सीखनी ही है। बच्चा मायूस हो गया, कोई अच्छी तरह अंगरेजी पढ़ाता ही नहीं, वह कैसे सीखेगा? इस बात से समझ में आता है कि बचपन को खोखला बनाने का काम किस मुस्तैदी से चल रहा है।  बच्चा ना तो मातृ-भाषा और स्थानीय बोली का सम्मान करने की शिक्षा एवं क्षमता पाता है ना ही अंगरेजी भाषा में उसकी पकड़ बनती है। फलस्वरूप आत्महीनता की भावना जड़ जमाने लगती है।


अभिभावक यही सोचकर बच्चे को पढ़ाते हैं कि वह भविष्य में अच्छी नौकरी करेगा। वे यह भी समझते हैं कि अच्छी नौकरी मिलना तभी सम्भव है जब बच्चे को प्राइवेट विद्यालयों में पढ़ाया जाये। पाँच-छ: किमी दूर होने के बावजूद दादा-दादी बच्चे का हाथ पकड़कर उसे "अंगरेजी विद्यालय में छोड़ने और लेने के लिए जाते हैं। गाँव में ही स्थित सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को "अंगरेजी कम है" कह कर नकार देते हैं। चाहे सरकारी विद्यालयों में साज-सुविधा प्राइवेट स्कूलों से बढ़ कर रही हो, फिर भी, अभिभावकों को अंगरेजियत का आकर्षण अधिक फीस देकर "अंगरेजी स्कूल" में भेजने को प्रेरित करता है। मेरी समझ से अगर शिक्षा का आरंभ अपनी बोली-भाषा को साथ लेकर किया जाये तो बच्चों को समझने में आसानी होगी। एक घर में शादी के बाद ससुर जी ने नई बहू से मछली बनाने को कहा,बहू ने मछली को प्रेशर कुकर में डाला और पाँच सीटियाँ लगा दी। उसके मायके में मछली बनती ही नहीं थी। नयी बहू ससुर के सामने कुछ बोल भी नहीं सकती थी, इसलिए नमक-मसाले के साथ मछली उबाल कर ही "व्यंजन बना बैठी। यही हाल अंगरेजी का है।घर की बोली से शिक्षा की शुरुआत करें तो यह उम्मीद रहती है कि बच्चे स्थानीय बोली-भाषा को अच्छी तरह सीख जायेंगे। उसके बाद अन्य भाषाएं भी सीख लेंगे। मैं एक भाषा-विशेष का विरोध नहीं कर रहा हूँ बल्कि अंगरेजियत की पोल खोल रहा हूँ। अंगरेजियत को पकड़ कर हम बैठ गए हैं और सोचते हैं कि इसके बिना अब जिंदगी बेगानी है। मैं एक गाँव में मेहमान बनकर गया था। दिल्ली से आये हुए एक दंपत्ति भी उस शादी में सम्मिलित थे गाँव-पड़ोस के निवासी उनसे मिलने के लिए पहुँचे । बच्चों की एक टोली भी वहाँ पहुँच गयी। एक बच्चे ने गुड-मार्निंग कहा और अपना परिचय अंगरेजी में दिया।यह नजारा देखने लायक था अन्य बातों को छोड़कर चर्चा इसी बच्चे पर टिक गयी । जानकारी ली गयी कि वह बच्चा किसका है, कहाँ से आया है, गाँव में कैसे पढ़ता है। सभी पूछताछ बारीकी से हुई। यह सब देखकर महसूस हुआ कि वास्तव में अभिभावकों के उपर अंगरेजियत का भूत कितना सिर चढ़कर बोलता है। एक गाँव में महिला संगठन की गोष्ठी के दौरान संस्था के कछ साथी आपस में अंगरेजी में बात कर रहे थे। पास बैठी दो महिलायें कहने लगीं, “कतू दूर बै ऐ रयिं और भलि अंगरेजी बुलाण रयिं हमर नानतिन तो यस्स भै''। उस भाषा में क्या कहा–बोला गया, वे समझ नहीं पायीं। इस भाषा से उनका कुछ लेना-देना भी नहीं था। उनका जीवन अपनी बोली से चलता-बढ़ता है, लेकिन चाह उनकी भी अंगरेजियत की हो गईइस घटना के बारे में सोचता हूँ तो मुझे बचपन के दिन याद आते हैं। जब मेरे गाँव धमेड़ा में कोई दिल्ली से वापस आकर वहाँ की बातें बताता तो कहता कि वह जगह ऐसी है जहाँ यात्री चलती बस से उतरते है और चलती बस में ही चढ़ते है। तब हम सभी बच्चे अनुमान लगाते कि वहाँ पर गाड़ी कभी रूकती ही नहीं होगीबाल–मस्तिष्क में इसका असर यह हुआ कि मैं युवावस्था में भी कई वर्षों तक दिल्ली जाने से डरता रहा कि कैसे चलती गाड़ी से उतरूँगा और चढूँगा। इसी तरह, अंगरेजियत से सरोबार नागरिक स्वयं को नये युग के मसीहा से जरा भी कम नहीं समझते । सच्चाई तो यह है कि अनेक भाषाओ का ज्ञान होना बहुत अच्छी बात है पर अपनी भाषा और बोली में भी कोई कमी तो नहीं।