घुट रही है 'ढोल दमाऊं' की धमक

||घुट रही है 'ढोल दमाऊं' की धमक||


उत्तराखंड की वादियों में ढोल की धमक विशिष्ट ताल लिए समायी दे तो समझ लीजिए कि किसी तरह का मांगलिक कार्य सम्पन हो रहा है। देवी-देवताओं की यात्रा, पवाड़े, जागर, शादी, चूड़ा कर्म, नामकरण, सामूहिक भोज, धान की रोपाई, मंडुवा दाल की निराई-गुड़ाई , वृक्षारोपण या अन्य किसी कार्यक्रम पर ढोल बजे बगैर कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता


महीना बदले या रात्रि के समय का ऐलान, चैत्र व बसंत का आगमन , होली, दीवाली का उत्साह बिना ढोल के ताल के पूरे नहीं माने जाते हैं। उत्तराखंड की जीवन शैली व संस्कृति का प्रतीक रहा है ढोल। किवदंतियां भी उतनी ही जितनी विविधता ा समेटे हुए है ढोल। कहा जाता है कि इस गुरू वाद्य यंत्र की उत्पत्ति नाग जाति के साथ जुड़ी हुई है। इस वाद्य यंत्र के 1. बीचोंबीच नागफांस की प्रतीक तांबे की एक पट्टी लगी होती है जिसे तांबासारी भी कहा जाता है। इससे जुड़ी दूसरी किवदंती रा यह भी है कि आदि नृतक नटराज अर्थात शिव इस नाद के जनक हैं। आदि ढोल का नाम शिवजति शिव का रचा कहा जाता है। ढोल सागर में इस वाद्य यंत्र के कई अंगों का वर्णन है। डोरिका, Tजाद, गजाबल, पूड, कुंडली, कंदोटी एवं कर्णकाओं का क्रमशः ब्रह्मा, पवन, भीम, विष्णु, नाग, कुरू व गुणज से संबंध बताया जाता है। ढोल सागर में इसे बजाने की कई शैलियों का उल्लेख -मिलता है।


ढोल बजाने की प्रमुख चार शैलियां हैं। अमृत, सिंधु, प्रराणि व मध्यानी। इन चारों में भी अब सिर्फ मध्यानी शैली ही जीवित रह सकी है। इस शैली की चर्चित तालें हैं। बढ़े, थरहरी, चौरास, सुल्तान, चौक, चामणी, रहतानी, चासणी, बेलवाल, शबद, जोड़-जंक, नौबत, पूछ-अपूछ, किरणों, पैसारो, दबूकू और चार तालिम आदि। इन तालों में भी अब सिर्फ बंगाल, शबद बढ़ रहमानी आदि गिने चुने ही ताल शेष रह गए है। पंपात अथवा धुंएल ताल देवों पराना के समय बजने वाली ताल है। रुद्र प्रकृति की ताल प्राय: नृसिंह अधवा काटनी उपासना के समय होता है। पेशे देखने में आया है कि शुभ कार्यों में यदाकदा ही ढोली इस ताल का इस्तेमाल करते हैं।


प्रत्येक मंगल कार्य के समय बनने वाली ताल बदै अथवा बधाई है। इस ताल की एक संवेदना पूर्ण प्रस्तुति उस समय देखने को मिलती है जब बासन्ती गीतों से सराबोर किसी परिवार के आंगन में ढोली उस परिवार के नवागंतुक शिशु को अपनी ओर से झगली टोपी देता है और पसी मनमे दोन बजाकर परिवार वशिश कोलंबी उपकीवाना करता है। इस समय एआगम में मौजूद लोग मा कही गमवर जाते हैं। कहा जात पात का भेदभार जीरा चनाची बातशबद तीसरी प्रमुख ताल है जो शादी के अवसर पर बजनी है। अन्य शुभ अवसरों पर भी जमा दोली इस नाल का प्रयोग करते हैं। अन्य प्रमुख तान नौवत गति के दमो पहर और मांगलिक अवसर पर गुवह चौथे पहा की समाप्ति पर बनाया। ताल है। इसकी प्रकृति शांत है। रहमानी नाल विवाह प्रस्थान, किमी अभियान या यात्रा पर वजने वाली आवान नाल है जिसे अभियान ताल के नाम से भी पुकारा जाता है। दोल के साथ दमा की भी अपनी महना है जिसका वर्णन दमासागर में मिलता है। उसकी विशिष्ट बनावट, मढ़ने की शैली और उसमे निकलने वाली विशिष्ट ताल है।


श्रावण भादों में धार्मिक यात्रा आज भी गढ़वाल हिमालय के दूरस्थ अंचलों में की जाती है। इन यात्राओं का उददेश्य जंगल, जल व देवी शक्ति की अनुभूति करना है। यात्राओं में भी ढोल ढोली और उनके पवाड़ा ज्ञान के बिना यात्रा की कल्पना नहीं की जा सकती है। लेकिन आज ढोली-ढोल वादक अपने परंपरागत पेशे को छोड़ रहे हैं। आजीविका के लिए ढोल वादन पर निर्भर ढोलियों के समाज में सीमित होते अवसरों के कारण दूसरे पेशे अपनाने पड़ रहे हैं। हालांकि आज भी कई लोग ढोल का विशेषताओं को शोध ग्रन्थों के जरिए संरक्षित करने के प्रयास कर रहे हैं लेकिन ढोली आज भी उनके संरक्षण से बाहर उपेक्षित हैं। यह क्रम जारी रहा तो नतीजे के रूप में न ढोली रहेगा और नहीं ढोल।