गढ़वाली भाषा के अग्रणी साहित्यकार 'बचन सिंह नेगी'

||गढ़वाली भाषा के अग्रणी साहित्यकार 'बचन सिंह नेगी'||



हमारे गौरव - अपने ही समाज में उपेक्षित


गढ़वाली भाषा के अग्रणी साहित्यकार 'बचन सिंह नेगी'


एक भाषा की मूल कृति का दूसरी भाषा में अनुवाद करने की लम्बी परंपरा रही है। इसी क्रम में अनेकों प्रसिद्ध रचनाओं का गढ़वाली भाषा में अनुवाद करने का कार्य कई विद्धतजनों ने किया है। विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों का गढ़वाली भाषा में अनुवाद करने का महत्वपूर्ण कार्य आदित्यराम दुदपुड़ी और डाॅ. नन्दकिशोर ढौंडियाल ने किया है। इसी कड़ी में बचन सिंह नेगी जी भी हैं, जिन्होने रामचरितमानस, बाल्मिकी रामायण, महाभारत ग्रंथसार, श्रीमद्भगवत गीता, वेदसंहिता और ब्रह्मसूत्र जैसी पावन रचनाओं का गढ़वाली भाषा में भावानुवाद करके उसे प्रकाशित किया है। अनुवाद के साथ-साथ श्री नेगी ने कई उपन्यास, कहानी, संस्मरण और निबन्ध लेखन में उत्कृष्ट रचनायें प्रदान करके हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है।


श्री बचन सिंह नेगी वर्तमान में देहरादून के बंजारावाला क्षेत्र में रहते हैं। कभी यह इलाका चाय बागान के लिए जाना जाता था। अब टिहरी बांध विस्थापितों के पुर्नवास स्थल के रूप में इसका नाम प्रचलन में है। यहां के बिजलीघर से थोड़ा आगे चलकर ही श्री नेगी का घर है। व्यवस्थित बाग-बगीचे से घिरा उनका घर देहरादून में देहात के आनंद की अनुभूति कराता है। यह घर उनकी सृजनात्मक अभिरूचि से स्वतः ही परिचय करा देता है।


पुरानी टिहरी के नजदीकी 'बागी' गांव में 4 नवम्बर, 1932 को सामान्य किसान परिवार में बचन सिंह नेगी जी का जन्म हुआ। तीन बहिनों के इकलौते भाई यानि- प्यार, दुलार एवं स्नेह की मौज ही मौज। परन्तु नियति में कुछ और भी बंधा था। उनकी आयु मात्र 7 वर्ष की थी कि पिता का असमय देहान्त हो गया। परन्तु मां ने विकट परस्थितियों में पारिवारिक जिम्मेदारियां बखूबी निभाई। श्री नेगी ने सन् 1948 में हिमालय विद्यापीठ, टिहरी से हाईस्कूल और सन् 1950 में प्रताप इंटर कालेज, टिहरी से इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास की। स्कूली दिनों में टिहरी रियासत की स्वाधीनता के लिए प्रजामंडल आन्दोलन में उन्होने बढ़-चढ़कर भाग लिया था। बचपन से ही पढ़ने-लिखने की अभिरुचि से प्रेरित होकर प्रताप इण्टर कालेज, टिहरी में पढ़ते हुए उन्होने अपने साथियों के साथ हस्तलिखित पत्र 'हमारा अखबार' को तैयार किया। सन् 1952 में डी.ए.वी. कालेज, देहरादून से बी.ए. करने के बाद जीवकोपार्जन के लिए उनका संघर्ष आरम्भ हुआ। उनके वैवाहिक जीवन की शुरुवात सन् 1953 में हुई, तो सन् 1954 में उन्हें प्रथम पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। श्री नेगी के सरकारी सेवा की यात्रा सन् 1954 में कृषि विभाग में लिपिक पद से आरम्भ हुई। अपर मुख्याधिकारी, जिला परिषद, देहरादून के पद से वे अक्टूबर, 1990 में सेवानिवृत्त हुये।


श्री बचन सिंह नेगी को सरकारी नौकरी के दौरान उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों एवं क्षेत्रों में रहने का मौका मिला। नौकरी के साथ-साथ उनकी साहित्यिक सक्रियता भी गतिशील रही। विभिन्न स्थानों एवं समय-अन्तरालों में बटोरे गए अनुभवों ने उनकी सृजनात्मकता को अनुवाद, निबन्ध, कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण आदि विधाओं में अभिव्यक्त किया है। बचन सिंह नेगी के संपूर्ण साहित्य में 'स्वान्तय सुखाय' का भाव प्रखरता से विद्यमान है। इसी कारण उनकी रचनायें तर्कों और विश्लेषणों जंजाल से मुक्त हैं। पाठकगण उनमें अपने मतलब की चीजें स्वतः ही पा लेते हैं। किसी विशिष्ट विचार एवं दिशा की परवाह किए बिना उनका साहित्य निरंतर प्रवाहमान रहता है। उसमें एक आम एवं ठेठ पहाड़ी आदमी की व्यथा-कथा की ही झंकार सुनाई देती है। वास्तव में उत्तराखंडी जनजीवन में विगत 70-80 सालों में आए बदलावों की करवट दर करवट का हिसाब-किताब है उनका साहित्य। अपने जीवन के बहीखाते को जिस रूप में उन्होने सार्वजनिक किया है, उसमें पाठक अपने हिस्से के सपनों एवं अनुभवों को गहराई से महसूस करता है।


बचन सिंह नेगी ने हिन्दी और गढ़वाली में अपनी रचनाएं प्रस्तुत की हैं। काव्य और गद्य दोनों पर उनकी पकड़ मजबूत रही है। मूलतः मानवीय समाज के सामाजिक, ऐतिहासिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक पहलू उनके लेखन के केन्द्र में है। उनका 'प्रभा' खण्ड काव्य बौद्ध विद्धान अश्वघोष के प्रणय प्रसंग के बहाने समाज की जातीय जड़ता पर प्रहार करता है। 'आशा किरण' काव्य ग्रंथ में निरंतर बदलते मानवीय मूल्यों से उपजी विसंगतियों एवं विशेषताओं के बावजूद लेखक भविष्य के प्रति बहुत आशावान है। 'भाव मंजूषा' में उनके छात्र जीवन से अब तक के लिखे लेख, कहानी और संस्मरणों का संकलन है। यह किताब लेखक के वैचारिक उतार-चढ़ाव के विविध आयामों को उद्घाटित करता है। 'गंगा का मायका' तथा 'डूबता शहर' में टिहरी के विस्थापन के दर्द को पाठकों तक पहुंचाया गया है। नई पीढ़ी टिहरी बांध को एक चकाचौंध वाले पर्यटक केन्द्र के रूप में देख रही है। परन्तु उन्हें यह भी महसूस होना चाहिए कि इस झील के अन्दर अतीत की एक अमूल्य धरोहर समाई हुई है। श्री नेगी ने 'मेरी कहानी' पुस्तक में अपने जीवन के संस्मरणों को आत्मकथ्य शैली में प्रस्तुत किया है। जीवन के विविध रंगों से सरोबार यह पुस्तक नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा-पथ के बतौर है।


श्री बचन सिंह नेगी का रचित साहित्य संसार उन्हें अग्रणी लेखकों में शुमार करता है। ये अलग बात है कि उनका साहित्य अधिसंख्यक पाठकों तक नहीं पहुंचा है, परन्तु इन अर्थों में उसकी सार्थकता कम नहीं होती है। गढ़वाली समाज एवं भाषा के लिए तो श्री नेगी का योगदान एक अमूल्य निधि के रूप में है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि गढ़वाली भाषा अपने ही समाज में सिमटती जा रही है। गढ़वाल की नई पीढ़ी की जुबान में यह भाषा है ही नहीं, तो फिर पढने-लिखने में तो वह गायब हो चली है। ऐसे में इसको जीवंत करने का बीड़ा बचन सिंह नेगी जी जैसे व्यक्तित्वों ने उठाया है। श्री नेगी ने रामचरितमानस, बाल्मिकी रामायण, वेदसंहिता, महाभारत ग्रंथसार, श्रीमद्भगवत गीता, ब्रह्मसूत्र आदि महान रचनाओं का भावानुवाद करके गढ़वाली भाषा की समृद्ध परंपरा एवं सार्थकता को प्रमाणित किया है। निःसंदेह यह कार्य दुनिया के प्रपंचों एवं प्रचार-प्रसार से दूर रहकर ही किया जा सकता था। एक कर्मयोगी और तपस्वी की एकाग्रता को चित्त में आत्मसात करते हुए उनके द्वारा अनुवादित घर्मग्रन्थ वर्षों के अथक श्रमसाध्य कार्य का ही परिणाम है। बचन सिंह नेगी गढ़वाली भाषा के उन तथाकथित उत्थानधारियों जिनके प्रयासों की इतिश्री भाषा संस्थानों एवं समारोहों में केवल चर्चा करके पत्र-पत्रिकाओं में छपने तक ही सीमित रहती है के लिए एक करारा जबाब है। वे वास्तव में नाम से ही नहीं वरन् मन, वाणी व कर्म से भी सच्चे वचन के धनी हैं।


आज 4 नवम्बर को आदरणीय बचन सिंह नेगी जी का शुभ-जन्मदिन है। बंजारावाला, देहरादून में रहते हुए वे आज 88वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। अस्वस्थता के बावजूद भी उनका साहित्यानुराग बरकरार है। ईश्वर से स्वस्थ दीर्घायु और उनका कर्मयोगी आशीर्वाद हमें निरंतर मिलता रहे, यही कामना है।


साहित्यकार श्री बचन सिंह नेगी जी से उनके सुपुत्र डा. विनोद सिंह नेगी जी के माध्यम सेे (मोबाइल नंबर- 9412436701) संपर्क किया जा सकता है।


डॉ. अरुण कुकसाल