||बुन्देलखंड के तालाब||
सूखे को अकाल में तब्दील होते देखने व भोगने वाला बुंदेलखंड एक जमाने में अपनी विविध फसलों और किसानी संपन्नता के अलावा अपने अनगिनत तालाबों की वजह से प्रसिद्ध हुआ करता था। पानी के टोटे से निपटने की सरकारी तजबीज़ तो बड़े बांधों से लदी-फदी नदी-जोड़ परियोजना या औद्योगीकरण ही बताई जाती रही है, लेकिन समाज ऐसे में क्या कर सकता है? प्रस्तुत है पानी प्रबंधन के जानकार कृष्ण गोपाल व्यास का इस विषय की जानकारी पर यह लेख।
त्तरप्रदेश के सात (झांसी, जालौन, हमीरपुरललितपुर, बान्दा, महोबा और चित्रकूट) और मध्यप्रदेश के छह जिलों (दतिया, टीकमगढ़छतरपुर, पन्ना, सागर और दमोह) में फैले बुन्देलखंड का परंपरागत व्यवसाय खेती है और उसे संबल प्रदान करने के लिए चन्देल तथा बुन्देल राजाओं ने अनेक तालाबों का निर्माण कराया था। चन्देल राजाओं ने बड़े पैमाने पर विभिन्न आकार के निस्तारी तालाब बनवाए थे। राजा मदनवर्मन ने अकेले टीकमगढ़ जिले में एक हजार से अधिक तालाबों का निर्माण करवाया था। चन्देलों द्वारा बनवाए गए तालाबों को मख्यतः निम्न दो वर्गों में बाँटा जा सकता है1. पेयजल और स्नान हेतु तालाब, जिन पर घाट बनाए जाते थे2. सिंचाई और पशुओं के लिए निस्तारी तालाब। इन तालाबों का एक और वर्गीकरण भी है1. स्वतंत्र तालाब (या एकल तालाब) 2. तालाब शृंखला (एक दूसरे से संबद्ध तालाबों की शृंखला या सांकल)। चन्देलों के बाद छत्रसाल सहित लगभग सभी बुन्देला राजाओं ने तालाब निर्माण की परिपाटी को बढ़ावा दिया। उन्होंने चन्देल काल में बने कुछ तालाबों की मरागत की, कुछ का पुनर्निर्माण किया और अनेक नए तालाब बनवाए। कुछ तालाबों से सिंचाई के लिए नहरें निकाली। उनके शासनकाल में बने तालाबों का आकार अपेक्षाकृत बडा था। उनमें नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनाई जाती थीं।
उनके घाटों पर चबूतरे, मंडप और बाग-बगीचे लगाए जाते थे। बुन्देलखंड के राजाओं द्वारा बसाहट के निकट और छोटी-छोटी पहाड़ियों के ढाल पर बनवाए आए. तालाब सामान्यतः छोटे थे। बुन्देलखंड के कुछ इलाकों में जहाँ कम भंडारण क्षमता और अधिक पानी उपलब्ध था, तालाबों की शृंखलाएँ बनवाई गई। कहा जाता है कि चन्देल और बुन्देला राजाओं ने टीकमगढ़ जिले के सघन वन क्षेत्रों में जंगली जीवों और जनजातीय लोगों के लिए लगभग 40 तालाब बनवाए थे, जिनमें से 24 तालाब अभी भी मौजूद हैंबुन्देलखंड का इलाका मुख्यतः चट्टानी है जिसके उत्तरी भाग में ग्रेनाइट एवं नीस जबकि दक्षिणी भाग में बेसाल्ट, सेन्डस्टोन और चूना पत्थर मिलता है।
उत्तरी वन्देलखंड में ग्रेनाइट की कम ऊंचाई की और दक्षिणी बन्देलखंड में सेन्डस्टोन की अपेक्षाकृत अधिक ऊँची पहाड़ियाँ मिलती हैं। कई स्थानों पर क्वार्टज रीफ ने स्थानीय चट्टानों को काटा है। चन्देलखंड के ग्रेनाइटी इलाकों में डोलेराइट डाइकें भी मिलती हैं। इन ढाडकों ने भी स्थानीय चट्टानों को काटा है। जल संरक्षण में क्वार्ट्स रीफ की भूमिका महत्वपूर्ण है। सागर और दमोह जिलों में अधिकांश पहाड़ियों की ऊंचाई 300 से 380 मीटर के बीच है। इस क्षेत्र के मैदानी हिस्सों और घाटियों में बेसाल्ट पाया जाता है। यह हिस्सा मुख्यतः पठारी हैबुन्देलखंड में मुख्यतः तीन प्रकार की मिट्टियाँ मिलती हैं। स्थानीय लोग इन मिट्टियों को मार, काबर और राखड़ कहते हैं। 'मार' काले रंग की उपजाऊ मिट्टी है, 'काबर' अपेक्षाकृत कम उपजाऊ एवं हल्के काले रंग की मिट्टी है और 'राखड़' लाल और पीले रंग की सबसे कम उपजाऊ मिट्टी है। बुन्देलखंड के मैदानी इलाकों में काबर और मार मिट्टियाँ मिलती हैंझांसी और ललितपुर के बीच के पहाड़ी इलाकों और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में राखड़ मिट्टी मिलती है। इस मिट्टी में रेत, बजरी और कंकड़ के कण होते हैं.
खेती के लिए यह मिट्टी अच्छी नहीं है। बहुत से इलाको में मिट्टी की परत की मोटाई बहुत कम है। इस पठारी और ऊबड़-खाबड़ जमीन में सामान्यतः लाभप्रद खेती करना कठिन होता हैबन्देलखंड में कम ऊँची पहाड़ियों और संकरी घाटिया के बीच में खल मंदान है। यहाँ की जलवायु मुख्यतः अर्ध-शुष्क है। इस क्षेत्र में बग्मान मे अवसर बाढ़ की और गर्मी में सूखे की स्थिति बनती हैइस क्षेत्र में 90 प्रतिशत वर्षा जून से सितंबर के बीच होती है। जुलाई और अगस्त सबसे अधिक गीले होते हैं। उत्तर के मैदानी हिस्सों को छोडकर बाकी क्षेत्र की औसत बरसात 75 सेन्टीमीटर से लेकर 125 सेन्टीमीटर के बीच है। वर्षा का क्षेत्रीय वितरण असमान, अनिश्चित और असंतुलित है। यह सही है कि बन्देलखंड में पर्याप्त बरसात होती है। चन्देल-बुन्देल काल में भी अनिश्चित सूखे अन्तराल आते होंगे और यह अनिश्चितता मानसून में पानी की उपलब्धता और फसल प्रबंधन को जटिल बनाती होगी। उपर्युक्त तथ्यों की रोशनी में कहा जा सकता है कि बुन्देलखंड के अधिकांश हिस्सों में पर्याप्त पानी बरसने के बावजूद छोटे नदीनालों के प्रवाह में कमी और उथली रेतीली मिट्टी की नमी घट जाती होगी। उपर्युक्त वर्णित परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में ही बुन्देलखंड में निरापद बारानी खेती और तालाबों के निर्माण के तकनीकी पक्ष का विकास हुआ होगा।
प्रारंभ में बुन्देलखंड का समाज घमन्त पशपालक - था और तालाबों के निर्माण के बाद वह खेतिहर बनाअर्थात तालाबों के कारण ही खेती और पशुपालन करना आसान हुआ। तालाब निर्माण ने घुमन्तु समाज को आजीविका का बेहतर ज़रिया दियाइन्हीं परिस्थितियों ने राजाओं को तालाब बनाने के लिए प्रेरित किया। अपनी उपयोगिता के कारण तालाब धीरे-धीरे राजाओं के लिए राजधर्म और संपन्न लोगों के लिए सामाजिक दायित्व बनते गए। चन्देल और बन्देला राजाओं ने स्थानीय भूगोल को ध्यान में रखकर उन संरचनाओं को प्राथमिकता दी जो खेती को सीधे-सीधे लाभ पहुँचाती थीं। उन्होंने महँगी संरचनाओं का निर्माण राजकोप से कराया। भूजल स्तर को सतह के करीब रखने और नदियों - में अधिकतम समय तक जलप्रवाह सुनिश्चित करने के लिए तालाबों के निर्माण का और पेय जल सुलभ कराने के लिए कूपों और बावड़ियों के निर्माण का विकल्प चना। उन्होंने आबादी के पास छोटे तालाब और बसाहट से दूर बड़े तालाबों का निर्माण कराया।
अनुमान है कि समूचे बुन्देलखंड में 600 से अधिक बड़े तालाब और 7000 से किया अधिक छोटे तालाब बनवाए गए थे। इन तालाबों निकासी की इब की जमीन का रकबा लगभग 57,700 हैक्टेयर था। राजाओं ने तालाब निर्माण के लिए बहुत सहज सलीम अपनाई थी। दा तालीक के मनात कार्टज रीफ की पहाड़ियों के बीच बहने वाली छोटी नदियों और नालों पर मिट्टी के बाँध बनाकर जून पानी रोकाखोद कर तालाबों का निर्माण किया। अगस्त गौरतलब है कि वे तालाब जिनमें संचित जल और हिस्सों खोदी गई मिट्टी के आयतन का माप 1.5 : 4.5 का 75 होता है. को बेहतर माना गया। इन बाँधां की नीव । की चौदाई 60 मीटर या उससे अधिक रखी गई। और उनमें नींव की चौड़ाई एवं बाँध की ऊँचाई का अनुपात कम-से-कम 7:1 रखा गया। तालाबों की होती पाल मिट्टी की बनाई जाती थी।
पाल के दोनों तरफ सूखे पत्थरों के ब्लॉक लगाए जाते थे। तालाबों का मानसून आकार यथा संभव चन्द्राकार या अर्ध-चन्द्राकार को होता था। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि चन्द्राकार या में अर्ध-चन्द्राकार तालाबों में अधिक पानी जमा होता अधिकांश है। पानी का वेग कम करने के लिए कहीं-कहीं नदीतालाब के बीच में टापू छोड़े जाते थे। इन तकनीकी की मानको के कारण तालाब पूरी तरह सुरक्षित था.
पिछले कछ सालों में बन्देलखंड के प्राचीन तालाबों के आगोर यानी कैचमेंट में भमि उपयोग में बदलाव हुआ है। अतिक्रमण बढ़ा है। जंगलों के कटने के कारण भूमि-कटाव की गति बढ़ गई हैइस कारण वनभूमि की जल-संचय तथा पानी २ महैया कराने की क्षमता घट रही है। नदी-नालों का गैर-मानसूनी प्रवाह और अवधि घट रही है। उनकी पर्यावरणीय भूमिका को ग्रहण लग रहा है। तालाबों में बहुत अधिक मात्रा में गाद जमा हो रही है। इसके अलावा बसाहटों के अपशिष्टों के कारण प्रदूषित तालाब मल-मूत्र, गंदगी और बीमारी के स्थायी स्त्रोत बन गए हैं। पानी की कमी के चलते कई तालाब सूख गए हैं। कुछ पुराने तालाब अस्तित्व और अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो कुछ इतिहास के पन्नों में खो गए हैं। ऐसे में तालाबों को पुनर्जीवित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
तालाब अपनी जल भंडारण-क्षमता के चलते पहचाने जाते हैं। इसे बढ़ाने के लिए तालाबों की गाद या सिल्ट निकाली जानी चाहिए। चन्देला और बन्देला तालाबों के पीछे के विज्ञान तथा धरती से उनके संबंधों को समझे बिना गाद निकाली गई तो उनका मूल चरित्र, पुराना वैभव तथा असर खत्म हो जाएगा। इस लिहाज़ से उन्हें जल संचय या जल संचय-सह-रीचार्ज तालाब के तौर पर वर्गीकृत किया जाना चाहिए और इसी आधार पर गाद निकासी की योजना बनाई जानी चाहिए। इसके पूरा होने के बाद तालाबों का प्रबन्धन और जिम्मेदारी समाज को सौंप दी जानी चाहिए। आखिर समाज ही तो तालाबों की साज-संभाल करता है!
आभार: सर्वोंदय प्रेस सावस (मप्रस)