लखनऊ का ध्वनि प्रदूषण और वहां के लोग 


पर 83, रॉयल होटल क्रॉसिंग 84, केकेसी के पास 79, रकाबगंज 80, नेहरू क्रॉसिंग पर 81, सिकंदर बाग क्रॉसिंग पर 80 डीबी ध्वनि की तीव्रता मापी गयी जबकी बोर्ड द्वारा निर्धारित मानक 65 है और मानक संस्थान द्वारा 45 डीबी है।

ध्वनि प्रदूषण नगर के उन्हीं भागों में अधिक है जहाँ वाहनों की संख्या अधिक है। आरटीओ कार्यालय की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1990 में नगर में वाहनों की संख्या 1.70 लाख थी, जो इस सात वर्ष की अवधि में बढ़कर 3.5 लाख हो गये हैं। इसमें से 10 हजार से अधिक संख्या टैम्पो की है।


|| लखनऊ का ध्वनि प्रदूषण और वहां के लोग|| 


राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा राजधानी के प्रमुख मार्गों में दौड़ने वाले वाहनों का आकलन कराया गया। प्रति दो घंटे की औसत वाहन संख्या दर्ज की गयी। फैजाबाद मार्ग जो कि व्यस्ततम मार्ग की श्रेणी में आता है। प्रति दो घंटे में 3130 वाहन गुजरते हैं। इसी प्रकार शाहमीना रोड में 2616 विश्वविद्यालय मार्ग में 4387 से 7994 वाहनों की संख्या प्रति दो घंटे में अनुमानित की गयी।

तालिका - 5.8 वाहनों की संख्या को दर्शाया गया है। महानगर के प्रत्येक मार्ग में वाहनों की संख्या 5000 से अधिक अनुमानित की गयी है। फैजाबाद मार्ग में 3130 शाहमीना रोड में 2616 विश्व विद्यालय मार्ग में 4387 से 7994 प्रति दो घंटे चलने वाले वाहनों की संख्या है, यद्यपि सर्वाधिक चलने वाला मार्ग विश्वविद्यालय मार्ग प्रतीत होता है किंतु ध्वनि स्तर सभी मार्गों के समान रहता है। विश्वविद्यालय मार्ग के दोनों ओर व्यावसायिक प्रतिष्ठान एवं आवास नहीं है।

इस मार्ग में क्रॉसिंग मार्ग भी नहीं है इस लिये वाहनों की गति अधिक रहती है लेकिन हॉर्न आदि की आवृत्ति कम रहती है, इसलिये ध्वनि स्तर औसत अनुपात में 84 डीबी के आस-पास रहता है। इसी प्रकार क्रमांक-4 में वाहनों की संख्या का प्रति दो घंटे का औसत 4936 है, और ध्वनि स्तर 88 डीबी रहता है। उल्लेखनीय है कि इस मार्ग में सभी प्रकार के व्यावसायिक प्रतिष्ठान एवं कार्यालय दोनों ओर स्थित है परिणाम वाहन चालकों के द्वारा हॉर्न का प्रयोग अधिक किया जाता है इसलिये ध्वनि स्तर मानक से काफी आगे रहता है। यही स्थिति हुसैनगंज मार्ग, आलमबाग मार्ग, तुलसीदास मार्ग, कैंट रोड तथा गोविंद सिंह मार्ग की रहती है। इन मार्गों में परिवहन साधनों की भीड़ काफी अधिक रहती है। सुभाष मार्ग, लाटूस रोड नगर के आंतरिक सम्पर्क मार्ग होने से वाहनों का शैलाव अन्य मार्गों से कम रहता है। इसलिये ध्वनि स्तर भी अधिक नहीं है। अर्थात अन्य मार्गों से कम है। इस प्रकार निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि मार्गों में चलने वाले वाहन प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं। उनकी संख्या तथा गति भी इसमें अपना महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। मार्ग किस प्रकार के क्षेत्रों से गुजरता है अर्थात अधिक भीड़ वाले मार्गों से गुजरते समय ध्वनि स्तर का संकट काफी गहरा जाता है। इसी प्रकार क्रमांक एक जिसमें बड़े वाहन चलते हैं जब कि चलने वाले वाहनों की संख्या काफी कम है ध्वनि स्तर ऊँचा रहता है।

सभी महानगरों से कोई न कोई राष्ट्रीय राजमार्ग गुजरता है जिसमें दिन-रात 24 घंटे भारी वाहनों का आवागमन बना रहता है। देश में विगत 4-5 दशकों में संकरी सड़कों की लंबाई में तथा छोटी सड़कों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है किंतु राष्ट्रीय और प्रांतीय मार्गों में आवश्यक लंबाई एवं चौड़ाई नहीं बढ़ायी जा सकी 1950 में राष्ट्रीय राजमार्गों का प्रतिशत 5 था जो 1990 तक 2 प्रतिशत से भी कम रह गया है इसी प्रकार मार्गों की लंबाई में तथा मार्गों की संख्या में बेमेल वृद्धि हुई है। 1950 से 1988 तक सड़कों की लंबाई केवल दोगुनी हुई जबकि वाहनों की संख्या 32 गुनी हो गयी है। इस प्रकार सड़कों पर वाहनों की संख्या बढ़ती है। 1950 में वाहनों की सघनता मात्र 0.8 वाहन प्रति किमी. थी जो 1995 में बढ़कर 390 वाहन प्रति किमी. हो गयी। इस समय अवधि में दो पहिया वाहनों की संख्या में 40 गुनी वृद्धि हो गयी। कारों, ट्रकों का घनत्व चारगुना बढ़ा महानगरों में दो पहिया वाहनों का प्रतिशत 60 से 80 प्रतिशत तक है। 12 महानगरों में वाहनों की संख्या में 40 से 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

तालिका-5.8 में प्रमुख मार्गों की सघनता को देखा जा सकता है। राजधानी में सबसे अधिक विक्रम वाहनों की अधिकता है। यह वाहन ही नगर निवासियों को आवागमन की सुविधा प्रदान करते हैं। वाहनों का घनत्व ध्वनि स्तर को बढ़ावा देता है। इसी प्रकार परिवहन घनत्व किसी चौराहे के ध्वनि स्तर को निर्धारित करता है। जैसा की तालिका-5.8 के क्रमांक-1 को देखने से पता चलता है कि वाहनों का आकार भी ध्वनि स्तर को निर्धारित करता है। अत: घनत्व बढ़ जाने मात्र से ध्वनि स्तर नहीं बढ़ जाता है बल्कि मार्ग कैसे क्षेत्र से निकलता है तथा किस प्रकार के वाहन चलते हैं यह बातें विचारणीय होती हैं।

दिन का ध्वनि स्तर रात की अपेक्षा बहुत अधिक रहता है। यदि रात्रि का ध्वनि स्तर 30 डीबी से अधिक हो तो गहरी निद्रा लेना संभव नहीं हो पाता है। सामान्य रूप से रात 8 बजे से स्वचालित वाहनों की संख्या कम होने लगती है। 10 बजे तक यह संख्या आधी रह जाती है। जैसा कि तालिका-5.7 में दिन और रात के ध्वनि स्तर का दर्शाया गया है। ऐसा ही एक प्रयास उ.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 4 सितंबर से 14 सितंबर 96 के दौरान किया जिसमें में दिन और रात के ध्वनि स्तर का अनुश्रवण किया गया है।

नगर की औद्योगिक इकाइयाँ तथा परिवहन के साधन 12 बजे रात्रि के बाद बंद होने लगते हैं। औद्योगिक क्षेत्रों को छोड़कर जहाँ की कुछ इकाइयों में रात दिन उत्पादन कार्य होता रहता है ध्वनि प्रदूषण का स्तर बना रहता है। जब कि नगरीय क्षेत्र में वाहनों के अतिरिक्त सभी ध्वनि स्रोत बंद हो जाते हैं दौड़ने वाले वाहनों की सघनता भी कम हो जाती है। इस प्रकार ध्वनि स्तर में 25 से 30 डीबी की गिरावट आ जाती है। व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में यह गिरावट अधिक आती है। जबकि दिन रात सेवाएँ उपलब्ध कराने वाले क्षेत्रों में गिरावट का स्तर धीमा रहता है।

तालिका-5.9 में रात और दिन की ध्वनि स्तर सीमा को दर्शाया गया है। क्रमांक एक में दिन का ध्वनि स्तर 78 डीबी रहता है। रात का स्तर 54 डीबी रहता है। ध्वनि स्तर का अंतर 24 डीबी रहता है। यद्यपि यहाँ दिन और रात दोनों स्थितियों के मानक पर ध्यान दिया जाए तो ध्वनि स्तर अधिक रहता है। जहाँ बोर्ड का मानक दिन के लिये 65 और रात के 55 है वहाँ तो रात का ध्वनि स्तर मानक के अनुरूप है किंतु दिन का 13 डीबी अधिक है। इसी को मानक संस्थान से तुलना करें तो दिन का 50 और रात का 40 डीबी है। इससे दिन का 28 डीबी अधिक है और रात का अंतर 14 डीबी है। यदि ध्यान दिया जाए तो यह अंतर रात का कम है। दिन का अधिक है जो ध्वनि स्रोत में आयी कमी को सूचित करता है। क्रमांक दो में नगर का बहुप्रतिष्ठित व्यावसायिक केंद्र है। यहाँ दिन में ध्वनि स्तर मानक से 33 डीबी तक अधिक रहता है। जबकि दिन के ध्वनि स्तर से रात के ध्वनि स्तर में 30 डीबी की गिरावट आती है और मानक से भी 13 डीबी अधिक है। जो दिन के अंतर से ढाई गुना कम हो जाता है। चारबाग जो कि रात दिन खुला रहने वाला तथा रेलवे स्टेशन और बस स्टेशन का केंद्र है। दिन और रात के ध्वनि स्तर में अंतराल कम रहता है दिन में राष्ट्रीय मानक से 30 अधिक है और रात में 22 डीबी अधिक है जो अन्य केंद्रों के अंतराल में सबसे अधिक है। इस प्रकार यह तथ्य सामने आता है कि वाहनों की उपलब्धता ध्वनि स्तर का कारण बनती जा रही है। लगभग यही स्थिति आलमबाग, कपूरथला तथा हसनगंज की रहती है। अमीनाबाद, चौक और मेडिकल कॉलेज जो व्यावसायिक प्रतिष्ठिान है में ध्वनि स्तर रात में अन्य की तुलना में ठीक रहता है। आईटी कॉलेज, आलमबाग, कपूरथला, हसनगंज क्षेत्रों से रात में बड़े वाहनों के चलने के कारण स्थिति में सुधार की दशा बहुत धीमी रहती है और रात में भी मानक ध्वनि से स्तर दोगुने के निकट रहता है।

राजधानी की सड़कों पर पूरे समय स्कूटर, मोटर साइकिलें, कारें व बसें अनियंत्रित ढंग से तेज आवाज वाले हॉर्न प्रयोग कर रहे हैं। तेज आवाज वाले वाहनों के हॉर्न व इंजनों की ध्वनि के कारण नागरिकों के कान, हृदय तंत्रिका तंत्र व उच्च तनाव से मस्तिष्क आदि प्रभावित हो रहे हैं। अमेरिका के सर्जन डॉ. सैमुअल रोजन12 के अनुसार एकाएक उत्पन्न ध्वनि प्रदूषण के कारण हृदय की गति बढ़ जाती है, रक्त की नली सिकुड़ती है आँख में पानी आता है। पेट आमाशय तथा आंत में दर्द होने लगता है। डॉ. रोजेन के अनुसार इस प्रक्रिया से मनुष्य ध्वनि को धीरे-धीरे भूल जाता है। किंतु उसका शरीर ध्वनि को कभी नहीं भूल पाता है। लखनऊ नगर में ध्वनि प्रदूषण के दुष्प्रभाव का अध्ययन 'आईटीआरसी' व 'राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान' वैज्ञानिक स्तर पर कर रहे हैं। समाजसेवी संस्थाओं व्यक्तियों तथा चिकित्सकों द्वारा, सामाजिक, व्यावहारिक व मनो वैज्ञानिक रूप से किया जा रहा है।



स. ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव (Impacts Of Noise Pollution)



मानव के लिये ही नहीं किसी भी जीवधारी के लिये शोर अभिशाप है। पर्यावरण के अन्य प्रदूषणों की तरह यह धीरे-धीरे प्रभावित करता है वैज्ञानिकों द्वारा किये गए प्रेक्षणों से यह स्पष्ट होता है कि 85 डीबी से अधिक की ध्वनि यदि लगातार सुनी जाए तो उससे सिर और कान में दर्द उत्पन्न होता है। कुछ व्यक्तियों में स्थायी या अस्थायी बहरापन आ सकता है। शोर से हमारी कार्यक्षमता में कमी आती है, मानसिक तनाव में वृद्धि होती है और स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है। यदि कोई व्यक्ति 120 डीबी से अधिक ध्वनि क्षेत्र में कुछ दिन रहे तो उसके स्रायु तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे अनिंद्रा, रक्तचाप, स्मृति का कमजोर होना और बहरेपन की शिकायतें उत्पन्न हो जाती है। ऐसे व्यक्ति को दिल का दौरा पड़ सकता है। 130 से 150 डीबी ध्वनि में कुछ ही मिनटों में कानों में झनझनाहट व दर्द उत्पन्न हो जाता है। इससे कान का पर्दा भी फट सकता है स्थिति चिकित्सा से परे हो सकती है पेट के रोग भी हो सकते हैं। यदि ध्वनि की तीव्रता 120 डीबी से अधिक हो तो गर्भवती महिला उसके गर्भस्थ शिशु, छोटे बच्चों व बीमार व्यक्तियों के स्वास्थ्य को अधिक हानि पहुँचती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार यदि शोर 90 डीबी का हो तो मनुष्य के सुनने की शक्ति 1/5 हो जायेगी। प्रोफेसर नोवेल जॉर्न13 (कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय अमेरिका) ने 2 लाख से अधिक नवजात शिशुओं पर परीक्षण करके निष्कर्ष निकाला है कि शांत स्थानों में रहने वाली महिलाओं की तुलना में शोर भरे क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं द्वारा जन्में बच्चों में जन्मजात विकृतियां अधिक होती है। शोर का दुष्प्रभाव छात्रों के अध्ययन में भी पड़ता है। इससे स्मरण शक्ति कमजोर होती है और पढ़ाई में ध्यान कम लगता है। 40 प्रतिशत बच्चे बहरेपन का शिकार हो जाते हैं। इसी प्रकार कुलियों व सब्जी बेचने वालों में, 40 प्रतिशत लोगों के कानों में घंटियां बजने जैसी बीमारी हो जाती है। 180 डीबी से अधिक शोर की दशा में कभी-कभी मृत्यु हो जाती है। इसी कारण 200 डीबी पर मारक अस्त्र विकसित किये गये हैं।

शोर केवल स्वास्थ्य के लिये संकट ही नहीं है। बल्कि घातक और सभी प्रकार की गतिविधियों में प्रभाव डालता है व्यावसायिक बीमारियों में बहरापन शीर्षस्थ स्थान रखता है। विक्टर ग्रुएन (Victor Gruen) नामक नगर नियोजक ने ठीक ही लिखा है – “Noise is a slow agent of death” ''शोर मृत्यु का मंदगति अभिकर्ता है।'' यह एक आदृश्य शत्रु है। ''Noise is an ineisbile enemy'' शनै: शनै: शोर मानव जीवन के लिये अधिक और अधिक घातक बनता जाता है। आस्ट्रेलिया के ध्वनि विशेषज्ञ का कहना है ''शोर मनुष्य को समय से पूर्व बूढ़ा बना देता है।''

विश्व के अनेक देशों में ध्वनि प्रदूषण के परिणाम सामने आये हैं। ब्रिटिश विशेषज्ञों के अनुसार ब्रिटेन में प्रत्येक तीन महिलाओं में एक तथा प्रत्येक चार पुरुषों में एक ध्वनि की अधिकता के कारण नाड़ी तंत्र की परेशानियों से पीड़ित है। जापान के टोक्यों नगर में 1976 में 13,348 शोर सम्बन्धी शिकायतें प्राप्त हुई। ये शिकायतें बच्चों के चिल्लाने, शोर मचाने, रेडियो, टेलीविजन, प्रवाहित जल, शौचालयों के फ्लश, कुत्ते, पार्टियों, निर्माण तथा पति-पत्नी के लड़ाई झगड़े से उत्पन्न शोर से सम्बन्धित हैं। ब्रिटेन में क्वीन एलिजाबेथ प्रथम ने 12 बजे के बाद रात्रि में पत्नियों का पति द्वारा पीटने पर रोक लगाई थी जिससे कि पड़ोसी को व्यवधान उत्पन्न न हो। फ्रांस में एक राष्ट्रीय वेतन भोगी संगठन ''फ्रांस प्रबंध परिषद'' (French management council) का गठन किया गया है। जो उद्योगों में शोर का निराकरण करेंगी तथा शोर से उत्पन्न दुष्प्रभावों को रोकने का प्रयास करेगी।

शोर के दुष्प्रभाव को प्रमुखतया दो वर्गों में रखा गया है -

(1) जीवित प्राणियों पर दुष्प्रभाव
(2) अजीवित प्राणियों पर दुष्प्रभाव

जीवित प्राणियों पर प्रभाव के अंतर्गत मानव पशुओं पौधों तथा छोटे जीवाणुओं पर प्रभाव तथा अजीवित वस्तुओं पर प्रभाव के अंतर्गत पुरानी इमारतों, शीशे की वस्तुओं तथा क्राकरी के नुकसान सम्मिलित हैं। मानव पर शोर के प्रभाव को दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं -

(1) शोर से उत्पन्न संकट : मनुष्य का सदा के लिये बहरा हो जाना, उसका नाड़ी एवं मानसिक दबाव (बात, कफ, पित्त सम्बन्धी दोष) तथा शिल्पकला कृतियों का विनाश सम्मिलित है।

(2) शोर उत्पात : शोर के कारण मनुष्य की स्वाभाविक तीन प्रकार से स्थितियाँ बाधित होती हैं -

. दक्षता (Efficiency) : मनुष्य का स्वास्थ्य एवं शुद्ध चित्त से कार्य करने की मानसिक क्षमता दबाव, कुंठा, कार्य बाधा तथा चिड़चिड़ेपन द्वारा विपरीत रूप से प्रभावित होती है। शोर में अधिक समय तक कार्य करने वाले व्यक्ति की मानसिक क्षमता कम हो जाती है। अत: उसका मस्तिष्क कुंठाग्रस्त हो जाता है। मानव की स्वाभाविक कार्य प्रणाली में शोर बाधा डालता है तथा उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन उत्पन्न करता है।

. आराम (Comfort) : शोर मानव आराम एवं उसकी स्वाभाविक निंद्रा में बाधा उत्पन्न करता है संचार अथवा टेलीफोन या वायरलेस से बातचीत को प्रभावित करता है। शोर मानव की एकान्तिकता को प्रभावित करता है। वास्तुकला कृतियों को तोड़ देता है, उसमें दरारे उत्पन्न कर देता है जो न केवल उसके निर्माताओं को मानसिक क्लेश प्रदान करता है। बल्कि अन्य दर्शनार्थियों को भी मानसिक कष्ट पहुँचाता है। शोर भरे वातावरण में जोर-जोर से बातें करने की आदत बन जाती है।

. आनंद (Enjoyment) : शोर से मानव मन की एकाग्रता समाप्त हो जाती है। उसका ध्यान लगाना कठिन हो जाता है। किसी भी दर्शनीय वस्तु संगीत, काव्य तथा रमणीय प्राकृतिक स्थलों के सौंदर्य का आनंद शोर के प्रभाव से कम हो जाता है। एकाएक तेज आवाज, एकाएक विस्फोट होने से थोड़ी देर के लिये बहरापन उपस्थित हो जाता है।

ध्वनि प्रदूषण हमारे स्वास्थ्य के लिये घातक होता है। यह हमारे कार्यकलापों को तीन प्रकार से प्रभावित करता है-

1. श्रव्य विज्ञान की दृष्टि से सुनने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।
2. जैव विज्ञान की दृष्टि से शरीर की जैविकक्रियाओं को प्रभावित करता है।
3. व्यावहारिक दृष्टि से सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करता है।

अत: यह कहा जा सकता है कि शोर सर्वत्र शारीरिक तथा मानसिक प्रक्रियाओं को बाधित करता है। वस्तुत: ध्वनि प्रदूषण पर्यावरण के विकृत होने का एक रूप है, जो जीवों के लिये जल तथा वायु की तरह घातक हो सकता है। हमारे मस्तिष्क की 12 तंत्रिकाओं में से एक में सुनने की शक्ति होती है जो श्रवण तंत्रिका कहलाती है। इसके दो भाग होते हैं- 1. कर्णावर्त तंत्रिका एवं 2. प्रमाण तंत्रिका। कर्णावर्त तंत्रिका ध्वनि को ग्रहण करके प्रमाण तंत्रिका द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचाती है। तीव्र ध्वनि का प्रभाव कभी-कभी इतना घातक होता है कि श्रवण सामर्थ्य पूर्णतया समाप्त हो सकती है। यदि लगातार तीव्र ध्वनि सुनने का अभ्यास हो जाए तो मध्यम ध्वनि को ग्रहण करने की क्षमता भी समाप्त हो जाती है।

शोर जनसामान्य को कई प्रकार से दुष्प्रभावित करता है। शोर आपसी वार्तालाप में बाधा उपस्थित करता है। तीव्र शोर में व्यक्ति संभाषण के कुछ ही अंश सुन सकता है। पूर्णतया संभाषण नहीं सुन सकता। शोर की विविध दुष्प्रवृत्तियों को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

1. निद्रा में लगातार व्यवधान - निद्रा मानव स्वास्थ्य एवं उसकी क्रियाशीलता के लिये अति आवश्यक है, वह लगातार शोर के प्रभाव से कम होती जाती है। 40 से 70 डीबी का ध्वनि स्तर, 5 से 20 प्रतिशत जगा देने की संभावना उत्पन्न करता है। शोर निद्र तथा उसकी गहराई को भी साथ ही उसकी गुणवत्ता को भी कम कर देता है। इस प्रकार मानव के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर निद्रा भंग हो जाने का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

डॉ. कोलिन हेरिज14 (Dr. Colin Herridge) नामक मनोवैज्ञानिक ने अपने दो वर्ष के अध्ययन में पाया कि लंदन के हीथरों हवाई अड्डे के निकट रहने वाले लोगों की मानसिक अस्पताल में भर्ती होने की प्रवृत्ति शांत क्षेत्र में रहने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक है। दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर किये गये सामाजिक सर्वेक्षण के अनुसार 82 प्रतिशत लोगों की आम राय थी कि हवाई अड्डे पर होने वाले हवाई जहाजों के शोर के कारण सोने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करते हैं। कुछ लोगों (18 प्रतिशत) की यह राय थी कि वह तेज शोर के कारण नींद से जग जाते हैं। इसी क्रम में लखनऊ महानगर के अमौसी हवाई अड्डे के 1 से 2 किमी. दूरी पर स्थित आवासीय कॉलोनियों-चिल्लावां, आजादनगर, तपोवन नगर, बेहसा, शांति नगर के 50 लोगों का साक्षात्कार लिया गया जिसमें की 15 बच्चे 10-15 आयु वर्ग के थे 15 महिलाएँ, 20 पुरुष 20-50 आयु वर्ग के थे। 33 प्रतिशत बच्चों का कहना था कि वह वायुयान के उड़ान के समय सोने से जाग जाते हैं। 33 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि पढ़ने व लिखने से उनका ध्यान हट जाता है। 10 प्रतिशत महिलाओं का कहना था कि छोटे बच्चे जाग जाते हैं और रोने लगते हैं। महिलाओं से अन्य विशेष परेशानियों के बारे में पूछने पर पता चला कि टेलीविजन देखने, रेडियों सुनने, आपस में बात करने, सिलाई, बुनाई करने में उन्हें परेशानी पड़ती है। शारीरिक विकलांगता आदि के बारे में पूछने पर कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की गयी किंतु सिर दर्द की 10 प्रतिशत लोगों ने परेशानियाँ व्यक्त की।

सोते हुए व्यक्ति को जगाने के लिये अधिक तीव्र ध्वनि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अधिक तीव्र शोर निद्रा स्तर में परिवर्तन ला देता है तथा इस अवस्था में स्वप्न आते हैं, शोर से जगा देने पर व्यक्ति थकावट महसूस करता है और उस स्थिति में वह व्यक्ति अधिक देर तक निद्रा का प्रयोग कर अपनी थकान दूर करना चाहता है।

2. श्रवण क्षमता पर प्रभाव - ध्वनि की तीव्रता का प्रभाव मनुष्य की श्रवण क्षमता पर सीधे पड़ता है। कुछ समय के लिये 100 डेसीबल से अधिक की ध्वनि कम सुनाई देने की स्थिति उत्पन्न कर देता है। यदि एक कान में अधिक ध्वनि का आघात पड़ता है तो कम आघात वाले कान की अपेक्षा अधिक प्रभाव पड़ेगा। किसी के बहरेपन पर इस बात का प्रभाव अधिक पड़ता है कि वह उच्च शोर में कितने समय तक कार्य करता है। अधिक समय तक कार्य करने वाले व्यक्ति पर प्रभाव अधिक पड़ेगा।

सामान्यतया 80 डीबी ध्वनि स्तर स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। पाँच दक्षिण भारतीय नगरों चेन्नई कोयंबटूर, मदुराई कोचीन तथा त्रिवेंद्रम में, वस्त्र, निर्माण इकाइयों, स्वचालित वाहनों, तेल, उर्वरक एवं रासायनिक कारखानों में कार्य करने वाले श्रमिकों तथा कर्मचारियों में शोरजन्य श्रवण शक्ति ह्रास15 (Noise Induced Hearing Loss) का अध्ययन किया गया जिसमें यह पाया गया कि प्रत्येक चार में से एक कर्मचारी श्रवण शक्ति के ह्रास का शिकार है। इन नगरों में ट्रैफिक पुलिस मैन, फेरीवाले तथा शोर में रहने वाले अन्य व्यक्तियों में से 10 प्रतिशत श्रवण शक्ति ह्रास से प्रभावित है। इन नगरों में 3 प्रतिशत शोर जन्य श्रवण शक्ति ह्रास से पीड़ित हैं। वर्तमान समय से उद्योगों में कार्य करने वाले श्रमिक एवं कर्मचारी 50 वर्ष की आयु में आंशिक या पूर्ण बहरे हो जाते हैं। ऐसा अनुमान लगाया गया कि अगली पीढ़ी 40 वर्ष की आयु में ही बहरेपन का शिकार हो जायेगी।

माउंट सिनाई स्कूल ऑफ मेडिसन, न्यूयार्क के कर्ण शल्य चिकित्सक डॉ. सैमुएल रोजने16 (Dr. Samual Rosen) ने अफ्रीकी जनजाति के मवान लोगों पर अध्ययन किया तथा पाया कि शांत वातावरण में रहने के कारण 75 वर्ष का बूढ़ा मवान 25 वर्ष के युवक के समान ही सुनता था।

अवांछित शोर मनुष्य की शांति एवं सहनशीलता नष्ट करता है और क्रोध की आवृत्ति बढ़ाता है। उच्च ध्वनि स्तर जो दीर्घकालिक होता है। अल्पकालिक की अपेक्षा अधिक कष्टप्रद होता है। अचानक उत्पन्न उच्च ध्वनियाँ सामान्य मानव व्यवहार में तीखापन उत्पन्न करती है। जब उच्च ध्वनि का संज्ञान जानकारी में नहीं होता तो इस स्थिति में अधिक असह्य पीड़ा होती है और व्यक्ति की कार्यकुशलता प्रभावित होती है। गलती करने की आवृत्ति बढ़ती है तथा उत्पादन कम हो जाता है।

लखनऊ मेडिकल कॉलेज (केजीएमसी) का एक शोध अध्ययन17 यह दर्शाता है कि ध्वनि प्रदूषण से उत्पन्न होने वाली बीमारियों का प्रकोप बीते दशक से दो गुना बढ़ा है। चिकित्सकों के अनुसार लखनऊ निवासी कान व बहरेपन से जुड़ी किसी न किसी बीमारी से त्रस्त हैं। इसी प्रकार बोर्ड की रिपोर्ट में भी इंगित किया गया है कि गत दशक में वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार ध्वनि प्रदूषण के कारण विश्व स्तर पर मृत्यु दर में आकस्मिक वृद्धि हुई है। लखनऊ नगर में बच्चों के बहरेपन की संख्या में लगातार वृद्धि का परिणाम ध्वनिस्तर की वृद्धि है। बोर्ड के सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 1964 में बहरेपन का प्रतिशत 10.69 था, वर्ष 1974 में 11.5 प्रतिशत तथा 1990 में 21.63 प्रतिशत हो गया और 1995 में जो सर्वेक्षण किया गया उसमें पाया गया कि यह प्रतिशत 27.88 हो गया। इस प्रकार वाहनों की संख्या में वृद्धि के साथ बहरेपन का प्रतिशत भी बढ़ता जा रहा है।

अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि शांत श्रेणी की परिधि में आने वाले मेडिकल कॉलेज, बलरामपुर अस्पताल, कैंट, आईटी कॉलेज, हाईकोर्ट, सिविल अस्पताल क्षेत्रों में 45-50 डीबी की मानक सीमा के मुकाबले ध्वनि स्तर 70-80 डीबी मापा गया जो नगरीय ध्वनि स्तर में सुधार के संकेत नहीं दे रहे। मानव की श्रवण शक्ति पर उच्च सघनता वाले शोर का भी प्रभाव पड़ता है जो तालिका- 5.10 से समझा जा सकता है।

उच्च स्तर का शोर विभिन्न प्रकार के प्रभाव उत्पन्न करता है। यदि कोई व्यक्ति कारखाने में उच्च शोर की दशाओं में कार्य करता है तो वह अपने साथ के मित्रों की थोड़ी बात सुन पाता है। रात में उसकी दशा में परिवर्तन हो जाता है तो 40 डीबी के शोर स्तर में 10 प्रतिशत तथा 70 डीबी पर 60 प्रतिशत निद्रा के प्रभाव का ह्रास होता है।18कानपुर महानगर के कुछ क्षेत्रों में जीटी रोड के दोनों ओर आवासीय क्षेत्रों तथा बड़ा चौराहा से हैलेट रोड के दोनो ओर रहने वाले लोगों में 5 प्रतिशत लोग वाहनों के शोर के कारण रात्रि में सो नहीं पाते। लगभग 50 प्रतिशत लोग निद्रा में किसी न किसी स्तर का व्यवधान अनुभव करते हैं।19ऐसी ही स्थिति कानपुर रोड लखनऊ के परित: सर्वेक्षण में सामने आयी 15 प्रतिशत निद्रा में व्यवधान और 20 प्रतिशत प्रात: निद्रा पूरी न होने से सिर दर्द की बात कहते हैं। सुरक्षा एवं स्वास्थ्य अधिनियम के अनुसार श्रमिकों और कर्मचारियों को 90 डीबी के शोर में 8 घंटे प्रतिदिन से अधिक नहीं रहना चाहिए। कार्य के घंटों को छोड़कर ध्वनि स्तर 15 डीबी होना चाहिए। इससे अधिक ध्वनि के स्तर से बचना चाहिए।

लखनऊ महानगर के किसी भी स्थान का ध्वनि स्तर दिन के समय का 65 डीबी से कम नहीं है, दिन के पश्चात रात में ध्वनि स्तर मानक से अधिक रहता है। नादरगंज, अमौसी, चारबाग, नक्खास, अमीनाबाद, तालकटोरा, मेडिकल कॉलेज में मानक से यह दोगुना तक रहता है। 40 डीबी जो निद्रा के लिये आवश्यक रूप से निर्धारित रहता है रात का स्तर भी इससे डेढ़ से दोगुना तक रहता है। बड़े मार्ग जो सदैव भारी वाहनों के दबाव से युक्त रहते हैं में ध्वनि स्तर 80 डीबी तक रहता है। परिणामस्वरूप अनिद्रा, अपच, मानसिक तनाव, कम सुनायी पड़ने जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती है। कानपुर रोड पर स्थित आवासीय मकानों के 20 परिवारों पर किए गए जनसर्वेक्षण से यह बात सामने आयी कि वह इधर वाहनों के शोर के कारण अपने आवास बदलने को मजबूर हो गये हैं।

3. भावनात्मक प्रभाव या मनोवैज्ञानिक प्रभाव - लम्बे समय तक चलने वाले शोर का हमारे मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अनिद्रा शोर का परिणाम है। ध्वनि प्रदूषण से स्मरणशक्ति तथा एकाग्रता पर प्रभाव पड़ता है। एकाएक या अचानक होने वाला शोर हमारे लिये अधिक घातक होता है। शोर का प्रभाव हमारी ज्ञानेंद्रियों को विशेष कर कान को प्रभावित करती है। श्रवणेन्द्री की संवेदना से मनुष्य एवं पशुओं के व्यवहार में परिवर्तन आता है। यद्यपि ध्वनि का प्रभाव आंतरिक होता है। फिर भी इसका हमारे व्यवहार पर भी प्रभाव पड़ता है। इससे खीझ, झुंझलाहट, चिड़चिड़ापन, तुनक मिजाजी एवं थकान उत्पन्न हो जाने से मनुष्य की कार्यक्षमता में ह्रास हो जाता है तथा कार्य करने में गलतियाँ अधिक होती जाती है। दीर्घकाल तक ध्वनि प्रदूषण से व्यक्ति में 'न्यूरोटिक मेंडल डिसौर्डर' हो जाता है। मांसपेशियों में तनाव तथा खिंचाव हो जाता है। तथा स्नायुओं में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है। 100 डीबी से अधिक पर कार्य करने वाले व्यक्तियों के व्यवहार में अचानक परिवर्तन आ जाता है। इसे नगरीय क्षेत्र में पारिवारिक विघटन की दशाओं के रूप में देखा जा सकता है।

4. शरीर पर प्रभाव - शोर मानव एवं पशु-पक्षियों के शारीरिक विकास पर घातक प्रभाव डालता है। शारीरिक एवं दबाव जन्य प्रक्रियाएँ मानव के रक्त के हारमोन्स में बदलाव पैदा कर देती हैं जो अंततोगत्वा शारीरिक विकार उत्पन्न कर देती हैं। एकाएक उत्पन्न होने वाली ध्वनि हमारे रक्त संग्राहकों में संकुचन पैदा कर देती है जिससे आवश्यक रक्त संचार में कमी आती है। शोर स्रोत के बंद हो जाने पर भी कुछ मिनटों तक रक्त संचार सामान्य नहीं हो पाता है। अचानक होने वाली ध्वनि हृदय के स्पन्दन एवं रक्त प्रवाह को प्रभावित करती है। इससे रक्त संचार अचानक बहुत कम हो जाता है। भोजन नलिका एवं आतों में मरोड़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। तेज ध्वनि आँखों की पुतलियों को चौड़ा कर देती है जिससे आँखों के फोकस में परिवर्तन आ जाता है। परिणाम स्वरूप कर्मचारियों को एवं श्रमिकों को बारीक कार्य करने में परेशानी पड़ती है। जीवन शक्ति का ह्रास त्वचा का पीला पड़ जाना ऐच्छिक तथा अनेच्छिक मांस पेशियों का खिंच जाना, गैस निकलने में रूकावट, रक्त संचार नलिकाओं में प्रसार हो जाने से मानसिक नाड़ी तंत्र तथा मांस पेशियों में तनाव और बेचैनी महसूस होने लगती है। दीर्घ कालीन शोर पेट और आंतों की बीमारियाँ उत्पन्न कर देता है। इससे पेट तथा आंतों में घाव उत्पन्न हो जाता है। जो गैस्ट्रिक तरल पदार्थ का प्रवाह कम कर देता है तथा अम्लीयता में परिवर्तन उत्पन्न कर देता है। मस्तिष्क के रक्त संग्राहकों में प्रसार हो जाता है। परिणाम स्वरूप सिर दर्द जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

4. भ्रूण पर प्रभाव - तेज शोर के कारण गर्भस्थ शिशु में जन्मजात दोष उत्पन्न हो जाते हैं अचानक तीव्र ध्वनि के प्रभाव से गर्भपात भी हो सकता है, ध्वनि का प्रभाव मनुष्यों की भाँति पशुओं एवं पक्षियों में भी पड़ता है ध्वनि की तीव्रता से पशुओं की शारीरिक रचना में अनेक दोष आ जाते हैं। मशीनों के शोर के निकट बनाये गये मुर्गी फार्मों में अंडा उत्पादन में आशातीत गिरावट देखी गयी, अनेक पक्षियों में अंडे न देने की बात सामने आयी। गर्भ में पलने वाले शिशु के हृदय की धड़कन शोर के कारण बढ़ जाती है। गर्भवती स्त्री का अधिक शोर में रहना शिशु में जन्मजात बहरेपन का कारण बन जाता है। भ्रूण विशेषज्ञों के अनुसार गर्भ में कान पूर्ण रूप से विकसित होने वाला पहला अंग होता है। फेल्स शोध संस्थान, यलोस्प्रिंग, ओहियो के डॉ. लीस्टर सोण्टैग20 (Dr. Lester Sontag) ने अपने अध्ययन में पाया कि चौंकाने वाली ध्वनि मानव भ्रूण की हृदय गति को तेज कर देती है तथा मांसपेशियाँ सिकुड़ जाती हैं। तीव्र ध्वनि हाइपर टेंशन एवं अल्सर उत्पन्न कर देती है। रूस में कुछ अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ कि शोर में कार्य करने वाले श्रमिकों में हाइपर टेंशन की घटनाएँ दोगुनी तथा आंतो का अल्सर चार गुना पाया गया। वैज्ञानिकों ने भ्रूण विकास पर ध्वनि तीव्रता के पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि ध्वनि प्रदूषण का जहर इसी प्रकार फैलता रहा तो इस शताब्दी के अंत तक श्रवण यंत्रों का प्रयोग करने वालों की संख्या ऐनक का प्रयोग करने वालों से अधिक हो जायेगी, जिनमें सबसे अधिक जन्मजात बहरेपन के दोष से पीड़ित होंगे।

6. ध्वनि का संचार पर प्रभाव - बाहरी ध्वनियाँ सामान्य वार्तालाप तथा टेलीफोन के प्रयोग में भी व्यवधान उत्पन्न करती हैं। इसी प्रकार से रेडियो, टेलीविजन के कार्यक्रमों और अन्य मनो विनोद के कार्यक्रमों में तथा उनके साधनों का भी आनंद नहीं लेने देती है। इस दृष्टि से ये कार्यालयों, स्कूलों तथा ऐसे स्थानों की जहाँ संचार व्यवस्था का महत्त्व अधिक रहता है उसकी कार्य प्रणाली को प्रभावित करती है। संचार प्रणाली के लिये सामान्य ध्वनि सीमा स्तर 55 डीबी होता है। 70 डीबी का ध्वनि स्तर बहुत ही उच्च स्वर होता है तथा मौखिक वार्तालाप में भी गंभीर व्यवधान उत्पन्न होता है।

7. मानसिक एवं भौतिक स्वास्थ्य तथा कार्य क्षमता पर प्रभाव - शोर व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक क्षमता को हानि पहुँचाता है। वैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में अनेक प्रकार से अध्ययन किया है और अनुसंधान एवं परिणामों के आधार पर स्पष्ट किया है कि निरंतर 10 डीबी से ज्यादा शोर आंतरिक कान को क्षति ग्रस्त करता है। कुछ लोगों में तो यह भी देखा जाता है कि दीवार घड़ी की टिक-टिक तथा निकट की कानाफूसी में भी अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। अचानक होने वाला शोर ध्यान केंद्रित करने में अधिक प्रभाव डालता है। इससे लोगों की कार्य क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। प्रयोग द्वारा यह सिद्ध हुआ कि 90 डीबी से अधिक की ध्वनि कार्य क्षमता को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करती है तथा उच्च ध्वनि स्तर में कार्य करने से कार्य में त्रुटियों कि आवृत्ति बढ़ती है।

एक सौ से 2500 विद्यार्थियों वाले विद्यालयों में शोध छात्र ने वहाँ के शिक्षकों शिक्षिकाओं और शिक्षणेत्तर कर्मचारियों से होने वाले शोर की जानकारी प्राप्त की तो पाया गया कि प्रत्येक शिक्षक या अन्य सभी शोर से अपने में कष्ट का अनुभव करते हैं 20 प्रतिशत से अधिक सिर दर्द की शिकायत करते हैं तथा शोर के कारण अधिक नींद आने की बात करते हैं। वहाँ रात्रि निवास करने वाले सभी कर्मचारी अवकाश के दिनों में अपने को अन्य दिनों तथा कार्य दिवस की अपेक्षा अवकाश में आराम का अनुभव करते हैं तथा अपने कार्य को अच्छी तरह कर लेते हैं। केजीएमसी की एक रिपोर्ट में कहा गया कि ध्वनि प्रदूषण के कारण मस्तिष्क की बीमारियाँ नगर में बढ़ गयी है।

8. क्रियात्मक गतिविधियों पर प्रभाव - शोर मनुष्य की क्रियात्मक गतिविधियों को भी प्रभावित करता है। शोर से प्रतिबल प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। मनुष्य के स्वचालित स्नायुतंत्र के माध्यम से अधिक शोर का प्रभाव हृदय एवं पाचन तंत्रों पर पड़ता है। अधिक शोर से व्यक्ति से चिड़चिड़ापन आता है। मानसिक तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है। शरीर के रक्त में कोलेस्ट्रॉल की वृद्धि होती है। शरीर के परिरेखीय संवहन संचरण में भी क्षति पहुँचती है। चिकित्सकों का मत है कि प्रत्येक तीन स्नायु रोगियों में से एक तथा सिरदर्द के पाँच मामलों में से चार के लिये शोर उत्तरदायी है।

मुंबई में एक स्वयंसेवी संस्था ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि 36 प्रतिशत निवासी निरंतर ध्वनि प्रदूषण को सन कर रहे हैं, 76 प्रतिशत लोगों को शिकायत है कि किसी बात पर पूरी तरह ध्यान नहीं केंद्रित कर पाते 69 प्रतिशत अनिद्रा से ग्रसित हैं और 65 प्रतिशत हमेशा बेचैनी और घबराहट महसूस करते हैं।21

9. आचरण पर प्रभाव - ध्वनि प्रदूषण का मनुष्य के आचरण पर पड़ने वाला प्रभाव इतना जटिल एवं बहुमुखी होता है कि इसका सही आकलन करना भी कठिन होता है। हमारे चारों ओर व्याप्त विविध ध्वनि स्रोतों का शोर घरेलू झगड़ों, मानसिक अस्थिरता, कुंठा तथा पागलपन आदि का कारण माना जाता है। व्यक्ति के व्यवहार में कटुता का जन्म शोर के कारण होता है। शोधों से यह तथ्य सामने आया कि अधिक शोर जन्य वातावरण में रहने वाला व्यक्ति बच्चों पर क्रोध अधिक करता है। पत्नी के साथ मार पीट की आवृत्ति अधिक करता है। लगातार शोर में रहने से उसका व्यवहार बदलता है तथा स्वस्थ्य आचरण प्रभावित होता है।

10. कार्यक्षमता पर प्रभाव - ध्वनि प्रदूषण कार्य क्षमता में ह्रास करता है। व्यक्ति थकान का अनुभव करने लगता है। परिणामस्वरूप उत्पादन प्रभावित होता है जो देश एवं समाज के आर्थिक विकास को प्रभावित करता है। शोर जन्य वातावरण में कार्य करने से शारीरिक कार्य तथा मानसिक कार्य दोनों में बाधा पहुँचती है। मानसिक कार्य करने वाले व्यक्तियों में तथा अध्ययन करने वाले छात्रों में भी इसका गहरा प्रभाव पड़ता है जैसा कि मानसिक कार्य करने वाले शिक्षकों पर किये गये अध्ययन से ज्ञात होता है।

11. वन्य-जीवों तथा निर्जीव पदार्थों पर प्रभाव - ध्वनि प्रदूषण विद्युत चुंबकीय एवं ध्वनि तरंगों को विचलित करके इनके कार्य में रूकावट पैदा करता है। शोर का घातक प्रभाव वन्य जीवों पर भी पड़ता है। चिड़ियाघर में पलने वाले वन्य जीव तथा सरकसों में पलने वाले जीवों का स्वास्थ्य लगातार शोर उत्पन्न होने से प्रभावित है। उनके स्वभाव में भी परिवर्तन आता है। हवाई जहाज और तीव्र यातायात की ध्वनि से किसानों की मुर्गियों ने अंडे देना कम कर दिया, 25 प्रतिशत ने अंडे देना ही बंद कर दिया तथा गाय भैसों के दूध में कमी आ गयी।

ध्वनि की तीव्रता का प्रभाव जैविक पदार्थों पर ही नहीं बल्कि निर्जीव पदार्थों पर पड़ता है। सुपर सोनिक ध्वनियाँ तथा बड़े-बड़े विस्फोट पुराने भवनों को हानि पहुँचाते हैं। भवन की संरचना बिगड़ जाती है। शीशे टूट जाते हैं तथा हल्की वस्तुएँ यथा क्राकरी आदि खिसक कर गिर जाती है और टूट जाती हैं। भवनों की छतें चटक जाती हैं। ध्वनि के इसी घातक और विनाशकारी प्रभाव से बचने के लिये बनाए गये नदियों के पुलों पर सेना को मार्च करने पर प्रतिबंध लगाया गया है। तथा रेलवे मार्गों के निकट लोग अपने भवन बनाने से कतराते हैं। प्रयोगों और शोधों से यह तथ्य सामने आया कि रेलमार्गों के किनारे बने हुए भवन दूसरी जगह बनाए गये भवनों की अपेक्षा शीघ्रजीर्ण होते हैं। उनमें दरारें आ जाती है और निवास करने वाले लोगों की निद्रा में विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा स्वास्थ्य प्रभावित होता है। नगर के अमौसी हवाई अड्डे के निकट उच्च ध्वनि समस्या के कारण भूमि का मुल्य 50 प्रतिशत कम है। तथा उनमें उच्च आर्थिक स्तर तथा वैज्ञानिक मानसिकता वाले लोगों के आवास नहीं है।

12. सैनिकों पर प्रभाव - शोर की आवाज से सैनिक भी अछूते नहीं है। सदा कदम मिलाकर चलने वाले सैनिकों को पुल पार करते समय बिना कदम मिलाये चलने दिया जाता है। क्योंकि इसका प्रभाव डाइनामाइट जैसा होता है। जर्मनी के सैनिक अधिकारियों ने दूसरे महायुद्ध में शोर का उपयोग अस्त्र के रूप में किया था तथा शत्रुओं को चारों तरफ से घेर कर इतना शोर किया कि बिना युद्ध किये उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा।

13. उद्योगों का प्रभाव - उद्योगों कल कारखानों के समीप रहने वाले लोग मशीनों से होने वाले लगातार शोर से प्रभावित होते हैं। डॉ. वीरेंद्र कुमार कुमरा ने कानपुर नगर के शोर के दुष्प्रभाव पर शोध कार्य किया है और अपने शोध ग्रंथ में लिखा कि वाहनों के पश्चात शोर का दूसरा प्रमुख स्रोत कारखानों में चलने वाली मशीनें है। इससे औद्योगिक क्षेत्रों में रहने वाले लोग बहुत परेशान है। कपड़े बनाने के शैड में अधिकतम ध्वनि की तीव्रता 105 डीबी होती है। इससे श्रवण क्षमता पर बहुत ही घातक प्रभाव पड़ता है।

लखनऊ नगर के औद्योगिक क्षेत्र अमौसी में ध्वनि स्तर 78 डीबी है। तालकटोरा में 80, नादरगंज में 82, चिनहट में 70 तथा ऐशबाग में 84 डीबी है। ऐशबाग में आरामशीनों में काम करने वाले लोगों पर आईटीआरसी के वैज्ञानिकों ने परिक्षण में पाया कि 10 वर्ष से अधिक काम करने वालों की श्रवणशक्ति अधिक प्रभावित हुई है। यद्यपि इतने अधिक समय तक काम करने वालों की संख्या भी कम है। इन कारखानों में काम करने वालों के पास रक्षा उपकरण नहीं है। कुछ मजदूर अपने मफलरों का उपयोग करते हैं जो अधिक सुरक्षा प्रदान करने वाले नहीं हैं। शोधकर्ता द्वारा अमौसी टेक्सटाइल्स मिल्स में काम करने वाले लोगों के साक्षात्कार में पाया कि 25 में से 20 की तेज आवाज में बात करने की आदत बन चुकी है। इनकी कार्य क्षमता घरेलू स्तर में बहुत प्रभावित हुई है। यादाश्त भी कमजोर हो गयी है। स्वास्थ्य भी प्रभावित हुआ है। जब-जब जिस किसी से यह प्रश्न किया गया कि क्या नौकरी मिलने और आर्थिक सुधार होने से पहले की अपेक्षा आपके स्वास्थ्य में सुधार आया? तो उनमें 75 प्रतिशत का उत्तर था कि स्वास्थ्य में सुधार नहीं गिरावट आयी और शेष लोगों का मत था कोई परिवर्तन नहीं आया है। उल्लेखनीय है कि कारखानों के भीतरी भाग का ध्वनि स्तर 105 डीबी से अधिक तक रहता है। इतनी ध्वनि वेग में बहरेपन की स्थिति से लेकर अन्य गंभीर बीमारियों की स्थिति उत्पन्न होती है। (परिशिष्ट - 43)

14. हृदय पर प्रभाव - तीव्र ध्वनि के प्रभाव से हृदय रोग और उच्च रक्तचाप आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उच्च रक्त चाप से प्रभावित लोगों का व्यक्तिगत जीवन कष्टमय तो होता ही है। ऐसे लोगों से परिवार तथा जिनलोगों से कार्यात्मक या निर्वाहात्मक सम्बन्ध होते हैं। व्यावहारिकता का निर्वाह करने में कठिनाई होती है। लखनऊ निवासियों पर किये गये शोध पर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर ने बताया कि ध्वनि प्रदूषण से मनुष्य का मस्तिष्क और हृदय भी प्रभावित होता है।

15 अन्य प्रभाव - शोर का अन्य विविध क्षेत्रों पर प्रभाव पड़ता है। औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिक डॉ. बिहारी तथा डॉ. श्रीवास्तव ने कागज मिल में कार्यरत कर्मचारियों के शोर द्वारा प्रेरित श्रवण शक्ति के ह्रास का व्यापक अध्ययन किया और परिणाम में पाया कि व्यावसायिक बहरापन कई उद्योगों के श्रमिकों में समान रूप से है। अध्ययन के दौरान पाया गया कि बहुत ही थोड़े समय तक इस शोर युक्त वातावरण में कार्यरत कर्मचारियों की श्रवण शक्ति का ह्रास हो जाता है। जिन कर्मचारियों ने कान में इयर प्लग, इयर मफ्स तथा कनटोप आदि का प्रयोग किया था उनकी श्रवण शक्ति पर अपेक्षाकृत कम प्रभाव पड़ा, इसी अध्ययन में यह भी पाया गया कि कर्मचारियों की उम्र का बहरेपन से कोई सम्बन्ध नहीं रहा, सभी कर्मचारी जो अधिक शोर जन्य वातावरण में थे इससे प्रभावित हुए।

शोर जन्य बहरेपन में शोर के स्रोत से कान की दूरी तथा ध्वनि तरंगो की स्थिति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस मिल में कर्मचारियों की चलित ड्यूटी होने के कारण प्रभावपूर्ण ढंग से नहीं देखा गया। कागज मिल के विभिन्न विभागों में शोरजन्य बहरेपन का विवरण तालिका-11 में प्रस्तुत किया गया है जिसमें देखने से यह बात आती है कि ध्वनि स्तर सबसे निम्न होने पर बहुत कमी आती है किंतु रिफाइन विभाग जहाँ ध्वनि का स्तर 97 डीबी है। वहाँ प्रतिशत 16 से अधिक है। दूसरी तरफ 90 डीबी ध्वनि स्तर में बहरेपन का प्रतिशत 34.8 प्रतिशत है। अत: बहरेपन पर कर्मचारी की स्रोत से कार्य करने की दूरी का प्रभाव परिलक्षित हुआ है। (तालिका - 5.11)

(i) शोर के कायिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रभाव - श्रवण शक्ति का ह्रास शोर शक्ति की अधिकता से होता है। आधुनिक अनुसंधानों में यह पाया गया है कि शोरजन्य बहरापन 1. समग्र शोर का स्तर 2. शोर के आवृत्ति संघटना तथा 3. प्रतिदिन वितरण एवं प्रभाव का समय जैसे कारकों पर निर्भर करता है। शोर का स्तर जैसे बढ़ता है। कम तथा अधिक आवृत्तियों की तरफ बहरापन फैलता रहता है। प्रभावित व्यक्ति को पता नहीं चलता, जब तक की शोर का प्रभाव तीव्रतम न हो जाए।

(ii) शोर के जैव रासायनिक प्रभाव - आधुनिक अनुसंधान सुनने की क्रिया को प्रभावित करने वाली जैव रासायनिक अभिक्रियाओं को स्पष्ट करने में सतत प्रयत्नशील है। ध्वनि प्रभाव और श्रवण शक्ति से सम्बन्धित जैव रासायनिक अनुसंधान वेत्ता डॉ. ड्रेसचर22 के अनुसार तीव्र ध्वनि हमारे शरीर के मूल ऊर्जा उत्पादन संस्थान में परिवर्तन लाती है। इससे हमारा पाचन तंत्र प्रभावित होता है। लगातार ध्वनि के प्रभाव से कर्णावर्त का ऑक्सीजन तनाव कम हो जाता है और परिलसिका का ग्लुकोज स्तर बढ़ जाता है।

ध्वनि प्रदूषण के कारण हमारे शरीर में अनेक जैव रासायनिक तथा शरीर क्रिया सम्बन्धी परिवर्तन हो जाते हैं जिसके परिणाम स्वरूप रक्त वाहिनियों का संकुचन, आहार नाल की विकृतियाँ ऐच्छिक, अनैच्छिक मांसपेशियों में तनाव इत्यादि प्रभाव परिलक्षित होते हैं। हृदय की गति धीमी हो जाती है। गुर्दे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अध्ययन से पता चला कि कोलेस्ट्रॉल बढ़ जाता है जिस से रक्त शिराओं में हमेशा के लिये तनाव उत्पन्न हो जाता है और दिल का दौरा पड़ने की आशंका पैदा हो जाती है। अधिक शोर के कारण नेत्र गोलकों में तनाव उत्पन्न हो जाता है। आँखे बारीक काम करने में केंद्रित नहीं हो पाती है।

(iii) शोर का समुदाय पर प्रभाव - जनसंख्या संसार में बड़ी तेजी से बढ़ रही है। शोर का एक मनोविज्ञान है इसको समझना अति आवश्यक है। जैसे कि एक सामान्य गृहणी को घर के सुख-सुविधा के विविध साधनों को उपयोग करते समय शोरयुक्त साधन अच्छे लगते हैं अथवा बिना शोर वाले। इसी प्रकार अत्याधिक ध्वनि तीव्रता वाले साधन, मानव रहित तकनीकें जनित अथवा वातानुकूलित यंत्र आदि ने ध्वनि प्रदूषण का क्षेत्र बढ़ाया है। यदि विगत 10 वर्षों में यातायात के साधनों की वृद्धि की दिशा में ध्यान दें तो स्वत: विदित होता है कि यातायात के साधन यद्यपि सुख सुविधापूर्ण हैं। किंतु प्रतिफल के रूप में कष्टदायक है इस प्रकार ध्वनि प्रदूषण में कमी लाने के लिये सुख साधनों में कमी लानी होगी अन्यथा यह एक जटिल समस्या के रूप में बदल जायेगी।

(iv) अवध्वनि कंपन तथा उसका प्रभाव (Infrasound Vibration) - ध्वनि एक विशिष्ट प्रकार के कंपन का ही रूप है, जो हमारी श्रवण- चेतना का उद्दीपन करती है सामान्यतया मनुष्य के कान '0' डेसीबल से नीचे की ध्वनि को नहीं सुन सकते आवृत्ति की दूष्टि से 16 हर्ट्ज से नीचे की ध्वनि कंपन को अवध्वनि कंपन तथा 20,000 हर्ट्ज से ऊपर की ध्वनि को पराश्रव्य कंपन कहते हैं।

हमारे कान कम आवृत्ति के कंपनों के प्रति असंवेदनशील होते हैं। सभी प्रकार के व्याप्त कंपनों को न सुनने के कारण हमें उनका बोध भी नहीं होता। प्राय: भू-भौतिकी प्रक्रियाएँ, यथा- मेघ-गर्जनाएँ, तेज हवाएँ और समुद्री तरंगें अथवा इंफ्रा ध्वनि के स्रोत हैं, प्राकृतिक प्रतिक्रियाएँ जैसे भूकम्प तथा ज्वालामुखी विस्फोट सभी इसी श्रेणी में आते हैं। मोटरगाड़ी इंफ्रा ध्वनि का एक सर्वप्रमुख और सामान्य स्रोत है, जो अप्रिय ध्वनि संवेदनों के लिये उत्तरदायी है। ऐसे संवेदनों का अनुश्रवण प्राय: तब तक अधिक होता है। जब तक तेज गति वाली गाड़ी में खिड़कियाँ खुली रहती हैं। वृहद औद्योगिक मशीनरी, वातानुकूलित संयंत्र एवं पंखे आदि भी इंफ्रा ध्वनि उत्पन्न करते हैं। मानव शरीर पर कंपन के प्रभाव का अध्ययन डॉ. गोल्डमैन तथा वोन ग्रीक ने किया है। उन्होंने बताया कि इससे थकान तथा संरचनात्मक हानि होती है इस प्रकार के कंपित वातावरण में मिचली तथा क्रोध उत्पन्न होता है। और व्‍यक्ति शारीरिक तथा मानसिक रूप से अपने को असक्षम महसूस करता है।

(v) संगीत एवं मंत्र ध्वनि के मनोवैज्ञानिक प्रभाव - मानव जन्म से लेकर मृत्यु तक संगीत से सम्बन्ध रखता है। संगीत की सृष्टि नाद से होती है। जिस प्रकार मिट्टी या पत्थर से मूर्ति, रंग से चित्र और र्इंट पत्थरों से महल तैयार होते हैं, उसी प्रकार नाद से संगीत प्रस्फुटित होता है। संगीत स्वरों से चिकित्सा, मनोरंजन, तनमयता, नव उत्साह, सृजन क्षमता, मानसिक चेतना में वृद्धि वैधिक परिवर्तन आदि महत्त्वपूर्ण परिवर्तन चमत्कार पूर्ण ढंग से हो जाते हैं संगीत का प्रयोग पशु-पक्षियों आदि में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस संदर्भ में संगीत जीवन दाता है। जब यह कष्ट दायक तीव्र स्वर में प्रस्तुत होता है तो इसे प्रदूषण की स्थिति में रखा जा सकता है।

मंत्र की विलक्षण शक्ति का अध्ययन करने वाले शोध प्रेमी वैज्ञानिक मंत्र विद्या पर अटूट श्रद्धा रखते हैं उनका मानना है कि मंत्र ध्वनियाँ होती हैं तथा ध्वनि समूहों का नाम ही मंत्र है। भावना विशेष में भावित मंत्र ध्वनि की सूक्ष्म झनकार प्रति सेकेंड लगभग 10 लाख चक्रों की गति से ध्वनि तरंगे नि:सृत करती हैं, जिससे उनमें उष्मा उत्पन्न होती है। कोश-कोश की क्रियाशीलता, रोग निरोधिनी शक्ति की चैतन्यता को उस उष्मा से विशेष गति मिलती है जिसका परिणाम शक्ति प्रद और अरोग्यकारी होता है।

अमेरिका के डॉ. हर्चिसन ने विविध प्रकार की संगीत ध्वनियों की सहायता से अनेक असाध्य रोगों की सफल चिकित्सा की है। उनका मानना है कि पराध्वनि उपकरणों के बिना भी भावना तथा शक्ति वाली ध्वनि तरंगों के संप्रेषण से अद्भुत कार्य किये जा सकते हैं।

डॉ. एलएन फोल्लर का मानना है कि भारतीय संस्कृति और साहित्य में रूचि रखने वाले समस्त पाश्चात्यों का ध्यान 'ऊँ' पवित्र शब्द ने अपनी ओर आकर्षित किया है। इस शब्द के उच्चारण से जो कंपन होते हैं वे इतने प्रभावशाली हैं कि असाध्य रोगों से भी मुक्ति मिल जाती है और सुप्त शक्तियाँ जागृत हो उठती हैं। ओंकार के उच्चारण से ऐसी स्वर लहरी उत्पन्न होती हैं कि क्षण मात्रा में सारे ब्रह्मांड में फैल जाती हैं और सृष्टि के प्रत्येक अणु से अपना सम्बन्ध जोड़ लेती है। अत: नि:संदेह ओंकार की महत्ता को आधुनिक ध्वनि वेत्ताओं ने युक्ति संगत माना है। सभी प्रकार मंत्र ध्वनियों का वैज्ञानिक आधार इस प्रकार सिद्ध हो जाता है।

अनुसंधानों द्वारा निकाले गए ध्वनि प्रदूषण के परिणाम




  1. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा यह पता लगाया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरों में लोग लगभग डेढ़ गुना अधिक ऊँचा सुनते हैं, जिसका कारण ध्वनि प्रदूषण माना जा सकता है।

    2. कोलकाता के साहा इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिजिक्स तथा कोलकाता मेडिकल कॉलेज द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार कोलकाता महानगर में प्रति एक हजार नागरिकों में से 4 नागरिकों को यातायात द्वारा उत्पन्न ध्वनि-प्रदूषण के कारण बहरेपन की बीमारी है।

    3. पोस्टग्रेजुएट स्कूल ऑफ मेडिकल साइंस द्वारा किए गये सर्वेक्षण से यह स्पष्ट होता है कि चेन्नई, कोयंबटूर तथा त्रिवेंद्रम नगरों के 25 प्रतिशत औद्योगिक श्रमिक बहरेपन से पीड़ित है।

    4. राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला ने अध्ययन करके पता लगाया है कि दीपावली की रात्रि में 85 से 100 डेसीबल शोर पहुँच जाता है जो विस्फोटकों से दूरी पर निर्भर करता है।

    5. कुछ अस्पतालों में 80 डीबी तक शोर पाया जाता है। जबकि अस्पतालों के लिये शोर का स्तर 40 से 50 तक निर्धारित है।

    6. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार यदि शोर 90 डेसीबल का हो तो मनुष्य की सुनने की शक्ति 1/5 तक कम हो जाती है।




ध्वनि प्रदूषण और वैज्ञानिकों की प्रतिक्रियाएँ



मानव शरीर पर ध्वनि प्रदूषण से होने वाले कुप्रभाव के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों के अध्ययन हमारे लिये महत्त्वपूर्ण है इसलिये इसका विवेचन इस अध्ययन में किया गया है -

1. नोबेल पुरस्कार विजेता जर्मनी के जीवाणु वैज्ञानिक रॉबर्ट कोच ने 1910 में कहा कि ''एक दिन ऐसा आयेगा जब शोर इंसान के स्वास्थ्य का सबसे बड़ा शत्रु होगा और बढ़ते हुए शोर के विरूद्ध वैसा ही संघर्ष छेड़ना पड़ेगा जैसा चेचक, प्लेग जैसी बीमारियों के लिये छेड़ना पड़ा है।''

2. डॉ. नुडसन ने सम्पूर्ण विश्व को चेतावनी भरे शब्दों में आगाह किया है कि शोर धुंध की तरह मनुष्य को धीरे-धीरे मृत्यु की तरफ धकेलता है और इसके बढ़ने की यही गति रही तो मानव जाति के लिये यह संहारक साबित हो सकता है।

3. डॉ. ब्रिप्रिश के अनुसार, ध्वनि प्रदूषण के रूप में शोर आदमी को असमय ही वृद्ध बना देता है प्राय: रात्रि क्लबों में जाने वाले व्यक्तियों की श्रवण-शक्ति क्षीण हो जाती है। ऐसे क्षेत्रों में विद्यार्थियों में चिड़चिड़ापन, सिर दर्द, अध्ययन विमुखता तथा स्मृति क्षीणता की आम शिकायतें होती है।

4. श्रवण विज्ञानी रॉबर्ट ब्राउन ने लंदन के हवाई अड्डे के सम्बन्ध में ध्वनि प्रदूषण का अध्ययन करके पाया कि हवाई अड्डे के आस-पास रहने वालों में मानसिक बीमारियों के रोगी अन्य क्षेत्रों के मुकाबले में ज्यादा पाये गये। मानव निर्मित सुपरसोनिक विमानों की ध्वनि लगभग 100 से 150 डीबी तक होती है। जो निश्चित रूप से हमारे लिये हानिकारक है। एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक के अनुसार पेरिस में मानसिक तनाव के 70 प्रतिशत मामलों का कारण हवाई अड्डों का शोर था।

5. संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार ध्वनि शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही दृष्टियों से व्यक्ति को प्रभावित करती है, रक्तचाप तथा हृदयगति को बढ़ाती है जिसके कारण तनाव, आलस्य, डर आदि पैदा होने लगता है।

6. मनोविज्ञान वेत्ता एवं श्रवण विज्ञानी डॉ. सूर्यकांत मिश्र ने औद्योगिक क्षेत्रों, रेलवे कॉलोनियों एवं शोर-शराबे वाले क्षेत्रों के पाँच से दस वर्ष की आयु समूह के छात्रों का विविध प्रकार से निरीक्षण किया एवं यह निष्कर्ष निकाला कि ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर रिकॉर्डिंग के शोर तथा रेलगाड़ी की गड़गड़ाहट के कारण 60 प्रतिशत छात्र अपनी कक्षा में ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं।

7. मुंबई के वैज्ञानिक डॉ. वाईटीओकेका के अनुसार शोर अत्यधिक शारीरिक मानसिक और अव्यावहारिक गड़बड़ी पैदा करता है। 88 डीबी से अधिक का शोर व्यक्ति को बहरा बना देता है। उन्होंने ध्वनि प्रदूषण के कारण मानसिक अस्थिरता तथा उच्च रक्तचाप जैसे रोग भी कई रोगियों में देखे गये हैं।

8. अखिल भारतीय चिकित्सा अनुसंधान संस्थान और केंद्र सरकार के पर्यावरण विभाग ने हाल ही में ध्वनि प्रदूषण पर सर्वेक्षण कार्य किया है। दिल्लीवासियों से जब ध्वनि प्रदूषण के बारे में पूछा गया तो 87 प्रतिशत व्यक्तियों ने उत्तर दिया कि शोर ने उन्हें दु:खी कर रखा है। 90 प्रतिशत लोग वाहनों की गड़गड़ाहट से परेशान थे। शोर के ही सम्बन्ध में एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार गाँवों की अपेक्षा दिल्ली में आवाजों से बहरेपन के मामले अधिक पाये गये।

9. लखनऊ महानगर के कुछ महत्त्वपूर्ण चौराहों पर भारतीय विष विज्ञान अनुसंधान संस्थान द्वारा किये गये सर्वेक्षण के अनुसार मोची एवं फल विक्रेताओं को तेज आवाज के कारण ठीक तरह से सुनने में सबसे अधिक कठिनाई होती है। इसी वर्ग के 40 प्रतिशत लोगों में घंटिया बजने जैसी बीमारियाँ पायी गयी।

10. विकसित देशों में बहरापन बढ़ने के कारणों में शोर को माना गया है और इसका प्रभाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। 'डगलस' स्थित अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन की वाक शाखा के निदेशक डॉ. ग्लोरिंग का मानना है कि सम्पूर्ण पृथ्वी शोर से ग्रसित है और इसका प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है।

11. न्यूयार्क के माउंट सिनाई अस्पताल के डॉ. सेमुअल रोजन के अनुसार शोर मनुष्य में मानसिक तनाव उत्पन्न करता है जिसके फलस्वरूप मनुष्य उत्तेजना, रक्तचाप और हृदयरोग से ग्रसित हो जाता है।

12. कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डॉ. नोबेल जोन्स ने सवा लाख से भी अधिक नवजात शिशुओं पर परीक्षण करने के पश्चात पाया कि लगातार शोर में जीवन व्यतीत करने वाली महिलाओं के शिशुओं में विकृतियां अधिक होती है।

13. जर्मन वैज्ञानिक डॉ. जॉनसन ने शोर व मानव शरीर पर उसका प्रभाव विषय को लेकर एक लंबे समय तक अनुसंधान के पश्चात बताया कि प्रतिदिन के शोर के कारण मनुष्य के शरीर की शिराएँ संकुचित हो जाती है। साथ ही सूक्ष्म शिराओं में रक्त का परिवहन मंद पड़ जाता है जो शरीर पर घातक प्रभाव छोड़ता है।

14. सूडान देश की 'मबान' जनजाति पर अध्ययन किया गया यह जनजाति अत्यंत शांत वातावरण में रहती है। ये लोग किसी भी प्रकार की रक्तचाप या हृदय की बीमारी से ग्रसित नहीं होते हैं जबसे यह अधिक शोर वाले स्थानों में निवास करने लगे तब से इनमें कई रोग उत्पन्न होने लगे। यह अध्ययन इस बात को बल प्रदान करता है कि अधिक शोर मनुष्य में कई बीमारियाँ उत्पन्न करता है।

15. विश्व विख्यात मनोचिकित्सक एडवर्ड सी ल्यूज का मानना है कि निरंतर तीव्र ध्वनि से कई प्रकार की मानसिक बीमारियों की शिकायत हो जाती है।

16. स्टेनफोर्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के डॉ. जिरोम लुकास ने निद्रा एवं शोर के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन किया है। उनके अनुसार शोर के मध्य रहने वाले कर्मचारी प्रात: उठने में थकान का अनुभव करते हैं। उनके अनुसार थकान का मुख्य कारण शोर के मध्य निद्रा लेने का प्रयास करना है।

17. स्वच्छ पर्यावरण के लिये गठित समिति द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार मुंबई के 37 प्रतिशत लोग निरंतर शोर प्रदूषण को झेल रहे हैं इनमें से 76 प्रतिशत की यह शिकायत थी, कि वह किसी बात पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते हैं आज 69 प्रतिशत नागरिकों को पूरी तरह से नींद नहीं आ पाती तथा शेष बेचैनी का शिकार रहते हैं।

18. एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक कांस्टेंटीन सट्रेमेंटोव ने कार्यक्षमता पर ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव देखने के लिये कुछ प्रयोग किये। उन्होंने पाया कि जब शोर का स्तर 75 से 95 डेसीबल तक बढ़ाया गया तो श्रमिकों की कार्यक्षमता 25 प्रतिशत कम हो गई तथा उनकी त्रुटियाँ चार गुनी तक बढ़ गयी। परंतु जब शोर का स्तर 10-15 डीबी कम किया गया तो कार्यक्षमता 49 से 59 प्रतिशत तक बढ़ गयी।

इस प्रकार विभिन्न वैज्ञानिकों और अनुसंधान शालाओं का अध्ययन इस निष्कर्ष को दर्शातें हैं कि शोर धीमा हो या तेज अगर वह लगातार हो तो वह कहीं अधिक घातक और विकृतियों को जन्म देने वाला होता है। अत: शोर जैसा अदृश्य प्रदूषण मानव जीवन के लिये घातक बन गया है जिस पर नियंत्रण पाने की आवश्यकता है।

द. ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण के उपाय



ध्वनि प्रदूषण अंततोगत्वा हमारे लिये हानिकारक है। हमारे शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य दोनों के लिये हानि पहुँचाता है। जीव जंतुओं के स्वास्थ्य और स्वभाव में भी परिवर्तन करता रहता है। इसकी हानि को देखते हुए इसके नियंत्रण की दिशा में विचार जाता है। नियंत्रण पर विचार करने पर उसके स्रोतों की ओर ध्यान आकर्षित होता है। किंतु क्या भारत जैसे विकासशील देश के लिये उचित होगा कि औद्योगिक विकास रोक दिया जाए? औद्योगिक विकास से देश की आर्थिक हानि होगी अत: औद्योगिक विकास को अवश्य जारी रखना होगा और शोर पर उन्नत तकनीक को अपनाकर नियंत्रण भी करना होगा जो विकास में बाधक न हो बल्कि साधक हो।

सुरक्षित ध्वनि नियंत्रण की दिशा में प्रथम कार्य होगा शोर समस्या के घटकों की जानकारी तथा घटकों पर तकनीक और वैज्ञानिक कौशल का प्रयोग करते हुए नियंत्रण करना। ध्वनि प्रदूषण के तीन घटक हैं -

1. शोर के स्रोत 2. शोर का पथ 3. तथा ग्राही अंग

शोर के इन तीन घटकों में से किसी भी एक घटक में तकनीक कौशल के प्रयोग कर शोर प्रदूषण नियंत्रित किया जा सकता है। इसमें से तीनों को ध्यान में रखकर आवश्यकतानुसार कदम उठाया जा सकता है, जो इस दिशा में सार्थक सिद्ध होगा। विगत कुछ वर्षों से शोर के प्रभाव हानियों की दिशा में काफी अध्ययन किये गये तथा शोर नियंत्रण की दिशा में भी काफी जानकारी बढ़ी है और जन सामान्य में जानकारी भी आयी है। यद्यपि ध्वनि नियंत्रण वैज्ञानिकों के लिये महत्त्वपूर्ण समस्या है, फिर भी आधुनिक अनुसंधानों के परिणामों के अनुसार तीन विधियों में से किसी के भी प्रयोग से ध्वनि प्रदूषण रोका जा सकता है -

1. स्रोत की शोर क्षमता कम करके।
2. ध्वनि के मार्ग में रूकावट उत्पन्न करके।
3. प्रभाव में आने वाले को सुरक्षा प्रदान करके।
1. ध्वनि स्रोत पर नियंत्रण



यह शोर नियंत्रण का सीधा तथा सरल उपाय है। शोर को उसके उद्गम स्थल पर रोकना एक उत्तम उपाय है। यद्यपि शोर के स्रोतों पर नियंत्रण करना व्यावहारिक नहीं है। इसे कानून द्वारा तथा जन सामान्य में जागरूकता पैदा करके इस दिशा में काफी सार्थक प्रयास किये जा सकते हैं। सभी प्रकार के ध्वनि स्रोतों पर नियंत्रण करना संभव भी नहीं है। ध्वनि स्रोत पर तभी नियंत्रण किया जा सकता है जब उसके स्रोत की तकनीकी जानकारी हो। इंजन की संरचना और संयंत्र की संरचना का कुशल ज्ञान तथा उस प्रक्रिया का ज्ञान जिसके द्वारा शोर उत्पन्न होता है एवं उपलब्ध शक्तियों की प्रचुरता तथा अनेकानेक ध्वनि सम्बन्धी घटकों की प्रतिक्रिया को घटाकर शोर प्रदूषण कम किया जा सकता है। बढ़ते हुए ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिये आज अनेक प्रकार के साइलेंसर विकसित किये गये हैं। उद्योगों की मशीनों के साथ ध्वनि शोषक पदार्थों का प्रयोग किया जाना चाहिए। पुरानी तथा अकुशल तकनीक के इंजनों को प्रचलन से रोका जाए कानून द्वारा ऐसे वाहनों पर नियंत्रण भी लगाया जा सकता है। शोर उपकरण के जिस भाग से उत्पन्न हो रहा हो उसकी डिजाइन इस प्रकार बनायी जाए कि शोर उत्पन्न होने वाले इंजन को शोर नियंत्रक कवच से ढका जा सके जिससे शोर कम होगा। शोर कम करने के लिये अनेक प्रकार के पदार्थ भी उपयोग में लाये जा सकते हैं जैसे शंख के सांचे, शीशा, ईटें, प्लास्टर आदि ये पदार्थ ध्वनि संचरण तथा उसके वेग को कम कर देते हैं। इस विधि को तालिका- 5.12 द्वारा ठीक समझा जा सकता है।

राख के ब्लॉकों का उपयोग करके 25 से 55 डीबी की ध्वनि कम की जा सकती है। इसका उपयोग स्रोत में किया जा सकता है।

(i) कक्ष में शोर नियंत्रण - जिन कमरों में ध्वनि उत्पादन की स्थिति हो उनकी संरचना में परिवर्तन करके ध्वनि को नियंत्रित किया जा सकता है। रेडियो स्टेशन के स्टूडियो अनुभाग को इस प्रकार निर्मित किया जाता है कि कमरे की आवाज बाहर खड़े व्यक्ति को सुनाई न दे। कमरे के निर्माण में ऐसी सामग्री का उपयोग किया जाता है कि उत्पन्न शोर उसकी दीवारों में अवशोषित हो जाए। इसी प्रकार की व्यवस्था सभी प्रकार के औद्योगिक प्रतिष्ठानों में उपलब्ध होनी चाहिए विशेषकर ऐसे प्रतिष्ठानों में जहाँ पर पीटने, काटने, बिल्डिंग मोल्डिंग का कार्य किया जाता है। इस प्रकार शोर स्रोत से उत्पन्न ध्वनि को नियंत्रित किया जा सकता है।

(ii) ध्वनि स्तब्धक का प्रयोग - वैल्डिंग में होने वाले शोर को रिवेटिंग का प्रभाव बढ़ाकर कम किया जा सकता है। इसी प्रकार धातुओं पर होने वाला हाईस्पीड पालिशिंग का शोर रासायनिक सफाई द्वारा कम किया जा सकता है। तेज शोर करने वाली मशीनों में स्तब्धक (साइलेंसर) का प्रयोग किया जाना चाहिए। नगर के मार्गों में दौड़ने वाले पुराने वाहनों में यह समस्या देखने को मिलती है जिनमें इस सुधार को लागू कराया जा सकता है।

(iii) मशीनों का रख रखाव - मशीनों की सफाई करके तथा उनमें ग्रीसिंग एवं तेल का प्रयोग करके उनकी घिसावट कम की जा सकती है। घिसावट से होने वाले शोर को कम किया जा सकता है। खराब यंत्रों को बदल कर एवं उनके पुर्जों में सुधार करके भी अनावश्यक शोर से बचा जा सकता है। अधिकतर यंत्रों के पेंचों का कसाव ठीक नहीं होता परिणाम स्वरूप अनावश्यक शोर उत्पन्न होता रहता है। चलने वाले वाहनों तथा इंजनों में प्राय: इस कमी से 3 से चार गुना तक शोर अधिक होता है। इसे थोड़ी सी सावधानी से समाप्त किया जा सकता है। पुराने इंजनों में ही यह समस्या बढ़ती है अत: एक निश्चित समय सीमा के बाद उनसे उत्पादन काम न लिया जाए या उचित तकनीक परिवर्तन के बाद उससे काम लिया जाए।

(iv) ध्वनि स्रोत की स्थिति - शोर उत्पन्न करने वाले स्रोतों को आवासीय स्थानों से दूर रखा जाए। उत्पादन करने वाली औद्योगिक इकाइयों को आवासों से दूर स्थापित किया जाए। इससे अवांक्षित शोर से लोगों को बचाया जा सकेगा। शोर के स्तर के आधार पर भी उनकी स्थिति को महत्त्व दिया जा सकता है। विद्यालयों चिकित्सालयों एवं अनुसंधान शालाओं को शोर से दूर किये जाने की आवश्यकता रहती है। रेलवे स्टेशन की स्थिति भी आवासीय कॉलोनियों से दूर रखना चाहिए। बाजारों को भी आवासों से दूर रखना चाहिए।

(v) हवाई अड्डों की स्थिति - हवाई पट्टी में ध्वनि स्रोत की उच्चतम सीमा रहती है। उड़ने वाले जेट विमान की ध्वनि सीमा 140 डीबी के आस-पास रहती है। जिससे व्यक्ति अत्यंत पीड़ा का अनुभव करता है। इस प्रकार हवाई अड्डों को लगभग आवासीय क्षेत्र से 10 किमी दूर रखना चाहिए तथा वायुयानों को विशेष ढालों पर उतारा तथा चढ़ाया जाना चाहिए। हरे वृक्षों की बाड़ लगानी चाहिए क्योंकि हवाई पट्टी के आस-पास वृक्षों की कटाई कर दी जाती है। इसलिये जेट विमानों की तीव्र ध्वनि अधिक वेग से अधिक दूर तक अपना प्रभाव डालती है। वृक्षों की रोपाई से कुछ सीमा तक नियंत्रण किया जा सकता है। लखनऊ नगर में दो हवाई पट्टियाँ हैं। जिनमें अमौसी हवाई अड्डा यद्यपि नगर से 10 किमी दूर है किंतु आवासीय बस्तियों से घिरता जा रहा है इसके लिये प्रथमत: बस्तियों के विकसित होने की नीति का निर्धारण करना आवश्यक है। द्वितीयतः यदि वृक्ष लगाना दुर्घटना का कारण है तो ऊँची घासों, कुश, कांस आदि की बाड़ भी ध्वनि को अवशोषित करती है। दूसरी ओर ऊँची ध्वनि स्तब्धक दीवारों का निर्माण कराकर इस समस्या को कम किया जा सकता है।

(vi) वृक्षा रोपण - वैज्ञानिकों के शोधों के अनुसार अधिक ऊँचाई वाले वृक्ष ताड़, नारियल, इमली, आम इत्यादि के घने वृक्ष ध्वनि को अवशोषित करते हैं। इसलिये रेल की पटरियों के किनारे और सड़कों के दोनों ओर, कारखानों के अहाते तथा घरों के परितः वृक्ष की सघन बाड़ खड़ी करने की आवश्यकता है। वृक्षों के रोपने से लगभग 10 प्रतिशत डेसीबल ध्वनि कम किया जा सकता है। घरों के बाहर मेंहदी या रबड़ के प्लांट लगाने से घरों के वातावरण व ध्वनि प्रदूषण को कम किया जा सकता है। नगर के चारबाग, ऐशबाग, मानक नगर, डालीगंज, बादशाह नगर, सिटी स्टेशन आदि में वृक्षारोपण के लिये पर्याप्त भूमि है जिसमें इस व्यवस्था को कार्यान्वित किया जा सकता है।

(vii) घरों की पुताई - सोवियत ध्वनि विशेषज्ञों के अनुसार यदि आप घर के आस-पास होने वाले शोर से परेशान हैं तो घर को हल्का-नीला या हल्का हरा पुतवा लेना चाहिए। अनुसंधानों से यह बात सामने आयी है कि रंगों में हल्का हरा या नीला रंग ध्वनि के लिये सर्वाधिक अवरोधक हैं। इसी प्रकार की आवश्यकता है कि कारखानों की ध्वनि से बाहर के लोगों की रक्षा हो सके। नगर प्रशासन को इस प्रकार की जानकारी नागरिकों तक पहुँचाना चाहिए जिससे नागरिक ध्वनि प्रदूषण से आंशिक बचाव कर सकें।

(viii) ध्वनि विस्तारकों का कम से कम प्रयोग - धार्मिक, सामाजिक चुनाव आदि के अवसरों पर ध्वनि विस्तारक यंत्र (लाउडस्पीकर) का प्रयोग बहुत ही कम तथा आवश्यक स्थिति में ही करना चाहिए। मस्जिद आदि में नियमित रूप से किये जाने वाले लाउडस्पीकर के प्रयोग में प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है तथा उच्च ध्वनि में टेपरिकार्ड आदि के बजाने पर भी नियंत्रण की आवश्यकता है। इसके लिये कानून बनाना उसे लागू करना, उसका पालन कराना भी आवश्यक है। 31 अगस्त 2000 को सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय इस दिशा में स्तुत्य है। जिसमें धर्म, संस्कृति आदि का प्रसार करने के लिये ध्वनि विस्तारकों का प्रयोग कर जन सामान्य की सुख सुविधाओं में बाधा उत्पन्न करना कानूनी अपराध घोषित किया गया है।

(ix) मनोरंजन के साधनों पर ध्वनि नियंत्रण - रेडियो, टेलीविजन, टेपरिकार्ड पर अधिक ध्वनि पर नियंत्रण की आवश्यकता है। इसके लिये कानून तथा शासन की ओर से शक्ति का प्रयोग किया जाये। बाजारों, व्यापारिक स्थलों में यह समस्या बहुत अधिक है इनकी शिकायतों पर शीघ्रता से कदम उठाने की आवश्यकता होती है। उ.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वकील कमलेश सिंह ने बताया कि नगर की घनी आबादी के क्षेत्रों में 90 डीबी ध्वनि स्तर है। स्थानीय संस्था ''जनहित'' की याचिका पर उच्च न्यायालय लखनऊ खंडपीठ के न्यायमूर्ति सै. हैदर अब्बासरजा एवं न्यायमूर्ति आरपी निगम ने ध्वनि प्रदूषण रेगूलेशन एंड कंट्रोल रूल्स 2000 की धारा-5 के अनुसार लाउडस्पीकरों की उच्च ध्वनि पर कार्यवाही करने को कहा।

(x) हॉर्नो के प्रयोग पर नियंत्रण - वाहनों में हॉर्नो का प्रयोग आवश्यक स्थिति में करना चाहिए फ्रांस और अमेरिका जैसे देशों में हॉर्न बजाना चालक की सबसे बड़ी भूल मानी जाती है। तथा अन्य संचालक का अपमान समझा जाता है। अर्थात अन्य चालक की विशेष भूल पर ही हॉर्न बजाया जाता है, किंतु हमारे देश के सम्बन्ध में यह एकदम उल्टी बात समझी जाती है। प्रत्येक वाहन के पीछे यह लिखना नहीं भूलता कि 'ध्वनि कीजिए' 'प्लीज हार्न' अर्थात ऐसी व्यवस्था वाले देश में हॉर्न का प्रयोग न हो एक बहुत बड़ी बात है। इसके लिये कानूनी तौर पर प्रयास पूरे करने की आवश्यकता है। बहु ध्वनि वाले हार्नों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए, ब्रेक लगाते समय भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ब्रेक एक वारगी न लगाया जाए। हॉर्न का समुचित उपयोग किया जाए तथा बजाने की धारणा में परिवर्तन करने की आवश्यकता है। नगर में रोक लगाने पर भी अधिकांश वाहनों में हूटर लगाए गये हैं कानून को लागू करके ऐसे वाहनों का पंजीकरण निरस्त करना चाहिए तथा समय-समय पर निरीक्षण किया जाना चाहिए। 4 सितंबर 2000 को दिये गए उच्च न्यायालय के निर्देश प्रशासन को कठोरता से लागू करना चाहिए।

(xi) डेसीबल मीटरों का प्रयोग - दक्षिण कैलीफोर्निया में कारों, ट्रकों, बसों आदि में डेसीबल मीटर लगाए गए हैं। इनसे ध्वनि की जाँच वैसे ही होती है जैसे की गति सीमा के लिये स्पीडों मीटर की। अत: यह शोर प्रदूषण को कम करने की दिशा में बहुत ही उपयोगी और कारगर कदम हो सकता है। अत: इस दिशा में सफल प्रयोग किया जा सकता है। लखनऊ नगर के स्वस्थ पर्यावरण के लिये डेसीबल मीटरों के लगाए जाने के लिये कानून बनाने तथा सुविधाएँ उपलब्ध कराने की आवश्यकता है।

(xii) मापक निर्धारण - ध्वनि प्रदूषण के स्तर पर एक मापक का निर्धारण करने की आवश्यकता है जिससे कि नियमों का पालन किया जा सकता है। ऐसे सचल दस्ते का गठन किया जाना चाहिए जिससे कि नियमों का उल्लंघन करने वाले को दंड दिया जा सके। इसके लिये अन्य व्यवस्थित विकल्प भी हैं।

(xiii) जेटयानों में टर्बोफेन - जेट यानों में ध्वनि को कम करने के लिये टर्बोजेट इंजन के स्थान पर टर्बोफेन इंजन लगाए जाने की आवश्यकता है। इंजनों को पंखों के नीचे लगाने तथा इंजन के निर्गम पाइप को ऊपर आकाश की ओर मोड़कर शोर कम करने की दिशा में प्रयत्न किये जाने चाहिए।

(xiv) नवीन यंत्र निर्माण - स्वीडन के वैज्ञानिकों ने शोर से बचने के लिये ऐसे यंत्रों का निर्माण किया है जिससे श्रमिक आपसी वार्तालाप तो सुन सकते हैं। परंतु मशीनों की गड़गड़ाहट उन तक नहीं पहुँच पाती है, इसी प्रकार के यंत्रों का निर्माण किया जाना चाहिए तथा शीघ्रातिशीघ्र श्रमिकों को उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

2. माध्यम पर शोर नियंत्रण



शोर प्रभाव को कम करने के लिये ध्वनि संचरण पथ पर नियंत्रण करने की तकनीकि से सम्बन्धित हैं। इसमें ध्वनि ऊर्जा जो प्राप्तकर्ता को संचरित होती है। उसे परिसंचरण पथ में परिवर्तन करके कम किया जा सकता है। इसके लिये कुछ विकल्प इस प्रकार हो सकते हैं।

(i) स्थिति का निर्धारण - ध्वनि उत्पादक केंद्र और ध्वनि के प्रभाव में आने वाले के बीच की दूरी अधिक बढ़ा दी जाती है ध्वनि स्रोत का प्रभाव सभी दिशाओं में समान रूप से नहीं होता, अत: प्राप्तकर्ता की विपरीत दिशा में स्रोत मुख को मोड़ने की आवश्यकता होती है।

(ii) भवन संरचना में सुधार - आवास गृहों कार्यालयों, पुस्तकालयों में उचित निर्माण सामग्री तथा उचित निर्माण संरचना की तकनीकि से ध्वनि के प्रभाव को कम किया जा सकता है। भवन के अंत: परिसर का निर्माण इस प्रकार किया जाए कि वाह्य ध्वनि को अंदर तक पहुँचने से रोके और वाह्य आवांछित ध्वनि से रक्षा प्रदान करे इसी प्रकार कारखानों के कक्ष की आवांक्षित ध्वनि बाहर न जाए और उससे अन्य लोगों की रक्षा हो सके।

(iii) ध्वनि मार्ग में अवरोध - इस विधि में ध्वनि स्रोत को ध्यान में रखकर खुली हवा में ध्वनि अवरोधक बनाए जाते हैं जो ध्वनि को फैलने से रोकते हैं। लेकिन ये अवरोध स्रोत से उत्पन्न लंबाई की तुलना में बड़े आकार के होने चाहिए जो ध्वनि का मार्ग परिवर्तित कर सके। इस प्रकार ध्वनि स्रोत एवं प्राप्त कर्ता के मध्य अवरोध का निर्माण करके ध्वनि को दूसरी दिशा में मोड़ा जा सकता है और प्राप्तकर्ता को उसके घातक प्रभाव से बचाया जा सकता है।

(iv) ध्वनि अवशोषण - यह एक ऐसी प्रभावी तकनीकि है जो ध्वनि संचरण पथ को नियंत्रित करती है। इस तकनीक में शोर उत्पन्न करने वाली मशीनों को एक कमरे में रखा जाता है तथा उस कमरे की फर्श और दिवारों में, छतों में ध्वनि अवशोषित करने वाले पदार्थ अवलेपित किये जाते हैं। ये दीवारें ध्वनि को शोख लेती है। तथा कमरे के बाहर काम करने वाले श्रमिकों को व्यवधान उत्पन्न नहीं होता इस उपयोग में कुछ ध्वनि अवशोषक कालीने भी फर्श पर बिछाई तथा दिवारों और छतों में लगाई जा सकती है।

(v) मफलरों का उपयोग - ध्वनि परिसंचरण पथ में ध्वनि ऊर्जा प्रवाह को मफलर का प्रयोग करके रोका जा सकता है। अगर चलती हुई मशीन को चारो तरफ से ऊनी मफलरों द्वारा ढक दिया जाए तो प्राप्त कर्ता तक ध्वनि का स्तर बहुत कम हो सकता है। इसी प्रकार ऊनी कालीनों द्वारा घेरने पर ध्वनि बहुत ही कम हो जायेगी। इसी प्रकार मजदूरों को भी चाहिए की उच्च ध्वनि के दुष्प्रभाव से बचने के लिये अपने कानों में ऊनी मफलरों का प्रयोग करके ढके और उसके प्रभाव से बचें।

(vi) मशीनों का रख-रखाव एवं समायोजन - मशीनों को रख-रखाव उचित एवं ठीक ढंग से करने पर बहुत सा शोर कम किया जा सकता है।

3. प्रभाव पर ध्वनि नियंत्रण -



ध्वनि का प्रभाव जिस किसी पर पड़ता है उसके द्वारा कुछ विधियों का प्रयोग कर अवांछित ध्वनि से बचा जा सकता है।

(i) कर्ण प्रतिरक्षात्मक साधनों का प्रयोग - औद्योगिक क्षेत्रों तथा सेना इत्यादि में शोर से अधिकतर प्रभावित रहने वाले लोगों को कर्ण प्रतिरक्षात्मक साधनों का प्रयोग करना चाहिए। अनुमान के अनुसार इनके प्रयोग से 35 डेसीबल ध्वनि की सुरक्षा की जा सकती है। इनमें कान में लगाए जाने वाले प्लग, मफलर, ध्वनि रोधी हेलमेट तथा मशीन कक्ष में छोटा सा उपकरण बनाकर ध्वनि के दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है। इन यंत्रों और उपकरणों की उपलब्धता सर्व सुलभ है। इनके उपयोग के सम्बन्ध में औद्योगिक इकाइयों के मालिकों द्वारा सहायता उपलब्ध करायी जानी चाहिए तथा नि:शुल्क रूप से कर्मचारियों में वितरित की जानी चाहिए।

(ii) निर्धारित अवधि से अधिक समय शोर स्रोत के निकट रहना - ध्वनि की प्रबलता का हमारे शरीर पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। यदि ध्वनि स्तर अधिक है, तो उसमें रहने की अवधि कम कर दी जाए तो ध्वनि प्रदूषण से कुछ हद तक बचा जा सकता है। 90 डीबी की ध्वनि में 8 घंटे से अधिक नहीं रहना चाहिए। इससे ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव से बचा जा सकता है। इसी प्रकार 92 डीबी, 6 घंटे, 95 डीबी पर 4 घंटे, 97 डीबी में 3 घंटे, 100 डीबी में 2 घंटे, 102 डीबी में 1½ घंटे, 105 डीबी में 1 घंटे, 110 डीबी में ½ घंटा तथा 115 डीबी में ¼ घंटे से अधिक नहीं रहना चाहिए। इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को ध्यान में रखकर श्रमिकों को अपनी आवश्यकतानुसार अपने कार्य अनुभाग में शीघ्रता पूर्वक परिवर्तन करना चाहिए ताकि ध्वनि प्रदूषण से अपनी रक्षा कर सके।

(iii) जन जागरूकता एवं शिक्षा का प्रसार - बड़े औद्योगिक नगरों में कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई, मुंबई, लखनऊ, कानपुर इत्यादि महानगरों में ध्वनि प्रदूषण की समस्या लगातार गहराती जा रही है। इस समस्या के निदान के लिये सबसे उत्तम और आवश्यक उपाय हो सकता है कि संचार माध्यमों यथा रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा घरों, समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं आदि के माध्यम से लोगों में ध्वनि प्रदूषण के प्रति जागरूकता लाने को दिशा में प्रयास किये जा सकते हैं –

1. सड़कों रेलमार्गों से आवासीय कॉलोनियों को दूर बसाया जाए, व्यापारिक और औद्योगिक प्रतिष्ठानों को आवासीय क्षेत्रों से दूर विकसित किया जाए तथा आवश्यकतानुसार सम्पर्क मार्गों से जोड़ा जाए।

2. नगर निगम तथा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण के लिये अनुश्रवण केंद्रों की स्थापना करनी चाहिए। तथा समय-समय पर अनुश्रवण करना चाहिए।

3. भारी वाहनों के लिये नगर के बाहर से जाने के लिये सम्पर्क मार्ग बनाए जाने चाहिए तथा नगर के लिये आवश्यक दशा में रात में बिना हॉर्न बजाए प्रवेश देना चाहिए।

4. नगरीय आवागमन में वाहनों में हॉर्नों के प्रयोग के लिये मानक निर्धारित करना चाहिए तथा उसके पालन के लिये प्रबंध कराना चाहिए।

5. नगर के आवासीय क्षेत्रों तथा व्यापारिक और औद्योगिक क्षेत्रों के बीच वृक्षों की बाड़ लगाने की आवश्यकता रहती है। औद्योगिक संस्थानों के निकट हरे वृक्षों की बाड़ लगाने से ध्वनि स्तर को कम किया जा सकता है। साथ ही वायु प्रदूषण तथा ऑक्सीजन का संतुलन बनाया जा सकता है। सड़कों के किनारे बड़े वृक्ष अशोक, इमली, नीम, ताड़, नारियल जैसे वृक्षों को लगाना चाहिए वृक्षों की बाड़ लगाकर 20 डीबी तक ध्वनि स्तर को कम किया जा सकता है। वृक्षारोपण स्थानीय जलवायु के आधार पर किया जाता है। अत: लखनऊ नगर के लिये भी इसे आवश्यक रूप से यथाशीघ्र स्वीकार करने की आवश्यकता है।



(iv) आवासीय भवनों में ध्वनि नियंत्रण




  1. भवनों को ध्वनि के स्थायी स्रोतों से दूर निर्मित करने की आवश्यकता होती है। स्थिति का प्रभाव ध्वनि स्तर को काफी कम कर देता है।

    2. भवनों का निर्माण करते समय चतुर्दिक पर्याप्त भूमि में वृक्षारोपण करना चाहिए। ये ध्वनि स्तर को कम करते हैं तथा ध्वनि की कर्कशता को काफी कम करते हैं।

    3. शयन कक्ष, तथा अध्ययन कक्ष को भवन के एक ओर निर्मित करना चाहिए जो कि शौचालय, सीढ़ी, स्नानागार जैसे ध्वनि वाले कक्षों से दूर हों।

    4. संलग्न शौचालयों का निर्माण नहीं करना चाहिए, रसोई घरों, स्नान घरों में शीशा लगाना चाहिए।

    5. रेडियो, दूरदर्शन, टेपरिकार्ड को परिमित तथा धीमी आवाज में बजाना चाहिए केवल अपने लिये उस ध्वनि का स्तर रखना चाहिए न कि गली मोहल्लो में ध्वनि का प्रसार हो।




भारतीय मानक संस्थान के ध्वनि प्रदूषण रोकने के उपाय




  1. हवाई अड्डों तथा मार्गों की स्थिति को आवासीय क्षेत्रों से दूर रखा जाए आवासीय क्षेत्रों में वायुयानों का उड़ना तथा उतरना यथा संभव रोका जाए।

    2. रेलवे स्टेशनों तथा राजमार्गों की स्थिति नगर के वाह्य भाग में रखी जाए जिससे कम से कम नगरीय नागरिक प्रभावित हो। बड़े वाहनों के लिये वाईपास बनाया जाए तथा वृक्षारोपण किया जाए।

    3. औद्योगिक क्षेत्रों की स्थिति को आवासीय कॉलोनियों से दूर रखा जाए। संरचना में ऐसा सुधार किया जाए कि कम से कम ध्वनि फैले।

    4. औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना में पवन दिशा तथा आवासीय कॉलोनियों की स्थिति का ध्यान दिया जाए। इससे नगर का वायु प्रदूषण निश्चित रूप से कम हो सकेगा।

    भारतीय ध्वनि संस्था ने अपनी वार्षिक संगोष्ठी दिसंबर 1985 में ध्वनि और उसके जैविक प्रभाव पर आयोजित की तथा अपना विस्तृत प्रतिवेदन तैयार कर औद्योगिक और नगरीय क्षेत्रों में ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये 'शोर नियंत्रण कानून' बनाया। 1986 में भारत सरकार पर्यावरण मंत्रालय ने एक विशेषज्ञ समिति नियुक्त की जिसने हमारे देश के शोर प्रदूषण के वर्तमान स्तर का अध्ययन कर उसकी रोकथाम और सुझावों तथा तत्सम्बंधी नये कानूनों के समावेश पर विचार किया। इस संगोष्ठी का अंतिम प्रतिवेदन जून 1987 से पूर्व ही भारत सरकार ने इस ओर ध्यान दिया। 1986 के पर्यावरण सुरक्षा कानून अनुच्छेद- 6 (2 बी) के अनुसार शोर को भी वायु और जल प्रदूषण के समान पर्यावरणीय प्रदूषण मान लिया गया।

    केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के अध्यक्ष और पर्यावरण तथा वन मंत्रालय के अधिकारियों ने फरवरी 1989 में एक तकनीकी समिति गठित की जिसका कार्य ध्वनि नियंत्रण के नियमों और सुझावों को देना था। इस समिति का उद्देश्य शोर पैदा करने वाले साधनों का वर्गीकरण करना व्यापक शोर, घरेलू यंत्रों के शोर, परिवहन के साधनों का शोर और औद्योगिक शोर के स्तर का मूल्यांकन करना था। इस समिति ने अपना प्रतिवेदन सितंबर 1989 में विभाग को सौंप दिया था, इसे तैयार करते समय समिति ने दूसरे देशों, विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्तरराष्ट्रीय मानक संस्थान के स्तरों को तो ध्यान में रखा ही साथ ही देश वासियों की आर्थिक स्थिति को भी ध्यान में रखा तथा उनके तौर तरीकों को ध्यान में रखकर व्यापक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। इस प्रतिवेदन में निम्नलिखित को शोर का स्रोत समझा गया जिनसे मनुष्य सड़क, घर, कार्यशाला, कार्यालय एवं फैक्टरी में प्रभावित होता है -

    1. औद्योगिक शोर, 2. मोटरगाड़ी का शोर, 3. घरेलू उपकरणों का शोर, 4. जन संचार साधनों का शोर, 5. वायुयानों का शोर, 6. रेलगाड़ी का शोर, 7. निर्माण कार्यों का शोर, 8. पटाखों का शोर

    इसमें शोर के विभिन्न स्रोतों में उद्योगों, मोटर गाड़ियों, घरेलू उपकरणों तथा जन संचार माध्यमों से उत्पन्न शोर से अधिकांश जन समुदाय अधिक समय प्रभावित रहता है जबकि वायुयान, रेलगाड़ी, निर्माण कार्यों एवं पटाखों से उत्पन्न शोर से जन समुदाय अल्प समय तक ही प्रभावित होता है।

    शोर ध्वनियों का मानकीकरण



भारत में शोर नियंत्रण को प्रभावी बनाने के लिये विभिन्न प्रकार के ध्वनि स्रोतों से होने वाले प्रदूषण की सीमा निर्धारित की गयी शोर सीमाओं का मानकीकरण करते समय दुनिया के सभी क्षेत्रों के निर्धारित मानक स्वीकृत तरीकों की आर्थिक संभाव्यता देश की जलवायु तथा लोगों की सामाजिक आदतों को ध्यान में रखा गया उपर्युक्त प्रेक्षणों को ध्यान में रखते हुए हमारे देश में शोर प्रदूषण नियंत्रण के लिये गठित समिति ने क्षेत्र तथा दिन के समय के अनुसार 45 डीबी से 75 डीबी तक की शोर सीमा स्वीकृत की है। संस्थान द्वारा स्वीकृत शोर स्तर का विवरण तालिका- 5.2 में प्रस्तुत किया गया है। मिश्रित शोर क्षेत्रों की व्याख्या उनके उत्पादों की महत्ता से निर्धारित करने का सुझाव है। दिन की व्याख्या प्रात: 6 बजे से रात्रि 9 बजे तक की गयी, और रात्रि की व्याख्या प्रात: 6 बजे तक की गई। शांत क्षेत्रों का आकलन अस्पतालों, रक्षा क्षेत्रों, शिक्षण संस्थानों तथा न्यायालय परिसरों से लगभग 100 मीटर की परिधि में किया गया।

समिति में उद्योगों में काम करने वाले कामगारों के लिये भी शोर स्तर का निर्धारण किया गया। उनमें 90 डीबी की सीमा 8 घंटे के लिये निर्धारित की गयी इसी प्रकार यह ध्वनि स्तर 3 डीबी और ऊँचा होगा तो यह समय प्रत्येक बार आधी हो जायेगी लगातार या रूक-रूककर आने वाली ध्वनि का शोर स्तर 115 डीबी निर्धारित किया गया है। आकस्मिक शोर स्तर भी 14 डीबी से अधिक का नहीं होना चाहिए। समिति ने परिवहन शोर की रोकथाम के लिये भी मोटर गाड़ियों के शोर के स्तर निर्धारित किए हैं जो निम्नवत है।

समिति ने अपने सुझाव में यह भी निर्धारित किया कि प्रत्येक यंत्र का शोर स्तर समय के साथ तकनीकी प्रगति के कारण घटना चाहिए प्रत्येक पाँच वर्ष में 3 डीबी 15 वर्ष तक की अवधि में होना चाहिए। समिति ने घरेलू स्तर की मशीनों में शोर स्तर की सीमा का भी निर्धारण किया है। वातानुकूलित यंत्र के लिये 68 डीबी, वायु शीतलक के लिये 60 डीबी प्रतिशत के लिये 46 डीबी, एक मीटर की दूरी से निर्धारित किए हैं और यह अपेक्षा की गयी की यह शोर स्तर प्रत्येक 5 वर्ष में 2 डीबी कम होना चाहिए। यह सीमा 15 वर्षों तक के लिये है। समिति ने अनेक घरेलू उपकरणों यथा रेडियो, दूरदर्शन, ग्राइंडर, विद्युत जनित तथा जलीय पंप का भी सूचीकरण किया। परंतु पर्याप्त आंकड़ों के अभाव में इसका निर्धारण नहीं किया जा सका। इसके लिये समिति का सुझाव था कि विद्युत जनित पर ध्वनि कंट्रोल रखे जाने चाहिए पंपों को भूमि गत रखा जाय, तथा रात में न चलाया जाय।

ध्वनि विस्तारक यंत्रों से उत्पन्न शोर के लिये समिति के सुझाव थे कि जनसंचार के माध्यमों के लिये लाइसेंस लेना चाहिए तथा ध्वनि सीमा का उल्लेख होना चाहिए, रात्रि में इनका प्रयोग नहीं होना चाहिए पब्लिक एड्रेस सिस्टम का प्रयोग खुले मैदान के अतिरिक्त बंद स्थानों में ही होना चाहिए जिसका बाहर की ध्वनि में प्रभाव 5 डीबी से अधिक नहीं होना चाहिए।

समिति ने पटाखों से उत्पन्न शोर के नियंत्रण के लिये 90 डीबी के पटाखों के उत्पादन तथा बिक्री पर रोक लगाने की सिफारिस की तथा रात में 9 से प्रात: 6 बजे तक पटाखे न छोड़ने की सिफारिस की।

समिति ने निर्माण कार्यों से होने वाले शोर को रोकने के लिये निर्माण स्थलों को चारों ओर से घेरने की भी सिफारिस की विभिन्न भवनों में अधिकतम स्वीकार सीमा का भी निर्धारण किया गया। समिति ने ध्वनि प्रदूषण के स्तर और दुष्परिणामों से जनसाधारण को अवगत कराने की सिफारिस की इस प्रस्ताव को भारत सरकार ने स्वीकार किया तथा इसे राजपत्रों में प्रकाशित भी किया गया है।

शोर नियंत्रण के लिये भारतीय दंड संहिता की धारा में 290 के अंतर्गत शोर से सार्वजनिक कष्ट होने पर शोर करने वाले को 200 रुपये के जुर्माने का प्राविधान है। यद्यपि यह शोर रोकने में सक्षम नहीं है। हमें अपने देश में भी ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण के लिये कठोर कानून बनाने और लागू करने की आवश्यकता है।

केंद्रीय अधिसूचना के द्वारा ध्वनि प्रदूषण को कड़ाई से रोकने के लिये राज्य पर्यावरण विभाग द्वारा 1991 में प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों को अधिसूचना भेजी गयी कि शांत क्षेत्रों की सीमा निर्धारित की जाए और अपने जिले की नगरीय सीमा के अंतर्गत अस्पतालों, स्कूल कॉलेजों व न्यायालयों के 100 मीटर के परित: क्षेत्र को शांत क्षेत्र घोषित करके ऐसे क्षेत्रों में ध्वनि प्रदूषण करने वाली गतिविधियों पर अंकुश लगाये, विशेषकर वाहनों के हॉर्न, लाउडस्पीकरों तथा पटाखों का प्रयोग प्रतिबंधित रहेगा। लखनऊ महानर के शांत घोषित क्षेत्रों में उच्च ध्वनि स्तर को राज्य पर्यावरण की 1991 की अधिसूचना को अमल में लाकर नियंत्रित किया जा सकता है।

इसी प्रकार जून 1992 में तत्कालीन परिवहन आयुक्त ने सभी संभागीय परिवहन अधिकारियों को प्रपत्र भेजकर ध्वनि प्रदूषण की गहराती समस्या के प्रति सचेत किया था। इस पर काबू पाने के लिये वाहनों में लगे 'मल्टीटोन प्रेशर हॉर्न' को हटवाने के निर्देश दिये। यदि विभाग समुचित कार्यवाही करता तो शायद इस दिशा में अपेक्षित सुधार होता। लखनऊ नगर में उच्च ध्वनि वालेॉहार्न का प्रयोग अधिक किया जा रहा है। विभाग के इस निर्देश का पालन कर नगर की बढ़ती ध्वनि प्रदूषण की समस्या को कम किया जा सकता है।

लखनऊ महानगर में ध्वनि प्रदूषण की व्यापक समस्या के समाधान एवं निदान के उपाय का अध्ययन करते हुए नगर की अन्य प्रमुख सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करना समीचीन होगा।

संदर्भ (REFERENCE)




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    2. प्रतियोगिता दर्पण/फरवरी/1991/772
    3. Harry Rothman : The Rural Environment Rupert Hart Davis London, 1972, p. 95
    4. Ibidem, Pratiyogita Darpan, 1999
    5. Shapan Hover in Ojha, D. D. Noise Pollution p. 40
    6. Ibidem Ojha D. D. p. 50.
    7. Purushatham, S., “The Noise Nuisance” Science Today, Times of India Pollution, Feb 1978, p. 35
    8. Kumra, V.K., Kanpur City : A Study in Environmental pollution. P. 130
    9. Statesman, 11th July, 1976, (by staff reporter)
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    11. पर्यावरण चेतना, मार्च 98
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    14. Dr. Colin Herridge, in Dr. Chaurasiya, R.A. Environmental Pollutation Management, 1992 p. 194
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    17. दैनिक जागरण, लखनऊ, जुलाई 1997
    18. National Research Council of Canada, A Brief Study of Rationall Research to Legistative Control of Canada, Report NAPS, 467, NPC (10577), 1968. 
    19. Ibidem, Kumra, V.K.
    20. Ibidem, Dr. Chaurasiya, R.A.
    21. दिलीप कुमार मार्कण्‍डेय, 'पर्यावरण प्रदूषण' वैज्ञानिक एवं तकनीकी लेखों का संकलन 1991 p. 11
    22. Ibidem Ojha, D. D.