किशोरी कार्यक्रम से उभरते मुद्दे 

किशोरी कार्यक्रम से उभरते मुद्दे 


राजेन्द्र बिष्ट


शैक्षणिक ग्रामोन्नति समिति ने पिछले वर्ष गणाई-गंगोली क्षेत्र में ग्रामीण किशोरियों के साथ शिक्षण का कार्य शुरू किया। इस दौरान ग्राम स्तर पर बालिकाओं के साथ गोष्ठियों, शिविरों, सम्मेलनों और विद्यालयों में कार्यशालाओं के आयोजन से संवाद की एक लंबी प्रक्रिया शुरू हुई। यह एक नया अनुभव था। इसका मुख्य उद्देश्य किशोरियों के बीच आपसी संवाद स्थापित करना, उन्हें अपने बारे में सोचने-समझने के अवसर देना तथा संगठन के माध्यम से उनकी परिस्थितियों को समझना एवं समस्याओं को सुलझाना था।


ग्रामीण परिवेश में आज भी लड़कियों के लिये अवसर अत्यंत सीमित हैं। परिवार और समाज में होने वाले भेदभाव, हिंसा, टीका-टिप्पणी, छेड़-छाड़, यौन हिंसा आदि के बारे में बोल पाना या उसका विरोध कर पाना अत्यंत कठिन है। समाज का ढाँचा ऐसा है कि वह लड़कियों - नन्दा को किसी भी अन्याय के विरूद्ध बोलने से रोकता है। समाज उन्हीं लड़कियों को शालीन मानता है जो चुप रहती हैं। अन्याय के खिलाफ बोलने पर उसे परिवार और समाज की "इज्जत उछालने वाली' जैसे संबोधनों से जूझना पड़ता है। यदि उत्तराखण्ड के पहाड़ी जिलों में हिंसा, छेड़खानी एवं अन्य अपराध कम दिखाई देते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि समस्याएं मौजूद नहीं हैं। समस्याओं से जूझ रही किशोरियाँ और महिलायें या तो अपने साथ होने वाली घटनाओं को व्यक्त नहीं कर पाती या उन्हें चुप करा दिया जाता है। उनकी बातें कहीं दर्ज नहीं होती, इसलिए प्रत्यक्ष नहीं हो पातीं। किशोरियाँ अन्याय और शोषण को समझें, आपस में संवाद करें तथा अपने अनुकूल परिस्थियों के निर्माण में पहल करें, इन्हीं उद्देश्यों को लेकर पिछले एक वर्ष से संस्था ने काम शुरू किया। इस एक वर्ष के संवाद की प्रक्रिया में कुछ बुनियादी मसले प्रत्यक्ष हुए । भविष्य में इन मुद्दों पर काम करने की जरूरत है-


1.लड़कियों के साथ घरों में रोक-टोक, टीका-टिप्पणी, लड़कों से कमतर समझने का दृष्टिकोण व्यापक रूप से विद्यमान है। आज भी सार्वजनिक स्थलों पर बेरोकटोक आना-जाना सम्भव नहीं है।


2.राजनीतिक बहसों में लड़कियों की भागीदारी नगण्य है ना ही उनके बीच में इस मुद्दे की समझ बनी है। जब पंचायतों में पचास प्रतिशत महिला आरक्षण की बात करते हैं तो जरूरी हो जाता है कि किशोरियों एवं नवयुवतियों को जागरूक किया जाये।


3.लड़कियाँ स्वयं को दूसरे के संरक्षण में डाल कर सुरक्षित महसूस करती हैं। परावलंबन का यह भाव उनकी अपनी सोच और गतिविधियों के दायरे को सीमित कर देता है लोगों से मिलने, बातें करने से व्यक्तित्व का दायरा बढ़ता है। ग्रामीण लड़कियों के पास ये अवसर उपलब्ध नहीं हैं।


4.विद्यालयों में शिक्षिकाओं का अभाव है। किशोरावस्था में किशोरियों को जिस सहयोग व मार्गदर्शन की जरूरत होती है, उसके लिये ना समाज में सोच है, ना ही सरकारें इस मुद्दे के प्रति गंभीर हैं।


5.घरों में लड़कियाँ जिम्मेदारियों से बँधी रहती हैं। जब तक घर के कामों में लड़कों की भागीदारी नहीं बढ़ेगी तब तक लड़कियों के पास आगे बढ़ने के अवसर कम ही रहेंगे।


6.असुरक्षा की भावना लड़कियों को बाहर निकलने से रोकती है। इस वजह से वे एक सीमित दायरे में रहती हैं। यह कारक उनके व्यक्तित्व के विकास में बाधक है।


7.लड़कियों की सोच को सामाजिक बहस का हिस्सा बनाना जरूरी है। जब तक उनकी सोच सामाजिक बहस का हिस्सा नहीं बनेगी तब तक उनकी स्थिति में विशेष बदलाव नहीं आयेगा।यह एक चुनौती पूर्ण कार्य है परंतु समानतापूर्ण समाज की स्थापना के लिये इस दिशा में काम करना जरूरी है।


8.ग्रामीण विकास के कार्यों में किशोरियों को लेकर कोई विशेष योजना या सोच नहीं दिखाई देती । यदि कोई विशेष योजनायें हैं भी तो उन तक ग्रामीण किशोरियों की पहुँच अत्यंत सीमित है।


किशोरियों के व्यक्तित्व के विकास के लिये ज्यादा से ज्यादा अवसर उपलब्ध किये जाने चाहिए। उन्हें ऐसा माध्यम मिले जिस से वे अपनी बातें आसानी से रख सकेंउनके विचारों को महत्व मिले। विद्यालयों से अर्जित किताबी ज्ञान शिक्षा के अतिरिक्त सामाजिक-राजनीतिक एवं आर्थिक मसलों पर शिक्षण जरूरी है।