बरखामासे की पानी परंपराएँ

||बरखामासे की पानी परंपराएँ||


26 को पडवा. 27 को दूज, 28 को तीज...'' अपनी अंगुलियों पर तिथि गिनते-गिनते ददा अपने खेटे बेटे पर अचानक ही बरस पड़े - "क्यों रे! तीज सर पे आय गय और ये गाँव वालेन को कौनव होसय नहीं है? गर्मी और बरखा को इंतजाम हर बरस कय काम है; इन्द्र देवता पानी देइहंय. तो कटोरा झाड़-पोंछ के तैयार रखय का परी कि नाही? ई कौनव पहली बार है? पर देखवतो. जैसे सबके सब भांग खाय के परे हैं। न राय, न मसविरा, न तैयारी, ऐसव अंधेर कबव भवा हा?... सत्यानाश!''


दद्दा ने अपनी लाठी उठाई और चल पड़े गाँव जगाने। उसी शाम गाँव में बैठक हुई। हर साल की तरह तय हुआ - "अक्षया तृतीया के दिन हर घर मा बिटियन को सरबत पियावा जाई। राहगीरन की खातिर जेठ अंत तक प्याऊ लगी। गाँव के पाँचों तालाबन कय सफाई और मरम्मरत कय शुरुआत होई। खेतव एक छोटमोट तलाब हय। सो खेतन कय मेड़ दुरुस्त करय का परी। सबकय इंतजाम होई, तो गोरू-बछरू अउर चिरियन का प्यासी मरिहंय? उन्हउन कय इंतजाम करय का परी। के के का का करी, एहकय जिम्मेदारिव तय कर दीन गय।" तैयारी परंपरा अवध के एक गाँव में यह जो कुछ हुआ, भारत के हर इलाके में गर्मी और बारिश आने से पूर्व तैयारी करने को कमोबेश ऐसीही पानी परंपरा है। पहले ददा थे, वेजगा देते थे कि ''समुद्र ने मेघ देवता को भेजा है, हम सभी को पानी पिलाने।


पानी अधिकतम 60 दिन बरसेगा, उसी से सालभर काम चलाना है। अगले साल समुद्र ने पानी नहीं भेजा तो उसके लिए भी धरती की तिजोरी में 'वॉटर बैलेंस' सुरक्षित रखना है।" एक साल नहीं भेजा तो अकाल, दो साल नहीं भेजा तो दुष्काल और तीन साल नहीं भेजा तो त्रिकाल। अकाल यानी पानी की कमी, दुष्काल यानी पानी और अन्न का संकट और त्रिकाल यानी पानी, अन्न और चारे... तीनों का संकट, अर्थात गऊमार अकाल। माता पर संकट तो संतान पर भी संकट। अतः त्रिकाल में भी जीवन पर संकट न आए, हर बारिश में इतना पानी संजोना है। अपने उपयोग हेतु तालाब ऐसी जगह बनाना है जहाँ धरती का पेट फटा न हो। ऐसी जगह बनाए तालाब में सालभर पानी रुका रहेगा।


कुछ तालाब ऐसी जगह पर बनाने हैंजहाँ धरती का पेट फटा हुआ होता है, ऐसे तालाब का पानी बहुत जल्दी धरती की तिजोरी में सुरक्षित हो जाएगा। शेष पानी को समुद्र को वापस लौटाना है, तभी तो समुद्र अगले बरस पानी भेजेगा। समुद्र को पानी लौटाने का काम नदियों के जिम्मे है। नदी को अपनी बाढ़ से मिट्टी और भूजल का शोधन करना है। बाढ़ में साथ लाई गाद से मैदान और डेल्टा बनाने हैं। उन्हें शोधित कर उपजाऊ बनाना है।


अतः नदियों को उनका काम करने देना है। भारत के पौराणिक ग्रंथ तथा महात्मा विदर से लेकर ज्ञानी चाणक्य तक का ज्ञान उठाकर देख लीजिए, नदियों से छेड़छाड़ की अनुमति कभी किसी को नहीं दी गई। बुंदेलखण्ड की अर्थचन्द्राकार पाटी में नदियाँ भी कम हैं और भूमि के नीचे चहानी परत की वजह से धरती का पेट भी बेहद छोटा है, अतः यहाँ ज्यादा तालाब बनाने पड़ेंगे, चारागाहों के लिए ज्यादा जगह छोड़नी पड़ेगी। कम पानी की संभावना हो तो कम पानी की फसल और सिंचाई की उचित तकनीक का चुनाव करना होगाबुंदेलखण्डकी गहता क्षेत्र, वन क्षेत्र और साधना क्षेत्र के रूप में है। गर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने अपने वनवासकाल में बंदेलखण्डके चित्रकट को इसी रूप में चुना। इसे इसी रूप में संरक्षित और विकसित करना पड़ेगा। योगी श्री आदित्यनाथ जी परंपरा के निर्देश को समझे।


बुंदेलखण्ड में बड़े उद्योग ले जाने की गलती न करें। . खैर, गौरतलब है कि भारत के हर इलाके में मौजूद ऐसा लोक-ज्ञान पारंपरिक है। यह कागजी ग्रंथ की बजाए श्रव्य-शास्त्र बनकर एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक जाता था। कुण्ड, टांके, खेत तलाई, खडीन, चाल, खाल, आहर-पाइन... कहाँ क्या बनाना ठीक है, दद्दा सब जानता है और सब बताता है। दद्दा अनपढ़ भले ही हो, पानी के मामले में अज्ञानी कभी नहीं था। _ भारत की पानी परंपरा ने उसे कभी अज्ञानी रहने ही नहीं दिया। दद्दा अभी भी हैं, लेकिन उनकी कोई सनता नहीं है। पहले दद्दा और बुढी अम्मा ही ग्रामगुरु थे। पहले गामगुरु का कहा राजा भी मानता था। जैसलमेर का मामूली राजा भी पडीसर के तालाब की गाद निकासी के काम में सम्मिलित होता था। जलसंकट आए तो जनक जैसा राजा भी हल-बैल लेकर खेत में उतर जाता था। अब सरकार हैनेता, अफसर ठेकेदार कर्जदाता और बाजार का गठजोड है। तब राजा जनता के और ऋषि प्रकृति के प्रतिनिधि थे। अब प्रधान, विधायक, सांसद, वैज्ञानिक... सब के सब बाजार के प्रतिनिधि होते जा रहे मालम होते हैं। वे कहते हैं कि कोई कुछ मत करो, सरकार सभी के पानी का इंतजाम करेगी, बाजार करेगादुर्योग से सश्री उमाजी भी यही कह रही है। वह बुंदेलखण्ड में केन-बेतवा को जोड़ने की जिद्द कर रही हैं।


वह भूल गई हैं कि भारत की पानी मंत्री होने के साथ-साथ एक साध्वी के रूप में वह भारतीय देशज ज्ञान, परंपरा और संस्कार की प्रतिनिधि भी हैं। सगुन परंपरा पानी परंपरा के इलाकाई ज्ञान की दृष्टि से भारत को 500 से ज्यादा भू-सांस्कृतिक क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है। इन्हें देशज भाषा में 'देस' कहा जाता था। हर देसके अपने-अपने घाघ, भड़री, भोपा और भगत थे। र दस आषाढ़ से लेकर भादों तक बारिश कैसी होगी, इसका सगन फागुन में ही ले लिया जाता था। राजस्थान, गजरात जैसे कम पानी के इलाकों में सगुन देखने का काम सालभर होता था। 'खेजड़ी' यानी शमी वृक्ष समय से पुष्पित, पल्लवित और फलित हो तथा कैर' यानी टेंटी में समय से फल आए, तो इस बार 'जमाना' होगाजमाना यानी अच्छी बारिश। लेकिन जून शुरू में सुबह-सुबह ठण्डी पछुवा हवा चलने लगे, तो सगुन लेने वाले मारवाड़ी देशजों का माथा ठनक जाता था। वे . सभी लक्षण सामने रख पुनः सगुन लेते थे। कब चाँद . उगा, कैसा उगा, कब छिपा? कौन सा नक्षत्र कब उगा, कब छिपा? कैर की झाड़ी पुनः पुष्पित होकर यदि जुलाई माह में पुनः फलित होने लगी, तो मारवाडी देशज सावधान कर देते थे- "भाई लोगो! अब जमाना नहीं होगा, यानी अच्छी बारिश नहीं होगी।"


बचपन में एक कविता पढी थी- 'यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे...'। महाकवि रसखान ने भी पक्षी के रूप में जगत में वापसी की स्थिति में कदंब के पेड़ पर वास की इच्छा जाहिर की है। गौरतलब है कदंब की छाँव कष्ण के बालपन की छत्र है। स्वर्गीय अरुण कुमार पानी बाबा ने अपनी पुस्तक 'भारत का जल धर्म' में श्रीमद्भागवत पुराण में पानी परपराओं का उल्लेख करते हए ब्रजक्षेत्र में कदंब की पारिस्थितिकी को सामने रखा हैभरतपुर के घना को कदंब की पारिस्थितिकी का प्रतीक और स्मृति चिह्न बताया हैउन्होंने वर्षा के पूर्वानुमान की पारंपरिक तकनीक की दृष्टि से उल्लेख किया है कि कदंब पर विशेष तौर पर कौवे वास करते हैं। कौवों का प्रजनन काल सामान्यतः चैत्र-बैसाख, यानी मार्च-अप्रैल में माना जाता हैयूँ तो माना जाता है कि कौवे अपना घोंसला बनाते ही नहीं, किंतु इसमें उल्लेख है कि कौवे कदंब पर घोंसला बनाते थे। घोंसला यदि कदंब के शिखर पर बनाया हो, तो समझा जाता था कि उस वर्ष  मामूली बारिश होगी। शिखर से थोडा नीचे घोंसला बनाएँ तो सामान्य वर्षा होगी।


यदि दो डालों के बीच में धराडी सरक्षित कोटर दंढकर घोंसला बनाया गया हो तो मान्यता इसका मतलब है कि उस साल सामान्य से अधिक मालूम वर्षा होगी और आंधी-तुफान भी आएंगे। ऐसे ही ऊँचवाल बताया गया कि सारस अंडे दे और बिना सेये छोडकर गोत्र अन्यत्र उड जाए तो समझो कि अकाल आएगा। A अलग-अलग इलाकों के घाघ, भगत, भोपा और भरियों के पास सगुन देखने के ऐसे अलग-अलग आधार थे। अलग-अलग इलाकों के अलग-अलग पंचांग थे। अब एक मौसम विभाग है। अपनी स्थापना से लेकर 2010 तक जिसका वर्षा अनुमान कभी भरोसेमंद नहीं रहा।


पिछले छह-सात वर्षों से उसकी वर्षों से उसकी आधुनिक तकनीकी क्षमता पर कुछ भरोसा होना शुरू , हुआ था, तो इस बार इसने पिछले तीन माह में तीन बार अनुमान बदले। पहले सामान्य से कम वर्षा, फिर सामान्य वर्षा और अब सामान्य से अधिक वर्षा का मन सकता अनुमान पेश किया। उसकी क्षमता अभी सगुन दृष्टाओं से पीछे ही है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग को अभी और अधिक दूरदष्टि हासिल करनी होगी.


परंपराओं वर्षा, वृक्ष, कृषि, स्थानीय व्यंजन और जीवन-शैली पंचतत्वों के अंतःसंबंध जगजाहिर हैं। अंतःसंबंध की दृष्टि से इस बारे में भी भारतीय परंपराओं की सीख स्पष्ट है। जिन खेतों में खरपतवार ज़्यादा हों, वारिश आने से पहले उन्हें जोतकर सूखने के लिए खुला छोड़ देने की इसीलिए परंपरा है। नमक बढ़ने से जो खेत ऊसर हो गए हों, उनका नमक निकालने का काम भी बारिश से पहले ही करना है। जहाँ कम पानी बरसे, वहाँ मोटा अनाज बोने और ज्यादा मवेशी रखने की परंपरा है। कम पानी वाले . इलाकों में साग-भाजी से ज्यादा घी, दूध और छाछ के साथ रोटी खाने की परंपरा है। जहाँ ज्यादा पानी बरसे, वहाँ ज्यादा भात खाने की परंपरा है। और देखिए, जहाँ भरपूर पानी होता है वहाँ एक हथेली की अंजुली बनाकर पानी पीने की परंपरा है।


जहाँ सामान्य पानी बरसे, उन इलाकों में दोनों हथेलियों का दोना बनाकर पानी पीने की परंपरा है। और जहाँ कम पानी बरसता है वहाँ लुटिया को बिना जूठा किए सीधे मुँह में पानी गटकने की परंपरा है। कम पानी वाले इलाकों में आप देखेंगे कि चार-पाँच जन एक साथ बैठकर एक ही बर्तन में खाने की परंपरा हैभरपूर पानी वाले इलाका में एक के बर्तन में दूसरा खाए-पाए, ता जूठा मानत है। पानी संकट वाले इलाकों में सभी वणों की ओरत खता में काम करती हैं। पानी की ज्यादा उपलब्धता वाल इलाकों में सिर्फ शूद्र वर्ण की औरतो का काम के लिए खेत में भेजने की परंपरा रही हैधराड़ा परपरा राजपूताना बरखा के पानी को संचित करने में पेड़ का महत्व जानता थाराजपूताना यानी वर्तमान राजस्थान। राजपूताने ने पेड़ की रक्षा के लिए 'धराड़ी परंपरा' बनाई। इसे कुलगोत्र से जोड़ा।


अलग-अलग गोत्र की अलग-अलग धराडीजिस गोत्र की जो धराडी मान ली गई उस गोत्र का व्यक्ति अपने प्राण देकर भी उस धराडी की रक्षा करे, परंपरा का यही निर्देश था। हर मान्यता के पीछे कोई न कोई कथानक है। पूछा तो मालूम हुआ कि पोसवाल, जोठवाल, जाडवाल, ऊँचवाल और पांचाल गोत्र की धराडी कदंब कमाना गोत्र की कदंब, डाब और बरगद, डोई और कोली गोत्र की बरगद दडगम गोत्र की बेलपत्र और कोली गोत्र की रोहेडा है। उपाध्याय गोत्र की धराडी नीम, भारद्वाज, वत्स, जोजादिया और वेनीवाल गोत्र की पीपल: मीणा और चौहानों की धराडी अशोक: सिसोदिया राजपूतों की खेजडी; मेवाल मीणाओं की कदंब और उदासीन संप्रदाय के साधुओं की धराड़ी चिनार है.


धन्यवाद परंपरा अब जरा पेंसिल उठाइए और निशान लगाइए कि उक्त अ परपराआ म स काइ एक भा परपरा एसा है, जिसका वरखा म रिश्ता न हो? दरअसल भारत की पानी परंपराएँ कोई अनसमझी, अंजानी हरकतें नहीं थीं: वे प सभी सदियों के अनुभव से जाँचा-परखा ऐसा पानी प्रबंधन थीं जो मेघ, पवन, सूर्य को भी समझती थीं और नदी, समुद्र व धरती के पेट को भी। भारतीय पानी परंपराओं को सूक्ष्म जीव व वनस्पतियों की भूमिका का भी ज्ञान तथा ध्यान था। इसीलिए भारतीय परंपरा ने पंचतत्वों में हर तत्व को दैविक शक्ति मानकर पूजा। परंपरा जानती थी कि पंचतत्वों से निर्मित होने वाले जीवों का पंचतत्वों से संपर्क बने रहना जरूरी है।


इसीलिए हमारे ऋषियों ने प्रकृति के ज्यादा से ज्यादा , नज़दीक रखने वाली जीवन-शैली को सर्वोत्तम माना और उसे अपनाया। ज्ञानी होना किसी के अच्छा होने की गारंटी नहीं हो जाता। ज्ञान कभी-कभी अहंकार को भी जन्म देता है। किंतु पानी के परंपरागत ज्ञानी अहंकारी नहीं थे। वे , जानते थे कि तिब्वत का जल अमृत है। तिब्बत का जहाँ पानी वर्तमान एशिया के 11 देशों के अनेक इलाकों अंजुली को समृद्ध करता है, लिहाजा उन्होंने तिव्वत स्थित पानी कैलाश के नाथ का धन्यवाद करने के लिए अपने बनाकर जीवन में कम से कम एक बार अवश्य जाने की विनम्र है परंपरा बनाई।


निवेदन परपरा


बहत संभव है कि इस नए कालखण्ड में कई परानी पानी परंपराओं ने अपना महल सोडियो मेरा निवेदन है कि वर्तमान परंपराओं को लिपिवद्धकर समाज तक पहुँचाया जाए क्योंकि भारत के पानी पबंधन को और उन्हें अपनाने हेतु उसे प्रेरित किया जाएक्यों? अथवा केन्द्रीकृत होने की बजाए विकेन्द्रित और लोक पहल पर आधारित बनाने की आज काफी ज्यादा परंपराओं को ज्ञानसरोवर अथवा भारतीय धरोहर के ज़रूरत महसूस हो रही है। इस दृष्टि से भी पानी रूप में सहेजना और प्रचार में लाना ज़्यादा जरूरी है। यह निवेदन कर मैं भी समयपूर्व चेत जाने की भारतीय परंपरा का ही निर्वहन कर रहा हूँ, आप भी करें।