एमडीडीए और लोगो मे संवादहीनता


||एमडीडीए और लोगो मे संवादहीनता||


मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण के पास राज्य बनने के उन्नीस वर्ष बाद अस्थाई राजधानी में लोगो को सुव्यवस्थित बसाने की माकूल नीति व नियत की दूर-दूर तक गुंजाइश ही नजर नहीं आ रही है। देहरादून में जिस तरह अनियमित रूप से सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर ढांचागत विकास तीव्र गति से बढ रहा है वह आने वाले वर्षो मे विकास की नई इबारत लिखने जा रहा है। यहां बहुमंजिले व बिन पार्कींग की इमारते (रिहायसी एवं व्यवसायी) जो बन रही है उनके बारे हालांकि एमडीडीए सीना खोलकर कह रहा है कि उनके पास देहरादून का मास्टर प्लान है। मगर कागजो में बनाया गया मास्टर प्लान कब जमीनी रूप लेगा यह तो समय ही बतायेगा।


बता दें कि मास्टर प्लान में चक्खुमोहल्ला, मोती बाजार, डांडीपुर, कांवली रोड़, खुड़बुड़ा, घोसीगली इत्यादि को घनी आबादी में घोषित कर लिया गया है। इन घनी आबादी वाले क्षेत्रों में आवागमन के लिए आठ से दस फुट के रास्ते बने हैं। जो लगभग 100 साल और उससे भी पुराने हैं। यही हाल इन जगहों पर बनी आवासीय व व्यवसायी इमारातो का है। अब यदि ये इमारते जर्जर हो चुकी हैं तो क्या इन इमारतो का पुनर्रूद्वार नहीं किया जा सकता? किया जा सकता है। परन्तु एमडीडीए की तर्ज पर। एमडीडीए का नया मास्टर प्लान बताता है कि नवनिर्माण में 15-30 फुट का रास्त होना व कुल क्षेत्रफल में से आगे-पीछे 20 प्रतिशत जगह भी छोड़नी जरूरी है। इन घनी आबादी वाले क्षेत्रो में तो वर्तमान में दुपहिया ले जाना ही लाजमी है। यदि यहां 15-30 फुट का रास्ता बनता है और कुल क्षेत्रफल की जगह में से आगे-पीछे 20 फीसदी जगह छोड़नी पड़ेगी तो इस घेरे में आने वालो को स्वतः ही पुनर्वास करना पड़ेगा। क्योंकि इनके पास तब कुछ भी जगह ना तो व्यवसाय के लिए और ना ही रहने के लिए बचती है। ऐसे में क्या एमडीडीए इनका पुनर्वास बावत कोई योजना बना रहा है या बनायी हुई है। जिसका खाका अब तक सामने नहीं आया है। क्योंकि एमडीडीए के नये नियम कायदे से उन्हे अपना रहन-सहन व कारोबार सहित विस्थापित होना पड़ रहा है। यहां घोसी गली का उदाहरण ही काफी है। यहा जो जर्जर इमारते हैं उनके पुनर्रूद्वार के लिए लोगो ने एमडीडीए से गुहार लगायी थी। सो इनका नक्सा पास तो हुआ नहीं उल्टी एमडीडीए ने इनकी फजीहत कर दी। कहा कि एमडीडीए के कर्मचारी जांच करने आयेंगे। जांच तो क्या इनकी पुनर्रूद्वार वाली इमारते ही सीज कर दी गयी। इनके जैसे अन्य जगह पर भी कुछ लोगो पर एमडीडीए की मेहरबानी बरस पड़ी। इस तरह का दोगला चरित्र एमडीडीए का लोगो में असन्तोष फैला रहा है और शहर में अव्यवस्थाऐ पनप रही है।


दूसरी ओर एक अनुमान के अनुसार देहरादून, ऋषिकेश, विकासनगर की तहसीलो में रोज 300 रजिस्ट्रीयां जमीन व मकान की हो रही है। इसी तरह पिछले छः सालो का एक आंकड़ा बताता है कि पहाड़ से उतरकर दो लाख लोगो ने भविष्य हेतु देहरादून मे दो लाख प्लांट मकान बनाने बावत खरीदे है। ये दो लाख लोग वे हैं जो या तो सरकारी सेवा में हैं या छोटी-मोटी ठेकेदारी करते है। बाहरी व्यक्तियों ने जो जमीन की खरीद-फरोख्त की है उसका आंकड़ा इससे अधिक हो सकता है। अर्थात जमीन खरीदने के बाद भी लोगो को एमडीडीए के बहुत सारे कड़े कानूनो से गुजरना पड़ रहा है। जैसे कृषि भूमि को रिहायसी करवाने के लिए विकास शुल्क तब लिया जाता है जब अमुक स्थान पर इमारत खड़ी हो जाती है। अब इस शुल्क लेने का मतलब मात्र खानापूर्ती ही रह जाती है। क्योंकि जो नक्सा मास्टर प्लान का है वह तो बिना शुल्क दिये ही पास हो गया। यही कारण है कि जमीनो के दाम आसमां चूम रहे हैं।
अस्थाई राजधानी में जमीन की खरीद फरोख्त, गांवो से यहां पलायन करके आ चुके लोगो तथा एमडीडीए के


दोगले नियम कानून से जो समस्या देहरादून शहर पर आन पड़ी है वह सबके सामने है। भविष्य में इस अस्थाई राजधानी में स्कूलो, चिकित्सालयों, यातायात आदि में बहुतायात में भीड़ बढने वाली है। इसलिए लोगो का मानना है कि पुनर्रूद्वार और नवनिर्माण हेतु रिहायसी व व्यवसायी इमारतो में अनिवार्य रूप से ''स्टील पार्कीग'' बनानी अनिवार्य कर देनी चाहिए और कृषि भूमि को रियासी करने बावत जो विकास शुल्क लिया जा रहा है उस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।


एमडीडीए बोर्ड के पूर्व मेम्बर विजय बग्गा कहते है कि लोगो की शिकायत सुनी ही नहीं जाती है। जबकि शहर का मास्टर प्लान आ चुका है। यह कहां तक पंहुचा यह तो एमडीडीए अच्छी तरह बता सकता है। परन्तु लोगो के सामने जो समस्या वर्तमान में आ रही है वह पार्कीग, सुलभ यातायात, भवन निर्माण बावत एमडीडीए से नक्से पास कराना इत्यादी की है। ये तीन बाते अब तक इसलिए भी स्पष्ट नहीं होे पा रही है कि एमडीडीए की बोर्ड की बैठक साल में तीन बार होनी आवश्यक है परन्तु यह बैठक एक ही बार हुई है। जब यह बैठक हुई तो इसमें प्राधिकरण के कर्मचारियो की वेतन व कार्यालयों में संसाधनो के अभाव की समस्या प्रमुख रही। जो जनता की समस्या थी वह गौण ही हो गयी। सिर्फ रश्म अदायगी के लिए शहर के वेडिंग प्वांईटो पर थोड़ी सी चर्चा कर ली गयी थी। दुबारा बोर्ड बैठक हुई नही।


यहां बंग्लो, बंगला, भवन, मकान, माॅल, दुकान, ठेली, प्लाजा के निर्माण में जो कानून एमडीडीए के हैं वह स्पष्ट तौर पर भ्रष्टाचार को बढावा देने वाले साबित हो रहे है। उल्लेखनीय हो कि यहां हर राजनेता मीडिया के मार्फत यूं कह देते हैं कि उन्हे हिमांचल से सीख लेनी चाहिए। क्या कभी राज्य के अफसरान व राजनेता हिमांचल में इस हेतु शिक्षण-प्रशिक्षण लेने गये भी? चूंकि हम तो वहां जाते है जहां का पर्यावरण, रहन-सहन व संस्कृति दूर-दूर तलक राज्य से मेल ही नहीं खाती। गौरतलब हो कि देहरादून में राज्य की अस्थाई राजधानी बनने के कारण शहर तीव्र गति से विस्तार ले रहा है और इसके साथ-साथ सरकारी व गैर सरकारी प्रतिष्ठानो में काम व मानव संसाधनो का बढना तथा इनकी पूर्ति बावत जरूरतो की मांग भी लगातार बढ रही है। ऐसे में यूं कहे कि हर स्तर पर जिम्मेदारी का निर्वहन करना व कराना दिनो दिन राज्य सरकार के लिए एक चुनौती बनती जा रही है। उधर पहाड़ के गांव से जो पलायन देहरादून की तरफ हो रहा है उसको व्यवस्थित करने के खास उपाय हुए हों, ना कि सिवाय नक्सा पास करवानें के।




-ः एमडीडीए की बोर्ड बैठक साल में तीन बर होनी थी, सो यह कोरम पूरा होता है कि नहीं इसकी जानकारी किसी को नहीं है।
-ः विकास शुल्क के क्या मायने हो जो अब तक स्पष्ट नहीं हुआ है।
-ः जो पुरानी इमारते जर्जर हो चुकी है उनकी मरम्मत करने बावत लोग एमडीडीए के चक्कर काट-काट कर थक हार चुके हैं।