हरियाणा की कला, संस्कृति और इतिहास

|| हरियाणा की कला, संस्कृति और इतिहास|| 


हिमालय का मुकुट पहने हुए इस विशाल (आधुनिक भारत को समझना बहुत आसान हो गया है- ऐसा गूगल के कारण बेशक लगता हो परन्तु जब तक इस देश के इतिहास और संस् ति को पूरी तरह आत्मसात् न कर लें तब तक महान् भारत को समझना आसान नहीं है। खासकर भारत के अलग-अलग राज्यों को जानने-समझने के लिए उस-उस राज्य की कला, संस् ति और इतिहास को गहराई से आत्मसात् करना बहुत ज़रूरी है.


"हरियाणा" यानी हरि [परमात्माका निवास स्थान वैसे तो “हरि व्यापक सर्वत्र समाना'' परमात्मा सभी जगह है किन्तु जिस भूमि का नाम ही हरि के निवास के रूप में प्रसिद्ध हो तो उसका विशेष महत्त्व हो जाता है । शाब्दिक व्याख्या से ऐसे समझा जा सकता है का कि-हरि+अयन [अयण], जो 'हर्ययनम्' के रूप में प्रयुक्त रहा होगा और बाद में बोल-चाल की भाषा में 'हरियाणा' के नाम से प्रतिष्ठापित हुआ.


कुछ विद्वानों का कहना है कि इस भूमि का नाम "हरित अरण्य' यानी "हरा जंगल"- इस अर्थ में 'हरितारण्य' रहा होगा जो कालांतर में "हरियाणा" कहलाने लगा। इन विद्वानों में श्री मुरलीचन्द्र शर्मा, श्री एच. ए. फड़के, श्री सुखदेव सिंह छिब और श्री मुन्नी लाल आदि प्रमुख हैं.


आधुनिक सन्दर्भ में, भारतीय गणतन्त्र में, एक अलग राज्य के रूप में, हरियाणा की स्थापना यद्यपि 1 नवम्बर, 1966 को हुई, किन्तु एक विशिष्ट ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक इकाई के रूप में। 


हरियाणा का अस्तित्व प्राचीन काल से मान्य रहा है। यह राज्य आदिकाल से ही भारतीय संस् ति और सभ्यता की धुरी रहा है। मनु के अनुसार इस प्रदेश का अस्तित्व देवताओं से हुआ था, इसलिए इसे 'ब्रह्मवर्त' का नाम दिया गया था।


हरियाणा के विषय में वैदिक साहित्य में अनेक उल्लेख मिलते हैं। इस प्रदेश में किए गए उत्खनन _ से यह ज्ञात होता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता और मोहनजोदड़ो की संस् ति का विकास यहीं पर हुआ था.


शास्त्र-वेत्ताओं, पुराण-रचयिताओं एवं विचारकों ने लम्बे समय तक इस ब्रह्मर्षि प्रदेश की मनोरम गोद में बैठकर अनेक धर्म-ग्रन्थ लिखकर ज्ञान का प्रसार किया। उन्होंने सदा मां सरस्वती और पावन ब्रह्मवर्त का गुणगान अपनी रचनाओं में किया।


इस राज्य को ब्रह्मवर्त तथा ब्रह्मर्षि प्रदेश के अतिरिक्त 'ब्रह्म की उत्तरवेदी' के नाम से भी पुकारा गया। इस राज्य को आदि सृष्टि का जन्मस्थान भी माना जाता हैयह भी मान्यता है कि मानव जाति की उत्पत्ति जिस वैवस्वत मनु से हुई, वे इसी प्रदेश के राजा थे।


"अवन्ति–सुन्दरी-कथा" में इन्हें स्थाण्वीश्वर [थानेश्वर] निवासी कहा गया है। पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार आद्यैतिहासिक कालीन–प्राग्हड़प्पा, हड़प्पा, परवर्ती हड़प्पा आदि अनेक संस् तियों के अनेक प्रमाण, हरियाणा के वणावली, सीसवाल, कुणाल, मिर्जापुर, दौलतपुर और भगवान्पुरा आदि स्थानों के उत्खननों से प्राप्त हुए हैं।


हरियाणा- 'भारत' के नामकरण की पृष्ठभूमि है- भरतवंशी सुदास ने इस प्रदेश से ही अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया और आर्यों की शक्ति को संगठित किया। ये ही भरतवंशी आर्य देखते-देखते सुदूर पूर्व और दक्षिण में अपनी शक्ति को बढ़ाते गयेउन्हीं वीर भरतवंशियों के नाम पर ही तो आगे चल कर पूरे राष्ट्र का नाम 'भारत' पड़ा।


महाभारत काल से शताब्दियों पूर्व आर्यवंशी कुरुओं ने यहीं पर षि-युग का प्रारम्भ किया। पौराणिक कथाओं के अनुसार उन्होंने आदिरूपा माँ सरस्वती सरिता के 48 कोस के उपजाऊ प्रदेश को पहले-पहल षि योग्य बनाया। इसलिए तो उस 48 कोस की षि-योग्य धरती को कुरुओं के नाम से जाना गया जो कि आज भी भारतीय संस्कृति का पवित्र प्रदेश "कुरुक्षेत्र" माना जाता है।


बहुत बाद तक सरस्वती और गंगा के बीच बहुत बड़े भू–भाग को 'कुरु-प्रदेश' के नाम से जाना जाता रहा । महाभारत का विश्व-प्रसिद्ध युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया। इसी युद्ध के शंखनादों के तुमुल–घोष के बीच से एक अद्भुत स्वर उभरा - "धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेताः युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय !||"


श्रीमद्भगवद्गीता के इस पहले श्लोक के साथ योगेश्वर श्री ष्ण के अलौकिक स्वर की अनुगूञ्ज आज भी सुनाई देती है। युगपुरुष भगवान् श्री ष्ण के श्रीमुख से प्रकट हुयी श्रीमद्भगवद्गीता जो भारतीय संस् ति के बीज-मंत्र के रूप में सदा-सदा के लिए अमर हो गई.


वर्द्धन वंश का सबसे प्रतापी शासक हर्षवर्धन था, जिन्होंने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कीहरियाणा प्रदेश का वह एक गौरव युग था। चीनी भिक्षु वेनसांग ने हर्ष की राजधानी स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) के वैभव और समृद्धि का सुन्दर चित्रण किया हैसंस् त-साहित्य के महान् गद्यलेखक बाणभट्ट ने अपने 'हर्षचरितम्' नामक ग्रन्थ में उस समय के हरियाणा प्रदेश के जन-जीवन और सांर तिक-परंपराओं का व्यापक वर्णन किया है हर्षकाल में जनपदों का स्वरूप ज्यों का त्यों बना रहा । सम्राट् ने कभी यहाँ की आंतरिक व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं किया।


सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् यहां का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गयालगातार बाहरी आक्रमण होते रहे परन्तु यहां के लोगों ने अपनी शक्ति से आन्तरिक सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखा । प्राचीन हरियाणा की सबल गण– परम्परा के फलस्वरूप ही यहां के लोग सदा जनवादी बने रहे और कालांतर में उन्होंने हर उस साम्राज्यवादी शक्ति से टक्कर ली जिन्होंने भी उनकी जनवादी व्यवस्था में हस्तक्षेप किया। सन् 1857 का जन-विद्रोह भी उसी आस्था का प्रतीक था.


यौधेय काल में ये प्रदेश 'बहुधान्यक' प्रदेश के नाम से जाना जाता था। मूर्तिकला, हस्तकला और ललित कलाओं के लिए यौधेय पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध थेरोहतक के ढोलवादक धुर उज्जैन तक पहुँचकर प्रसिद्धि प्राप्त करते थे। मल्लयुद्ध और युद्ध-कौशल में उनका जवाब नहीं था। वे एक ओर तो विकट योद्धा थे साथ ही जीवट शक्ति वाले किसान भी थे। यह गर्व की बात है कि पूरे एक हजार वर्ष तक इस गणराज्य ने भारत के इतिहास में अपूर्व प्रसिद्धि प्राप्त की और अपने प्रदेश को गणतन्त्रात्मक राजनैतिक व्यवस्था के अधीन चरम विकास तक पहुंचाया तोमर शासकों के शासनकाल में हरियाणा में व्यापार, कला तथा संस् ति ने बहुत उन्नति की जिसकी जानकारी हमें दसवीं शताब्दी में लिखित सोमदेव के ग्रन्थ 'यशस्तिलक-चम्पू' से मिलती है। हरियाणा का इतिहास अनेक प्रकार की राजनैतिक -सामाजिक घटनाओं का विस्तृत इतिवृत्त है जिसको यहाँ पर संक्षेप में लिखा है।


1960 के दशक की हरित क्रान्ति में हरियाणा का भारी योगदान रहा जिससे आधुनिक भारत खाद्यान्न सम्पन्न हुआ। हरियाणा, भारत के अमीर राज्यों में से एक है और प्रति व्यक्ति आय के आधार पर यह देश का दूसरा सबसे धनी राज्य है। इसके अतिरिक्त भारत में सबसे अधिक ग्रामीण करोड़पति भी इसी राज्य में हैं। हरियाणा, आर्थिक रूप से दक्षिण एशिया का सबसे विकसित क्षेत्र है और यहाँ षि एवं विनिर्माण उद्योग ने 1970 के दशक से निरंतर वृद्धि प्राप्त की हैभारत में प्रति व्यक्ति निवेश के आधार पर वर्ष 2000 से हरियाणा सर्वोपरि स्थान पर रहा है.


हरियाणा के सांस्कृतिक जीवन में भी राज्य की कृषि–अर्थव्यवस्था के विभिन्न अवसरों की लय प्रतिबिंबित होती है और इसमें प्राचीन भारत की परंपराओं व लोककथाओं का भंडार हैहरियाणा की एक विशिष्ट बोली है और उसमें स्थानीय मुहावरों का प्रचलन है। स्थानीय लोकगीत [विशेषरूप से रागिनी] और नृत्य अपने आकर्षक अंदाज़ में राज्य के सांस् तिक जीवन को प्रदर्शित करते हैं। ये ओज से भरे हैं और स्थानीय संस् ति की विनोद-प्रियता से जुड़े हैंवसंत ऋतु में मौजमस्ती से भरे होली के त्योहार में लोग एक-दूसरे पर गुलाल उड़ाकर और गीला रंग डालकर मनाते हैं इसमें उम्र या सामाजिक हैसियत का कोई भेद नहीं होता है।


सूर्यग्रहण पर पवित्र स्नान के लिए देश भर से लाखों श्रद्धालु कुरुक्षेत्र आते हैं अग्रोह (हिसार के निकट) और पिहोवा सहित राज्य में अनेक प्राचीन तीर्थस्थल हैंअग्रोहा अग्रसेन के रूप में जाना जाता है, जो अग्रवाल समुदाय और उसकी उपजातियों के प्रमुख पूर्वज या प्रवर्तक माने जाते हैं.


वैदिक संदर्भो के अनुसार ज्ञान और कला की देवी. सरस्वती (सरिता), के किनारे स्थित पिहोवा को पर्वजों के श्राद्ध पिंडदान के लिए एक महत्त्वपूर्ण पवित्र स्थान माना जाता है। विभिन्न देवताओं और संतों की स्मृति में आयोजित होने वाले मेले हरियाणा की संस् ति का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं अनेक स्थानों पर पशु मेले भी आयोजित किए जाते हैं । यह क्षेत्र अच्छे नस्ल के दुधारू पशुओं, खासकर भैंसों और खेती के काम में आने वाले पशुओं और वर्ण-संकर पशुओं के लिए भी जाना जाता है। 


हरियाणा के पारंपरिक पारिवारिक- आवास [हवेलियां] वास्तुशिल्प की सुंदरता, खासकर उनके द्वारों की संरचना के लिए जानी जाती हैं। इन हवेलियों के दरवाजों का अभिकल्पन और हस्तकौशल विविधता–युक्त ही नहीं, बल्कि इन पर उत्कीर्ण विभिन्न विषयों की श्रृंखला भी विस्मयकारी है। ये हवेलियां हरियाणा की गलियों को मध्ययुगीन स्वरूप और सुंदरता प्रदान करती हैं इन भवनों में अनेक चबूतरे होते हैं, जो रिहायशी, सुरक्षा, धार्मिक और अदालती कार्यों के लिए उपयोग में लाए जाते हैं । इन भवनों से इनके स्वामियों की सामाजिक स्थिति का संकेत मिलता है। इन चबूतरों पर उकेरी हुई कला तियां इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की याद दिलाती हैं.


कहा जा सकता है कि अनेक प्रकार की खूबियों वाले हरियाणा राज्य के बारे में लघु-आलेख ही पर्याप्त नहीं है । एक विस्तृत-ग्रन्थ के माध्यम से ही हम "हरियाणा की कला, संस् ति और इतिहास" के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।



स्रोत - समाचार भारती, समाचार सेवा प्रभाग, आकाशवाणी