जून

||जून||


जब उसने अपनी आँख खोली तो देखा कि उसके सर से उसके बाप का साया हमेशा-हमेशा के लिए उठ चुका था इतना ही नहीं उसकी माँ जून, जिंदा तो थी लेकिन एक-एक सांस की मोहताज । न जाने कब वो भी रूखसत हो जाए उसके अंदर खौफ था। अब अगर वो जिंदा थी यह महज़ उसकी मजबूरी थी वरना उसकी दुनिया उसी दिन खत्म हो चुकी थी जिस दिन उसका सुहाग छिन गया था। वो एक मां थी अपनी औलाद के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता । एक मां ने कितने ही पापड़ बेले थेजून ने अपने बच्चे की परवरिश करते-करते । वो ही जानती थी कि उसका घर कैसे चलता था। जन अक्सर बीमार रहा करती थी। हाइपरटेंशन के कारण ब्लडप्रेशर एबनॉर्मल रहा करता था फिर भी जून ने जिंदगी से कभी हार नहीं मानी और हमेशा सकारात्मक ही सोचती थी।


दो मंजिला कच्चा मकान, चंद अखरोट और सफेदे के पेड़, दूध देने वाली एक गाय और दस कनाल ज़मीन, यह कल जायदाद थी जन की। उसके हक हमसाये उसकी खैरो आहिफयत पूछने जरूर आते थे मगर उनकी नज़रें सिर्फ और सिर्फ दस कनाल जमीन पर थी। उसे मालूम था कि बेकसों और बेसहारों की यहां कोई मदद नहीं करता। लिहाजा खुद अपने पैरों पर खड़े होकर दुनिया से लोहा मनवाना उसने किसी हद तक सीख ही लिया था। अकेली एक औरत परे समाज से टक्कर ले शायद यह कठिन काम थालेकिन वो समाज पर रियाकारी पर्दा हटा कर एक सच्चे और साफ-ओ-पाक समाज का आईना देखना चाहती थीजून अगरचे *जून (चांद) इकलौते बच्चे के साथ रोजमर्रा की जिंदगी जैसे-तैसे बसर करती थी मगर उसकी पेशानी पर कभी भी मायूसी की शिकन नज़र नहीं आती थी। हमेशा खुश-ओ-खुर्रम रहती थी। गम और दुख की जिंदगी में भी एक खिलते गुलाब की तरह मुस्कुराती रहती थी। इससे उसे किसी हद तक तनाव दूर रखने में मदद मिलती थी।


एक पुर एतमाद औरत जून अपने आप को किसी भी मर्द के मुकाबले कभी भी कमतर नहीं समझती थीजून हमेशा बड़ा सोचती थी उसकी निगाहें आसमान की ओर टिकी रहती थीं। इसी दरअंदेशी की बदोलत कभी उसने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा। लेकिन क्या करें वो तो एक मां थी, मां जो कितनी ही तुंद मिजाज़ क्यों न हो लेकिन उसका दिल निर्मल, मुलायम और फूल जैसा नाजक होता है। उसका सारा संसार उसकी बेटी शादा थी। उसने शादा में भी वही आदात-ओ-औसाफ पैदा किए थे जिन औसाफ की बदोलत वो खुद जानी जाती थी। उनका दो मंजिला मकान था तो कच्चा, लेकिन वह एक महल से कम न था। गांव के लोग उस पर रश्क करते थे कि एक गरीब औरत का कच्ची ईटों का मकान इतना सुंदर और साफ-सुथरा कैसे ? जून खुद भी हमेशा साफ-सुथरे कपड़ों में मलबूस रहती थी। जून का एक ही मंत्र था वह था स्वच्छता का अक्सर कहा करती थी "सफाई खुदा को भी मरगूब है" स्वच्छता पर बहस में उसे कोई परास्त नहीं कर सकता था। उसका कहना था कि सफाई-सुथराई सभी मों की दवाई है। मिसालें पेश करना अच्छा लगता था उसे । कहती थी- "माहौल जब साफ हो, घर सुथरा हो, गांव गलाज़त से पाक हो तो यह पाकीज़गी अच्छे समाज को जन्म देती है वह यह भी कहती थी सफाई-सुथराई अच्छे सोच-ओ-विचार और अच्छे आदात की भी एक अलामत होती है। इस पर शेर सुनाती थी "सफाई से इंसान, इंसान है, गलीज़ और गंदा तो हैवान है।


पेड़ लगाना भी उसे बेहद पसंद था क्योंकि पेड़ ऑक्सीजन देते हैं और कॉबर्न डाईऑक्साइड को माहौल पर असरअंदाज नहीं होने देते। लिहाजा पेड़ लगाना उसका मशगुला बन गया थासफेदे और बेद के पेड़ उसे पसंद थे। मुंद ऋषि का हवाला देना उसकी आदत बन गई थी"अन पोशे तेले येले वन पोशे " यानि अन की बरकत तभी होगी जब वन रहेंगे। कदरती बात है कि शादा भी मां के नक्शेकदम पर चलकर अपने मरहम बाप का नाम रोशन करना चाहती थी। अपने बाप की शफककत से महरूम शादा को तसकीम अपनी मां के साथ रहकर और उसकी खिदमत करने में मिलती थी। काम करने का तरीका मां जैसा, सोचती भी मां जैसा ही थीमतलब मां पर ही गई थी। मां की सारी दुनिया शादा और शादा की सारी दुनिया मां ही तो थीसिवाय कुदरत कौन गम-खवार थाउनका जिसके साथ वो अपने दुख-दर्द बांटते आपस में गुफ्तगू करते थे कि एक और एक दो नहीं बल्कि ग्यारह होते हैं जून अपनी बेटी को कभी भी बेटी कहकर नहीं पुकारती थी बल्कि बेटा कहकर पुकारती थीमां-बेटी एक दूसरे के साथ ढेर सारी बातें किया करते थेशादा अगर कभी कभार कोई खौफ जाहिर भी करती तो मां उसे यह कहकर उसका खौफ दूर कर देती कि हम दो नहीं ग्यारह हैं । दुनिया की कोई भी ताकत हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती क्योंकि हमें अपने आप पर पूरा यकीन है और जिस तरह एक मर्द ताकतवर है औरत उससे और भी ज्यादा ताकतवर है क्योंकि औरत को शक्ति का नाम दिया गया है औरत चाहे तो अपनी शक्ति से नामुमकिन को मुमकिन में बदल सकती हैइस तरह से जून ने अपनी बेटी को अच्छे संस्कारों के साथ-साथ एक अच्छा और निडर इंसान बनने की भी शिक्षा दी थी उसे यह तालीम भी दी थी कि बुज़दिली और कायरता एक इंसान को पस्ती के अंधेरे में धकेल देते हैं साथ ही यह भी बताया कि ज़ोर हो पर दिखाना न पड़े। शादा ने सालाना इम्तिहानात में कई बार पहली पॉजिशन हासिल करके न सिर्फ अपने स्कूल का नाम रोशन किया था बल्कि गांव के लोगों को भी उस पर फख था। फख क्यों न करते वो दूसरे तालिबे इम्लों के लिए एक प्रेरणा थी। रोज़ कुछ न कुछ नया करना चाहती थीआकाश के तारों के साथ खेलना चाहती थी। उसकी जिंदगी का मकसद अपने गांव को स्वर्ग से भी सुंदर बनाना और इसको हर जदीद सहूलियत से आरास्ता करना क्योंकि उसके मरहूम वालिम का भी यही स्वप्न था कि उनका गांव एक मॉडल गांव बने और यह गांव दूसरों के लिए एक मिसाल बने । बरसात में यह गांव कई दिनों तक जिले के दूसरे इलाकों से कट कर रह जाता था, क्योंकि जबरदस्त सैलाब दरिया पर लकडी के पुल को ढहा कर ले जाता था। इतना ही नहीं पुल के ढह जाने से गाव क तालिब-इल्म दूसर गाव में अपने स्कूल से भी मरहूम रह जाते थे। गांव में कोई सख्त बीमार पड़ जाए तो उसको इलाज के लिए गांव से बाहर ले जाने के लिए कोई दूसरा रास्ता ही नहीं था। गांव में न अस्पताल था और न ही कोई प्राइमरी हेल्थ सेंटर गांव की हालत शादा से देखी नहीं जाती थी। इसलिये उसने ठान लिया था कि वो एक दिन गांव का कायाकल्प कर देगी। शादा के सोचने का अंदाज ही अलग था और अंदाजे बयां भी मुनफरिद, जो भी कुछ सोचती वह आउट ऑफ बॉक्स होता था। यही वजह थी कि उम्र में उससे बड़े लोग भी उसकी बातों से सीखते थे। अपनी मां की ही तरह यही तलकीन करती कि जो हर लिहाज से साफ-सुथरा रहता है उसका सोच और समझ भी वैसी ही साफ-सुथरी होती है। स्वच्छता ही तरक्की की जामिन है।


शादा ने जूं ही जवानी की दहलीज पर कदम रखा तो इसी के साथ जून का अपनी बेटी को लेकर तशवीश बढ़ने लगा । एक मां के नाते जून का यह पहला फर्ज था कि वो अपनी बेटी के साथ खुलकर बात करे कि अब वो एक बच्ची नहीं है बल्कि एक जवान लड़की है ..... ।


"मोजी" यह वो जमाना नहीं है जब मां-बाप को अपनी बेटी को लेकर दिन का सकून और रात की नींद से भी महरूम होना पड़ता था । हम आज 21वीं सदी में रह रहे हैंजहां जवान बेटा और जवान बेटी जिंदगी के किसी भी शोबे में शाना-बशाना मैदान मार रहे हैं और सच तो यह है कि आज की जवान लड़की तरक्की कीदौड़ में जवान लड़कों से आगे है और अब वह पीछे नहीं रहती और क्या फर्क है लड़के और लड़की में आज की लड़की आसमान से तारे तोड़ कर लाती है । इस तरह से शादा ने अपनी मां को दो टक लफ्जों में कह दिया कि जो कुछ मेरी मां मेरे बारे में सोचती है वो कतअन मेरी प्राथमिकता नहीं हैमेरी प्राथमिकता मेरी तालीम और मेरा नोबल मिशन है। आज दुनिया मेरी मुठठी में है और मैं दुनिया की मुट्ठी में नहीं हूं और मैं ही इस नये युग की नई तकदीर लिखूगी। उसे यह भी पूरी तरह से मालूम था कि वो एक न एक दिन टैक्नोक्रैट बन कर ही रहेगी और अम्ली मकसदों के लिए साईस का इस्तेमाल आम करने में अपना सहयोग देगी।


शादा धीरे-धीरे समाज में एक रोल मॉडल बनने लगी। खुद साफ-सुथरी रहने वाली शादा को देखकर दूसरी लड़कियां उसके नक्शे कदम पर चलने लगी। शादा जब सड़क पर चलती थी तो उसे रास्ते में अगर कूड़ा-करकट मिल जाता था तो वो खुद उसे अपने हाथों से उठाती और उसे कूड़ेदान में डालती थी । शादा के मुताबिक अपने गांव के सड़कों की सफाई उसके लिये एजाज़ का बाइस था अगरचे गांव में कूड़ेदान नहीं थे। मगर उसकी अपील का यह नतीजा निकला कि धीरे- धीरे लोगों ने अपने घरों के पास कूड़ेदान रखने शुरू किए। सफाई-सुथराई को लेकर गांव वालों में जो बेदारी पैदा हुई उसका सहरा शादा को ही गया । शादा के कारनामों की खबर दूर-दूर तक फैलने लगी। सफाई-सुथराई के पैगाम को आम करने में उसकी बेमिसाल कोशिशों के सिले ने शादा को ब्लॉक सतह पर एक तकरीब में इनाम से नवाजा गया । उसे इनाम के तौर पर एक कम्प्यूटर मिल गया शादा ने अपना यह इनाम अपने मरहूम वालिद की याद में वक्फ़ किया । जून भी इस एजाज पर बेहद खुश थी मगर साथ ही उसे यह बात भी सुनाती थी कि शादा अब एक बच्ची नहीं फिर खुद ही अपने आप को दिलासा भी देती थी कि शादा मेरी बेटी नहीं बल्कि एक बेटा है। जिसने न सिर्फ अपने मरहूम बाप और घर का नाम रोशन किया बल्कि पूरे गांव का नाम रोशन किया । जब शादा ने इनाम में मिले हुए कम्प्यूटर के बारे में अपनी मां के साथ  बात की तो दोनों इस बात पर रजामंद हुए कि अगर इस कम्प्यूटर से गांव की भलाई होती है उनके लिए इससे बढ़कर और क्या खुशी हो सकती हैलिहाजा शादा ने खुद कम्प्यूटर सीखकर दूसरों को भी इसकी तरबीयत दीछोटे, बड़े, मर्द, औरत, अनपढ़, तालीमयाफ्ता सबको कम्प्यटर की तरबीयत देने लगी। शादा भी आम लडकियों की ही तरह थी मगर उसमें जो लगन, इच्छा और उमंग थी उस खासियत ने उसे कम उम्री में ही एक बड़ा मकाम अता किया था। साथ-साथ पढ़ाई भी, घर का कामकाज भी, मां का भी हाथ बंटाना, समाजी खिदमत भी, यह सब कुछ शादा बिना किसी थकन के किया करती थी। गांव में कम्प्यूटर की बदोलत जिंदगियों में एक नया वलवला और जोश पैदा हो गया। यह एक इंकलाब से कम न था कम्प्यूटर से समाज में बदलाव आने लगे। शादा के इस इनामी कम्प्यूटर के पीछे-पीछे कम्प्यूटरों की कतारें बनने लगीं । कम्प्यूटर की बदोलत दूरियां नजदीकियों में बदल गई। सुस्त रफ्तार जिंदगी तेज रफ्तार जिंदगी में बदल गई। जिस काम को करने में कई दिन लग जाते वह काम चुटकियों में होने लगा। शादा का गांव अब वह गांव नहीं रहा जो एक वक़त पस्मांदा था । यह गांव अब दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा।


अब लोग इसे शादमां गांव के नाम से पुकारने लगेअब जन के माथे पर मायसी का कोई शिकन नहीं दिखता और न ही उसे कोई बात सताती थी। एक-एक दिन गुज़रता गया। जून को भी अपने लख्ते जिगर पर पूरा विश्वास बढ़ने लगा था। शादा का दाखिला डिग्री कॉलेज में हुआ, जहां वो हर एक डिबेट जीत जाती थी और उसे बेस्ट डिबेटर का भी एजाज़ मिला। उसका कॉलेज अगरचे गांव से काफी दूर था मगर वो नेट के जरिये राउन्ड द क्लॉक अपने गांव वालों के साथ जुड़ी रहती थी। ग्रेजुएशन इम्तयाज़ी पोजीशन के साथ हासिल की और इसके बाद आई. ए. एस. की तैयारी करने लगी। देखिए कुदरत का करिश्मा शादा ने आई.ए.एस. में भी इम्तयाजी पोजीशन हासिल कीबाद में उसकी तैनाती अपने ही जिले में हुई बहैसियत डी.सी. जो सबसे पहला काम शादा ने किया वह था गांव-गांव में सफाई-सुथराई मुहिमों का आगाज़ और मुहल्ले-मुहल्ले में बैत-उल-खला तामीर करना, नीज़ जिले के कोने-कोने में कम्प्यूटरों का जाल बिछाना डी. सी. बनने के बाद जब शादा अपने गांव पहुंची तो देखाकि वाकई उसका गांव शादमान है। कार से उतरकर सीधे अपने बाप के मकबरे पर हाजिरी देने गई। वहां अकीदत के फूल नज़ किये । उसकी आंखें पुर-नम थीं। मगर ये आंसू उस खुशी के आंसू थे जिस खुशी का वादा उसने अपने बाप का साया सर से उठने के कई साल बाद किया था कि एक न एक दिन ज़रूर वो खुशियों को वापस लाएगी। इसी दौरान सारा गांव मकबरे के पास उमड़ पड़ा और एक जुलूस की सूरत में उसको अपने घर तक ले गया। उसे अपने घर तक पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई थी। जब शादा अपने घर के सामने पहुंची तो देखा कि उसकी मां चांदनी रात में दरवाजे पर खड़ी आसमान में जून का दीदार करने निकली है।


स्रोत - समाचार भारती, समाचार सेवा प्रभाग, आकाशवाणी