कुम्भ प्रवाह, कुम्भ पर्व और हरिद्वार


||कुम्भ प्रवाह, कुम्भ पर्व और हरिद्वार||



अमृतमय कुम्भ पर्व मनुष्य के जीवन में कई प्रकार से अमृततत्व का संचार करता है। ज्ञान के द्वारा बद्धि में श्रद्धा के द्वारा मन में स्नानादि अर्थात पवित्रता के द्वारा शरीर में, दान के द्वारा धन में और वासना-शोधन के द्वारा लोक-व्यवहार में एक उच्चकोटि का प्रकाश भर देता है, जिससे मनुष्य का जीवन उज्ज्वल बनकर कर्त्तव्य-पथ की ओर अग्रसर हो सके। शताब्दियों से अपनी निरन्तरता को अक्षुण्ण रखते हुए यह महापर्व अपनी सर्वमान्य महत्ता और विराट स्वरूप की विशालता के साथ श्रद्धालओं को धर्म-संस्कति से आज तक जोड़ता चला आ रहा है। मानव जीवन में आलोक और अन्तश्चेतना का संचार करने वाला यह एक ऐसा महान सांस्कृतिक पर्व है, जो न केवल आध्यात्मिक चेतना अपितु राष्ट्रीय चेतना, एकता और अखण्डता का आधर स्तम्भ भी है।



कुम्भ पर्व और हरिद्वार


कुम्भ पर्व को भारतीय संस्कृति का पुरातन महापर्व कहा जाता है। भारतवर्ष अनादिकाल से ही पर्वो के लिए विख्यात है। इन पर्वो में कुम्भ का विशिष्ट स्थान रहा है। कुम्भ पर्व की परम्परा सहस्रों वर्षों से अनवरत गतिमान है। महर्षियों, पुराणवेत्ताओं, धर्माधिकारियों एवं दार्शनिकों से लेकर आमजन तक यह आस्था, विराट स्वरूप में दिखती है। कुम्भ समस्त ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना जाता है। ब्रह्माण्ड का आकार ही कुम्भ के सदृश है। समस्त सृष्टि का इस कुम्भ में समावेश है। 'मृत्योर्मामृत गमय' की भारतीय जीवन दृष्टि मूलत: कुम्भ के इस लोकपर्व की पृष्ठभूमि है।


भारतीय संस्कृति में 'कुम्भ' शब्द का व्यापक अर्थ है, अधिकांशतः इस शब्द को ज्ञान के प्रतीक के रूप में प्रयोग किया जाता है। अथर्ववेद में 'कुम्भ' के बारे में वर्णन मिलता है। काल (समय) के ऊपर भरा हुआ कुम्भ रखा गया है। काल आकाश में स्थित है और वह स्थिर है किन्तु वह लोकों में (पृथ्वी में भी) गतिशील दिखाई देता है। इसी काल में ज्ञान समाहित है और इसी से वेद उत्पन्न होते हैं। अथर्ववेद की ऋचा से स्पष्ट ज्ञात होता है कि कुम्भ पर्व का ज्ञान से सम्बन्ध है। ज्ञान ही अमृत है और इस अमृत की प्राप्ति ही कुम्भ पर्व का उद्देश्य है।


सामान्यतः कुम्भ का शाब्दिक अर्थ कलश या घड़े से लिया जाता है, कलश की पूजा करने का विधान इसी परम्परा का अंग है। इसलिए किसी भी शुभ कार्य में सर्वप्रथम कुम्भ अर्थात् कलश की पूजा करना सनातन धर्म के आस्थावान भारतीयों में सर्वत्र पाया जाता है। वैसे भी भरे हुए घड़े को मंगलमय स्वरूप में देखा जाता हैपरन्तु पुराणों में कलश को अमृत कुम्भ कहने का विशेष महत्व माना गयाइसका निर्माण सागर मंथन से निकले अमृत को रखने के लिए किया गया थाइस कुम्भ (कलश) को बनाने में सभी देवताओं ने अपनी विशिष्ट कलाओं का योगदान दिया था। इसलिए इस कलश की संज्ञा दो गई है।


कलश (कुम्भ) तथा अमृत के सन्दर्भ के पीछे श्रीमद्भागवत, स्कन्दपुराण तथा महाभारत आदि ग्रन्थों में समुद्र मंथन का दृष्टान्त प्रचलित है। राजा बलि की ताकत से देवताओं में असंतोष व्याप्त थाराजा बलि से देवतागण पराजित हो गये थे। उन्हें अपनी हार की चिन्ता सताये जा रही थी। वे सब बैकुण्ठ धाम में भगवान विष्णु के पास पहुंचे और राजा बलि की ताकत तथा हार का सारा वृत्तान्त उन्हें सुना दिया। भगवान विष्णु ने देवताओं को आपद्धर्म का महत्व समझाया कि विपत्ति में बलवान शत्रु से मित्रता करना हितकर होता है। इसलिए तुम राजा बलि से दोस्ती कर लो। राजा बलि को मनाकर समुद्र मंथन की तैयारी करो। समुद्र मंथन से कई प्रकार की दुर्लभ वस्तुएं प्राप्त होगी, इनमें अमृत भी प्राप्त होगा, उस अमृत को अपनी विशिष्ट समझदारी से आपस में बांट लेना, ताकि तुम्हारी शक्ति असुरों से अधिक हो जायेगी। इस कार्य में, मैं भी तुम्हारी सहायता करूंगा।


भगवान विष्णु के आदेशानुसार देवतागणों ने राजा बलि से दोस्ती का हाथ बढ़ाया तथा उसको समुद्र मंथन के लिए राजी कर लियासमुद्र मंथन के लिए मथनी (विचार स्तम्भ) की जगह मंदराचल (मेरु पर्वत) को बनायावासुकी नाग उस विचार स्तम्भ को घुमाने वाले संचालक (डोरी) बने जिन्हें एक ओर से देवताओं ने तथा दूसरी और से दानवों ने पकड़ा। मथनी का आधार स्तम्भ भगवान कच्छप बनकर उस मेरु पर्वत को अपनी पीठ पर धारण करने वाले बने, जिससे क्षीर सागर को मथने में कोई कठिनाई न हो।


समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। समुद्र मंथन में सबसे पहले विष निकला जिसे पीने के लिए कोई तैयार न हुआअन्त में शिव ने लोक कल्याणार्थ उस विष को अपने गले में धारण किया। तब से उनका कण्ठ नीला हो गया। शिवजी को इसलिए नीलकण्ठ भी कहा जाता है। दूसरी बार कामधेनु गाय निकली, जिसे ऋषियों को दे दिया गयातीसरी बार उच्चैश्रवा घोड़ा निकला उसे राजा बलि को दे दिया गयाचौथी बार ऐरावत हाथी निकला जिसे इन्द्र को भेंट किया गया। पांचवीं बार कौस्तुभ मणि निकली जिसे भगवान विष्णु को दे दिया गया। छटी बार पारिजात वृक्ष निकला जिसे देवताओं को भेंट कर दिया गयासातवीं बार रम्भा नामक अप्सरा निकली जिसे स्वर्ग की नर्तकी बना दिया गया। आठवीं बार लक्ष्मी जी निकली, जिन्होंने अपनी इच्छा से विष्णु भगवान को वरण कर लियानौवीं बार वारुणी निकली उसे दैत्यों ने अपना लिया। दसवीं बार चन्द्रमा प्राप्त हुआ। उसे आकाश में स्थान दिया गया। ग्याहरवीं बार शंख, बारहवीं बार हरिधनु और तेरहवीं-चौदहवीं बार हाथ में अमृत कुम्भ लिये धन्वन्तरि वैद्य प्रकट हुए। यह वही कुम्भ कलश था जिसका निर्माण बड़े ही कौशल से देवताओं की सम्पूर्ण कलाओं को समेटकर अमृत रखने के लिए किया गया था।


अमृत कुम्भ प्राप्त होते ही मंथन का कार्य रोक दिया गया। कुल चौदह रत्न अब तक प्राप्त हो चुके थे। देव-दानव अमृत पाने के लिए आपस में संघर्ष करने लगेदेवताओं के गुरु वृहस्पति के इशारे पर इन्द्र के पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर भागेदैत्य गुरु शुक्राचार्य ने दानवों को अमृत कलश छीनने हेतु जयंत का पीछा करने का आदेश दिया12 दिनों तक अमृत कुम्भ को प्राप्त करने के लिए देवताओं तथा दानवों में संघर्ष चलता रहाइस अवधि में अमृत कुम्भ को बारह स्थानों में रखा गया, जिसमें से आठ स्थान स्वर्ग में तथा चार स्थान इस भू-मण्डल में स्थित हैं। इन स्थानों में अमृत कुम्भ से अमृत की बूंदें छलक गयी थीं। इन्ही बूंदों को प्राप्त करने के लिए इस भू-मण्डल में स्थित इन चार स्थानों में हर बारह वर्ष के बाद कुम्भ मेला का आयोजन होता है। भू-मण्डल पर स्थित ये चार स्थान हरिद्वार, इलाहाबाद (प्रयाग), नासिक तथा उज्जैन हैं। देवताओं के बारह दिन भू-मण्डल के बारह वर्ष के बराबर माने जाते हैंइसलिए हर बारह वर्ष बाद कुम्भ पर्व की परम्परा उन स्थानों में रही है। हरिद्वार तथा प्रयाग में एक कुम्भ पर्व से दूसरे कुम्भ पर्व के बीच छह वर्ष के बाद अर्द्ध कुम्भ का आयोजन होता है। परन्तु उज्जैन तथा नासिक में अर्द्ध कुम्भ की परम्परा नहीं है। अप्रैल में हरिद्वार, जनवरी में प्रयाग, जुलाई में उज्जैन और अक्टूबर में नासिक का कुम्भ पर्व होता है। इन पर्वो के लिए ज्योतिष शास्त्रीय विधान के अनुसार ग्रह स्थिति निर्धारित है पौराणिक प्रसंग है कि इन्द्र पुत्र जयंत जब अमृत कुम्भ को लेकर भागा तो चन्द्र ने उस कुम्भ को लुढ़कने से बचाया था। सूर्य ने इसे फूटने से और बृहस्पति ने कुम्भ को दैत्यों के अधिकार में जाने से रोका थाशनि ने भी इस कुम्भ की रक्षा का दायित्व निभाया था। अतः इन्हीं ग्रहों की स्थिति को देखकर कुम्भ पर्व की तिथियां निश्चित की जाती है।


स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि जो मनुष्य कुम्भ योग में स्नान करता है वह अमृतत्व (मुक्ति) को प्राप्त करता है और उसे देवगण भी नमस्कार करते हैं। कुम्भ वास्तव में ऐतिहासिक, धार्मिक, दार्शनिक तथा सामाजिक पर्व हैयह एक विशाल सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्य का पोषक पर्व है। इसमें लोग श्रद्धापूर्वक अमृतमय तीर्थों पर एकत्रित होकर संतों एवं विद्वानों के प्रवचनों को सुनकर तथा दर्शन पाकर लाभान्वित होते हैं। यह धर्म तथा सामाजिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार का माध्यम भी है, क्योंकि इन महान पर्वो में शामिल होने वाले लोग पुनः अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर इस परम्परा का प्रचार करते हैं। कुम्भ में धर्म एवं ज्ञान दोनों की समीक्षा एवं चर्चा होती है। कुम्भ का सत् पाकर लाभार्थी अपने जीवन को सही दिशा देकर लोक तथा परलोक दोनों को सुखमय तथा शांतिमय बनाने का प्रयास करते हैं। करोड़ों लोग इस महापर्व का लाभ उठाने पहुंचते हैंकुम्भ पर्व ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त ही प्राचीन एवं असामान्य हिन्दू समागम है जो सांस्कृतिक दृष्टि से आस्थाओं, मान्यताओं और विश्वासों में अत्यन्त ही महत्वपूर्ण प्रतीक है। सामाजिक दृष्टि से छुआछूत, ऊँच-नीच, धनी-निर्धन आदि की भावना से रहित समानता और एकात्मता का अभूतपूर्व पर्व है और राष्ट्रीय दृष्टि से वर्ण और क्षेत्रीय भेद-भावों से ऊपर उठ कर सर्वमत समभाव, सार्वभौमिकता और सार्वदेशिकता का व्यापक प्रदर्शन हैं।


चारों स्थानों पर लगने वाले कुम्भ पर्व का समान महत्व है'कुम्भ' की दृष्टि से हरिद्वार (गंगाद्वार) के कुम्भ में स्नान करने के लिए देश-विदेश के धर्मावलम्बियों में होड़ लगी रहती है। हरिद्वार में गंगा पहाड़ को छोड़कर मैदानी भाग में गम्भीर होकर बहने लगती है।


हरिद्वार के ऊपर हिमालयी भाग को देवभूमि के नाम से जाना जाता हैयहीं से हिमालय में स्थित चार धामों की यात्रा के लिए भी प्रवेश द्वार है। शैव सम्प्रदाय के लोग इस मायानगरी को 'हरद्वार' तथा वैष्णव सम्प्रदाय के लोग इसे 'हरिद्वार' कहकर पुकारते हैं। हरिद्वार में ब्रह्मकुण्ड में स्नान करने का पुण्य लेने के लिए दूर दूर से साधु संत पहुंचते हैं। हरिद्वार कुम्भ पर्व के बारे में वर्ष 1795 में थामस हार्डविक ने 20 से 25 लाख लोगों के शामिल होने का उल्लेख किया हैहार्डविक ने अपनी डायरी में कुम्भ मेले का अद्भुत वर्णन प्रस्तुत किया है। 12 वर्ष बाद दूसरे कुम्भ के अवसर पर कैप्टन एफ० वी० रेपर ने भी अपनी डायरी में शान्ति प्रिय कुम्भ पर्व का उल्लेख किया है। कुम्भ महापर्व का उल्लेख सातवीं सदी में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी किया है। सम्राट हर्षवर्धन कुम्भ पर्व पर गरीबों, विद्वानों, साधुओं तथा असहाय लोगों को अपनी सम्पत्ति का कुछ हिस्सा दान करने पहुँचते थे। एलिंपट नामक लेखक ने हरिद्वार की हरितिमा को देखकर इस भू-भाग को स्विटजरलैंड की संज्ञा दी थी। 5 अप्रैल 1915 को महात्मा गांधी जी कस्तूरबा गांधी के साथ हरिद्वार कुम्भ पर्व पर पहुंचे थे। इस पर्व को देखकर वे अभिभूत हो गए थे।


हरिद्वार के कुम्भ पर्व में भारत के सभी राज्यों से धार्मिक आस्था रखने वाले लोग आते हैं। कई सम्प्रदायों के धर्माचार्य, धर्म प्रचारक भजनोपदेश का कार्य यहां आकर करते हैं। कुछ लोग केवल स्नान, पूजा-पाठ और दान देने के लिए यहां आते हैं। सैलानी लोग जन सामान्य के उमड़ते सागर को देखने के लिए विश्व भर से आते हैंकुम्भ के इस महान पर्व पर भारत ही नहीं अपितु विश्व के विभिन्न भाषा-भाषी विभिन्न पोशाकों और खान-पान की विविधता के लिए लोगों का यहां एक सम्मिलित संसार दिखाई देता है। सरकार की ओर से यहां विशेष व्यवस्था रहती है। इस अवसर पर हरिद्वार के आस-पास का क्षेत्र मेला क्षेत्र घोषित कर दिया जाता है।


हरिद्वार को एक समय विश्व की आध्यात्मिक राजधानी के रूप में जाना जाता था। विराट हिमालय का यह प्रवेश द्वार प्राचीनकाल से ही रहस्यमय मायापुरी के नाम से विख्यात रहा है। गंगा नदी के किनारे बसे इस प्राचीनतम नगर ने मानव के इतिहास को बनते-बिगड़ते देखा है। अनादिकाल से यह मुख्यतीर्थ अपनी प्राकृतिक छवि, मनोहारी गंगा के द्वीपों, आरती के मनमोहक दृश्यों, शिवालिक पर्वतमालाओं, मन्दिरों, प्राकृतिक विरासतों, आश्रमों, मठों एवं अखाड़ों के कारण आकर्षित करता रहा हैकनखल के नाम से पहचाना जाने वाला ब्रह्माद्वार सृष्टि के नियन्ता भगवान शंकर का ससुराल बना। विष्णु के चरण आज भी हरि की पैड़ी पर विद्यमान हैं। ब्रह्मा के द्वार से केदार और विष्णु के द्वार से बदरीनाथ जाने का यह प्राचीन नगर चिरकाल से अपने वैभव को समेटे खड़ा है।


भारत की सप्तपुरियों में से एक मायापुरी (हरिद्वार) के उत्तर भाग को उत्तराखण्ड या हिमालय नाम दिया गया। प्राचीन ऋषि मुनियों ने हरिद्वार के ऊपरी क्षेत्र को स्वर्ग माना है। यही देवभूमि गंगा का मायका है। जहां से यह सलिल जीवन दायिनी नदी हरिद्वार में पहुंचकर असंख्य लोगों को अमृत पान कराती है। हरिद्वार में कई महत्वपूर्ण तीर्थ स्थापित हैं। श्रद्धालु उन स्थलों के दर्शन कर पुण्य प्राप्त करते हैं।


 


स्रोत - उतराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में मानव संसाधन विकास मंत्री भारत सरकार रमेश पोखरियाल निशंक की किताब ''विश्व धरोहर गंगा''