बातें हमारी (नंदा)

बातें हमारी (नंदा)   


अनुराधा पाण्डे


सन् 1987-88 में उत्तराखण्ड के गाँवों में फैली हुई छोटी-छोटी स्वैच्छिक संस्थाओं को एक साथ जोड़कर पर्यावरण की सुरक्षा और शिक्षा के उत्थान के विचार से एक रचनात्मक अभियान की शुरूआत हुई उत्तराखण्ड सेवा निधि पर्यावरण शिक्षा संस्थान, अल्मोड़ा, ने शिक्षा विभाग, भारत सरकार, के सामने विद्यालयों, ग्राम-आधारित स्वैच्छिक संस्थाओं और स्थानीय निवासियों के साथ मिलकर शिक्षा में सुधार लाने का प्रस्ताव रखा। चूंकि अस्सी-नब्बे के दशकों में उत्तराखण्ड के पहाड़ी जिलों के दूर-दराज के इलाकों में शिक्षा की सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी, भारत सरकार ने बच्चों की शिक्षा के लिए बालवाड़ी केन्द्र खोलने और विद्यालयों में पर्यावरण शिक्षा का पाठ्यक्रम विकसित करने के लिए सहर्ष स्वीकृति दे दीसंस्थान ने पर्यावरण शिक्षा का एक नया पाठ्यक्रम (हमारी धरती, हमारा जीवन) विकसित किया। सरकारी विद्यालयों में छात्र-छात्राएं पर्यावरण शिक्षा को एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ने लगेसाथ ही, संस्थान ने विद्यालयों में शौचालय बनाये ।


यह वह समय था जब दूर-दराज के अनेक गाँवों में पहली बार शौचालय बने। ग्रामवासी विद्यालयों में बने हुए शौचालयों को देखने के लिए आते शौचालय ग्रामवासियों के लिए जिज्ञासा एवं कौतुहल का विषय बन गयाउस वक्त, ग्रामवासी कहते कि गाँवों के चारों तरफ जंगल हैं, खाली जमीन है, उन्हें कमरा बनाने या स्थान विशेष की कोई आवश्यकता नहीं है। शौचालय को "अशुद्ध स्थान" माना जाता। बुजुर्ग शौच के बाद "विशेष स्नान" कर अशुद्ध हो आये शरीर को शुद्ध करने का उपक्रम करते। स्वैच्छिक संस्थाओं के सामने निरंतर यह समस्या बनी रहती कि ग्रामवासियों को शौचालय बनाने के लिए कैसे प्रेरित किया जाये संस्थान ने जन-जागरण के लिए नवयुवकों की एक टोली को नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से संदेश फैलाने की जिम्मेदारी दी। इस तरह, गाँव-गाँव में नाटक और स्लाइड-शो आयोजित किये जाने लगे। धीरे-धीरे ग्रामवासियों, खासकर महिलाओं, से बातचीत करते हुए एक प्रभावी तरीका उभर आया ।


संस्थाओं के प्रतिनिधि पानी की उपलब्धि, साफ-सफाई, स्वास्थ्य और शौचालय निर्माण के मुद्दों को आपस में जोड़ते हुए महिला संगठनों की गोष्ठियाँ आयोजित करने लगे। संगठन निर्माण के शुरूआती दौर में गोष्ठियों में बड़ी संख्या में पुरूष और नवयुवक भी शामिल रहतेसाफ-सफाई एवं स्वास्थ्य के मुद्दों पर चर्चा होतीउन गाँवों में विशेष ध्यान दिया जाता जहाँ गर्मी और बरसात का मौसम आते ही उल्टी-दस्त की बीमारियाँ फैल जाती थींशौचालय न होने की दशा में ग्रामवासी जल-जनित बीमारियों से लगातार पीड़ित रहते थे। उनकी मुश्किलों का कोई अंत ना होता क्योंकि दूर-दराज के गाँवों में इलाज की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं थी। झाड़-फूंक और पूजा-पाठ से बीमारियों को दूर करने के प्रयास किये जाते। किसी को फायदा हो जाता लेकिन कुछ लोग गंभीर रूप से बीमार हो जाते । पीलिया, टाइफाइड, उल्टी-दस्त आदि जल-जनित रोग हैं, इस तर्क को ग्रामवासी सरलता से नहीं स्वीकारते थे।


गोष्ठियों में तर्क-वितर्क, वाद-विवादों का लंबा दौर चलता। अनेकानेक गोष्ठियाँ करने के बाद जरा सा बदलाव नजर आता। खुले स्थानों में शौच करने से नौले-धारे, नदी-गधेरे (जल स्रोत) सभी प्रभावित होते हैं और दूषित जल का असर शरीर पर अनेक तरह से होता है, यह समझ विकसित करने में ही महीनों लग जातेधीरे-धीरे गाँवों में निरंतर खुली चर्चाओं और स्वैच्छिक संस्थाओं की मेहनत का असर यह हुआ कि कुछ परिवार शौचालय बनाने के लिए सहमत हुए। संस्थान ने शौचालय की सीट और सीमेंट-सरिया खरीदने के लिए आंशिक मदद की। लाभान्वित परिवारों ने दीवारें एवं छत बनाने, गड्ढा खोदने का काम स्वयं किया। जिन परिवारों के पास दीवार आदि बनाने के लिए धन उपलब्ध नहीं था, वे टिन की चादर या टाट-पट्टी लगाकर शौचालय की जगह को सुरक्षित करने लगे। कभी कोई परिवार दरवाजा लगाने में असमर्थ होता तो मोटे कपड़े का पर्दा लटका कर काम चला लेताकुछ धन इकट्ठा हो जाने के बाद दरवाजा लगाकर शौचालय को सुधार लेता। ज्यों-ज्यों गाँवों में शौचालय बनने लगे, कार्यक्रम का प्रचार-प्रसार स्वयं होने लगा। पड़ोसी एवं आस-पास के गाँवों के निवासी आते-जाते हुए शौचालयों को देखते और उसके उपयोग पर चर्चा करते निर्माण की प्रक्रिया के संबंध में सलाह-मशविरा भी हो जाता।


इस तरह, ग्रामवासी संस्थाओं से संपर्क करके शौचालय बनाने की इच्छा जाहिर करने लगे संस्थान द्वारा सिर्फ आठ सौ रूपया प्रति शौचालय की मदद दी जाती लेकिन स्वप्रेरित परिवार स्वयं धन खर्च करने एवं श्रमदान करने से पीछे ना हटते । एक गाँव में किसी ग्रामवासी ने कहा, "आठ सौ रूपये में शौचालय नहीं बनता लेकिन संस्था ने चिंगारी डाल दी है। अब जब तक शौचालय नहीं बन जाता, दिल में चैन नहीं जैसे चिंगारी से आग फैलती है वैसे ही ये काम भी फैलना ही है। इस तरह, गाँवों में शौचालय निर्माण का काम जोर पकड़ने लगा। तभी कार्यक्रम के लिए आर्थिक मदद दे रहे शिक्षा विभाग ने प्रश्न किया कि पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम के तहत शौचालय क्यों बनाये जायें? पर्यावरण शिक्षा का काम तो शिक्षा विभाग की परिधि में है लेकिन महिला संगठनों के माध्यम से शौचालय बनाने का काम तो ग्राम-विकास मंत्रालय के सहयोग से किया जाना चाहिए। ग्राम विकास के कार्यों में शिक्षा विभाग क्यों मदद करे? इस प्रश्न के परिणाम दूरगामी थेप्रश्नों के जवाब देने की प्रक्रिया में भारत सरकार और ग्रामवासियों, खासकर महिलाओं, के बीच संवाद स्थापित हुआ। पर्यावरण शिक्षा संस्थान अल्मोड़ा में शिक्षा विभाग, भारत सरकार, के उच्चतम अधिकारियों एवं ग्रामीण महिला-पुरूषों के बीच बातचीत होने लगी। साथ ही, संस्थान ने पर्यावरण शिक्षा की परिभाषा और भाषा का विस्तार किया।


पर्यावरण शिक्षा का अर्थ सिर्फ किताबी शिक्षण नहीं है। केवल किताबी ज्ञान अर्जित करने की अवस्था में सिमट जाने से विद्यार्थी परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लेते हैं लेकिन इससे दैनिक जीवन में आने वाली समस्याएं हल नहीं होती। खासकर, उत्तराखण्ड में तो जल-जंगल-जमीन और जानवरों से जुड़ी हुई समस्याएं ग्रामवासियों की आजीविका और जीवन स्तर को गहराई से प्रभावित करती हैं । ऐसी स्थिति में पर्यावरण शिक्षा का महत्व तभी सार्थक होता है जब लोगों की दैनिक जीवन की समस्याएं हल हों, सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ रचनात्मक काम हों। इस तरह, शिक्षा विभाग की मदद से ग्रामीण जीवन, पर्यावरण एवं शिक्षा संबंधी मुद्दों को एक समग्र रूप में देखा जा सका। धीरे धीरे महिला संगठनों के माध्यम से शौचालय निर्माण का काम कुमाऊँ गढ़वाल के पर्वतीय जिलों में विस्तार पाने लगा। इस प्रक्रिया में सामाजिक असमानता से प्रेरित अनेक भ्रांतियों से सामना हुआ। रूढ़ियाँ टूटी और नयी दिशाएं स्पष्ट होती गयी। जैसे–कार्यक्रम की शुरूआत के दौर में महिलाओं को माहवारी एवं गर्भवस्था के दौरान शौचालयों के उपयोग की सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली अनेक इलाकों में स्त्रियों को बाहर जंगल में जाने को कहा जाता ताकि शौचालय "अशुद्ध" ना हों और परिवार के अन्य सदस्य उसका इस्तेमाल कर सकें। ग्रामवासियों के दृष्टिकोण में आ रहा यह बदलाव अत्यंत महत्वपूर्ण था।


जिस शौचालय को "अशुद्ध स्थान” माना जाता था, अब वही स्थान प्रजनन क्षमता रखने वाली स्त्रियों के "शरीर की अशुद्धि” का मानक बनने लगाइस बदलाव से संस्था प्रतिनिधियों के सामने एक नयी चुनौती खड़ी हो गयी। परिणामस्वरूप उत्तराखण्ड महिला परिषद् के मार्गदर्शन में प्रजनन की प्रक्रिया, जल की उपलब्धि और शौचालय के उपयोग संबंधी मसलों पर गाँव-गाँव में चर्चाएं शुरू हुई। धीरे-धीरे, कुछ वर्षों के बाद इन चर्चाओं के सुपरिणाम सामने आये। जिन गाँवों में किशोरियाँ माहवारी के दौरान अलग से बैठी रहती थीं, अब वे रोज विद्यालय जाने लगीं।इस वर्ष संपन्न हुए पंचायती राज के चुनावों के उपरान्त अब गाँवों के लिए आगामी पाँच वर्षों में विकास के कार्यों का खाका तैयार हो रहा है। संभावना है कि गाँवों में शौचालय निर्माण का कार्य भी जोर पकड़ेगा। इस वजह से उत्तराखण्ड महिला परिषद् से जुड़े संगठनों की आवाज सुनने और उनके अनुभवों से लाभ ले पाने का मुद्दा महत्वपूर्ण हो जाता है। संगठनों द्वारा लिये गये निर्णयों से बने शौचालय सिर्फ निर्माण को महत्व नहीं देते बल्कि जन-जागरूकता एवं शिक्षण की भी पैरवी करते हैं। शौचालय की साफ-सफाई, उपयोग के तरीके पर चर्चा करते हैंयदि गाँव में पानी की कमी है तो भी शौचालय साफ रहेंगे, यह सुनिश्चित करते हैंपानी की उपलब्धि बढ़ाने के प्रयत्न करते हैंशिक्षण से समझ बनती है और ग्रामवासी कार्यक्रम को सहज रूप से स्वीकार कर पाते हैं। सिर्फ धन देने से शौचालय बनाने का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाताआर्थिक मदद के साथ-साथ जागरूकता और शिक्षण अत्यंत जरूरी हैंयह एक सुखद विषय है कि राज्य में जून 2014 में संपन्न हुए पंचायती चुनावों में उत्तराखण्ड महिला परिषद् के सहयोग एवं ग्रामवासियों की कोशिशों से लगभग 500 महिलायें प्रधान और पंच मनोनीत हुई हैं। बारह महिलायें क्षेत्र पंचायत सदस्य चुनी गयी हैं। महिला संगठनों की अध्यक्षा रह चुकी दो महिलायें जिला पंचायत सदस्य के पद का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। उम्मीद है, आगामी पाँच वर्षों में महिला पंचायत प्रतिनिधि संगठनों द्वारा अर्जित ज्ञान का उपयोग करते हुए निष्पक्ष भाव से ईमानदारी के साथ सभी ग्रामवासियों के हित में काम करेंगी। साथ ही, ग्राम प्रधानों के संगठन की अध्यक्षा चुनी गयी प्रतिनिधि विकास की सोच को ग्रामोन्नमुख योजनाओं के क्रियान्वयन की प्रक्रिया से जोड़ते हुए काम करेंगी। क्षेत्र के प्रधानों को नेतृत्व दे रही प्रतिनिधि ना सिर्फ महिला केन्द्रित विकास के पक्ष में वातावरण बनायेंगी बल्कि समाज को बाँध कर निश्चित दिशा में आगे बढ़ेगी। उन गरीब परिवारों, स्त्रियों, दलित समुदायों की मदद करेंगी, जिन तक विकास की योजनाएं नहीं पहुँचती। पंचायतों में पहुँची हुई सक्रिय स्त्रियाँ उत्तराखण्ड को निर्मल, स्वच्छ और सहज जीवन जीने योग्य स्थान बनाने में अभूतपूर्व योगदान दे सकती हैं।


नंदा के इस अंक में महिला संगठनों और संस्थाओं के प्रतिनिधियों के साथ-साथ किशोरी संगठनों की सदस्याओं के लेख शामिल किये गये हैं। कक्षा नौ-दस में अध्ययनरत इन किशोरियों ने कार्यशालाओं से अर्जित समझ को आधार बना कर लेख लिखे हैं। निश्चित ही, यह एक सराहनीय कदम है। इसके अतिरिक्त महिला संगठनों की उन सदस्याओं के लेख भी इस अंक में शामिल हैं जो स्वयं कभी भी विद्यालय नहीं गयीं, परंतु किसी अन्य स्त्री की मदद से अपने अनुभवों को लिपिबद्ध कर सकी हैं साथ ही, महिलाओं को शौचालयों के उपयोग की स्वीकृति मिलीकिशोरियों और महिलाओं पर लगी सामाजिक रोक की जकड़न ढ़ीली हुई तो इसका सकारात्मक असर शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही उनके मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर भी हआ उत्तराखण्ड महिला परिषद् से जुड़े हुए तमाम संगठन शौचालय निर्माण संबंधी सभी निर्णय स्वयं लेते हैं गाँवों में संगठनों की गोष्ठियों में यह चर्चा होती है कि आर्थिक मदद के लिए प्राथमिकता किसे दी जाये। चूँकि संगठन में गाँव की सभी महिलायें सदस्य होती है, यह निर्णय लेना आसान हो जाता है कि पहले मदद की जरूरत किसे है। बहुधा, गाँव में सबसे गरीब परिवार एवं विधवा और परित्यक्ता स्त्रियों को प्राथमिकता दी जाती हैसंगठनों की सदस्याएं पत्थर, बालू आदि सामग्री इकट्ठा करके एकल महिलाओं की मदद करती हैंइस सहयोग से गाँवों में अकेली रह रही बुजुर्ग स्त्रियों को बहुत फायदा हुआ है।