असमानता का एक पहलू यह भी

असमानता का एक पहलू यह भी


हिना बिष्ट


मैं दन्यां क्षेत्र के किशोरी संगठन की सदस्य हूँ। कक्षा नौ में पढ़ती हूँ। विद्यालय और गाँवों-शहरों में अनौपचारिक बातचीत के बीच लगातार अभिभावकों को यह कहते हुए सुनती हूँ कि लड़की पराया धन है। बड़ी होकर अपने ससुराल चली जायेगी। इस वजह से जब लड़का पैदा होता है तो घर में शहनाई बजती है। लड़की पैदा होती है तो मातम छा जाता है। इस भेदभाव पर एक स्वरचित कहानी इस प्रकार से है:


एक गाँव में दो बच्चे रहते थे। दोनों ही भाई-बहन बहुत झगड़ते थे। माँ लड़की को कम दूध परोसती और भाई को ज्यादा देती। लड़की चुप नहीं रहती थी । वह चुपचाप दूध निकाल कर स्वयं पी लेती ।


एक दिन भाई ने कहा कि वह खेलने जा रहा है । माँ ने तुरंत अनुमति दे दी। बहन ने पूछा तो कहा कि वह खेलने ना जाये लड़की को बहुत गुस्सा आया। उसने प्रश्न किया कि अगर भाई जा सकता है तो वह क्यों नहीं जा सकती। माँ ने बताया कि लड़कियों को उछल-कूद करना शोभा नहीं देता। लोग ना जाने कैसी-कैसी बातें बनायेंगे। कहेंगे कि लड़की खेलने गयी हैलड़की ने जवाब दिया कि अगर लोग कहते हैं तो कहें। इस वजह से वह खेलना बन्द नहीं करेगी। अभी खेलने की उम्र है तो खेलना चाहिए। यह कहकर वह खेलने चली गयी।


भेदभाव केवल घर में ही नहीं, विद्यालय में भी होता है। अध्यापक कक्षा में होशियार बच्चों को सामने की कुर्सियों पर बैठाते हैं।मेरा मानना है कि जो बच्चियाँ पढ़ने में होशियार नहीं हैं उन्हें ज्यादा मौके मिलने चाहिए।


मेरी एक दोस्त है, वह एक दलित परिवार की बेटी है।  मैं कहती हूँ कि भगवान ने उसे अन्य सभी लड़कियों की तरह शरीर दिया है, घर दिया है, फिर भेदभाव क्यों किया जाये? भेदभाव को जड़ से उखाड़ कर फेंकने की जरूरत है। अब मुझे सब पता है। मैं अपने गाँव और विद्यालय की सभी लड़कियों से कहती हूँ कि भेदभाव को रोको, तभी हम सब सहेलियाँ मिलकर आगे बढ़ सकेंगी। किशोरी कार्यशालाओं में भाग लेने से पहले मुझे मालुम नहीं था कि समाज में असमानता का व्यवहार भेदभाव की वजह से है। मैंने कभी इस विषय पर गौर नहीं किया था लेकिन अब मेरी सोच बदल रही है।