||दीपावली पर वैज्ञानिक देश में अवैज्ञानिक कारनामें||
देशभर के जैसे ही इस बार उतराखण्ड के 16000 से भी अधिक गांवों में दीपावली का जश्न सराबोर रहेगा। पहले भी रहा। परन्तु यदि हम सिर्फ व सिर्फ उतराखण्ड हिमालय राज्य की बात करें तो शायद देश के अन्य भागों से यहां पर त्यौहारो को मनाने का तरिका भिन्न हो सकता है। यहां के बासिन्दे त्यौहारों को मनाने का जो भी तरिका अपनाये है उसमे कहीं न कहीं प्राकृतिक संसाधनो के संरक्षण की बात होती थी।
मुद्दा यह है कि दीपावली के शोर-शराबे से क्या हिमालय के गलेशियरों पर कुछ असर होगा, क्या हिमालय की जैवविविधता पर कुछ प्रभाव पड़ेगा? जबाव कुछ भी हो किन्तु पर्यावरणीय संकट तो आजकल सभी के सामने खड़े हैं।
उत्तराखण्ड के लोगों और हिमालय की जैवविविधता का पारस्परिक संबध 20 वर्ष पहले मानायी जाने वाली दीपावली में स्पष्ट नजर आता था। सो अब दीपावली के नये तरिकों ने इन संबधो को बदल डाला। पीछे मुड़कर एक बार इस परम्परा को देखने की कोशिश करेगे तो पायेंगे कि यहां दीपावली को मनाने का ढंग लोगो ने अपने रोजमर्रा की जिन्दगी से जोड़ रखा था। लोग दीपावली से पहले अपनी खेती-किसानी के कामों से निपटकर दीपोत्सव की तैयारी करते थे उनकी तैयारी में सिर्फ पकवान होते थे जो पकवान इन्ही दिनो ही बनते थे जो अन्य दिन नहीं बनते थे। इसके अलावा लोग किसानी से जुड़ होते थे। किसानी का काम खत्म हो गया तो खेत भी इस दीपावली के दौरान खाली-खाली ही होते थे। खेतो की मेड़ पर उग आयी बेवजह के खर-पतवार और खेतो में फसल के बाद छूट गयी नाकाम की चीजो जैसे रामदाना, झंगोरा आदि का डंठल जो पशुओं की चारा के रूप में भी नहीं आता था को खेतो में ही जलाने के लिए लोग इस त्यौहार में जश्न मनाते थे।
होता ऐसा था कि लोग अपने-अपने खेतो में ऐसी फिजूल के खर-पतवार को इक्कठा करके रखते थेे। दीपावली के दिन सभी गांव के नौजवान-युवतियां जूलूस की शक्ल में गीत गाते हुए ढोल नगाड़ो की धुनो पर थीरकते हुए सामूहिक रूप से खेतो में फैल जाते थे और जो खेतो में इक्कठा हुए खर-पतवार की ढांग होती थी उसे आग देते थे। वे ऐसा भी ख्याल रखते थे कि इस आग से कहीं और नुकसान ना हो इसलिए नवयुवक-युवतियों के ये जूलूस तब तक गाते-बजाते, नाचते रहते थे जब तक वह जलकर राख न हो जाये। फिर उसी रूप में वापस गांव के सामूहिक आंगन में पंहुचते थे यानि तब तक सबेरा होने लग जाता था। ऐसा जश्न लोग दीपावली के अवसर पर गांव-गांव में तीन दिन तक मनाते थे। हां पटाखे तो नहीं कह सकते है फिर भी इस पहाड़ी राज्य में एक कंटिलीनुमा झाड़ी होती है जिसे स्थानीय भाषा में भेकल कहते हैं। इस झाड़ी का तना अन्दर से खोखला होता है। इसे पिचकारीनुमा आकार में लोग घर-घर बनाते थे। इसमें पानी नहीं इसमें काॅटन का छोटा सा टुकड़ा घुसाया जाता था। पीछे से जोर से छोटी सी डण्डी से जोर मार कर जैसे काॅटन बाहर निकलता था वैसे ही उसकी आवाज आती थी। इस तरह का खिलौनानुमा पटाखा गांव में लोग अपने बच्चो के लिए बनाते थे। इस पहाड़ के गांव में आज भी एक कहावत विद्यमान है कि तूने क्या किया, तूने तो भेकल की बन्दूक बना डाली यानि भेकल की बंदूक की सिर्फ आवज ही आती थी होता दरअसल कुछ भी नहीं।
कुलमिलाकर त्यौहारों का जश्न भी लोगो की जिन्दगी से जुड़ा था जो आज की परिस्थिति में एकदम विपरित हो चुका है। जिससे ना कि पर्यावरण संकट सामने आ रहे है बल्कि वर्तमान की दीपावली के मनाने के ढंग से बिमारिया भी लोगो में घर कर रही है। यही नहीं दीपावली में कई ऐसी घटनाये सामने आ रही है जो कभी सुधर भी नही सकती। कह सकते हैं कि त्यौहारो को मनाने का जो परम्परागत तरीके थे वही संबल के हैं। अब तो दीपावली के मनाने का परम्परागत तरीका मात्र उतराखण्ड के ऊंचाई के गांवों तक ही सिमट कर रह गया है। मगर वहां भी भंयकर धमाके वाले पटाखे भी पंहुच गये है। अब इन गांवों में पटाखों ने दस्तक दे दी, जिस कारण गांव का वातावरण प्रदूषण का शिकार हो रहा है।
उतरकाशी जनपद के कफनौल गांव के 75 वर्षीय सेवानिवृत प्रधानाध्यापक अतरसिंह पंवार कहते हैं कि उनके गांव की ऊंचाई समुद्रतल से 2200मी॰ हैं जहां एक से चार फिट बर्फ गिरती थी और जनवरी, फरवरी में लोग अपने ही घरो में रहते थे। क्योंकि बाहर जाने के सभी रास्ते बर्फ गिरने की वजह से बन्द रहते थे। वे इस बात से दुखी हैं कि पिछले 20 वर्षो से यहां मौसम का क्रम टूटा और बर्फ गिरनी धीरे-धीरे कम हो गयी। वर्तमान में तो बर्फ गिरती है परन्तु रूकती नहीं है। यदि रूक भी जाये तो तीन दिन में पिघलकर समाप्त हो जाती है। उन दिनों श्री पंवार के गांव कफनौल में फसल की अच्छी पैदावार होती थी, गांव में पानी के स्रोत कभी सूखते नहीं थे। वर्तमान में कफनौल गांव में गर्मीयों के दिनों में लोग सर्वाधिक पेयजल की समस्या से त्रस्त हैं। वे बताते हैं कि उनके गांव में मोटर-गाड़ी पंहुच गयी, गांव में विद्युत है, मगर प्राकृतिक संसाधनो का दिनो-दिन अभाव ही बनता जा रहा है। दीपावली के संबध में तो वे कहते हैं कि उनके जमाने में तो पटाखे नाम की कोई चीज नहीं हुआ करती थी। तीज-त्यौहारो को मनाने का रंग ही चटक होता था, वातावरण सुहाना व सुरीला होता था। अब तो तीज-त्यौहारो का मतलब हो हल्ला और एक दूसरे को नीचा दिखाना, परस्परता और सामूहिकता की जगह कनफोड़ संगीत और पटाखे सरीखे अजीब वस्तुओं ने ले ली है। जिनमें कहीं भी इन्सानियत का पुट नजर ही नहीं आता है।
जी हां! इसलिए कह सकते हैं कि गौमुख क्षेत्र में लोगो को जोर से चिल्लाने, हो हल्ला करने पर पाबन्दी है। क्योंकि लोगो के इस व्यवहार से निकलने वाली सांस से गलेशियर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। और जब से गांव में पटाकों ने दस्तक दी तब से भी मौसम सहित गलेशियर की पिघलने की खबरे ज्यादा आई हैं। यह मात्र गलेशियर के पिघलने के अनुभव हैं। बता दें कि इस बार अकेले उतराखण्ड राज्य में सिर्फ व सिर्फ पटाखों का कारोबार शहर व गांवों को जोड़कर लगभग 10 अरब तक बताया जा रहा है। सिर्फ तीन दिन के कारोबार से जो पर्यावरणीय नुकसान होगा और उसका जो हस्र हमारे सामने आयेगा वह भी जगजाहीर है। जिस पटाखेनामें बम में मात्र पांच ग्राम बरूद भरी रहती है वह थोड़ी देर के लिए तीन मंजिली इमारत को दो रियेक्टर पैमाने के भूकम्प में तब्दील कर देता है। यानि इस तरह के धमाके तीन दिन तक दीपावली के अवसर पर 48 घण्टों तक लगातार रहेगा। इसके अलावा जो और पटाखे, फुलझड़ियां इत्यादि जलाई जायेगी उससे कितना प्रदूषण फैलेगा वह हम सभी भुगतने के लिए तैयार हैं। जानकारो के अनुसार पटाखे से निकलने वाले जैसे कार्बन डाईआॅक्साईड, कार्बन मोनोआॅक्साईड, सल्फर आॅक्साईड खतरनाक जहरीला धुआं जब हवा में घुल जाता है तो अस्थमा, सीने में जलन, सांस लेने में तकलीफ जैसी समस्याऐं इन दिनो लोगो में सर्वाधिक बढ जाती है। यही कारण है कि अपने देश में इन रोगो से पीड़ित लोगो की संख्या में भी इजाफा ही हो रहा है।
ऐसे अनसुलझे सवाल आजकल वैज्ञानिको और पर्यावरणविदों के लिए कौतुहल का विषय बना हुआ है। अन्तर सिर्फ इतनाभर है कि वैज्ञानिक अपने शोध के मुताबिक नफा-नुकसान के बारें में लोगो को बता सकते है और खुद के जीवन में खुद के शोध की संस्तुतियों को नहीं उतारते हैं। यही हालात पर्यावरणविदों की भी है किन्तु पर्यावरणविद् वैज्ञानिको से थोड़ा हटकर दिखते हैं कि वे लगातार नुकसान बावत जनता के मध्य प्रचार प्रसार का काम करते हैं।